उस रात के बाद अर्जुन ने अपनी मां को बुला लिया अपने पास, डरा हुआ अर्जुन अब अकेले नहीं रहना चाहता था। उसे अब साथ की जरूरत थी एक साथ की।
ये रूपा कौन है? अर्जुन के दिमाग में बस ये ही चल रहा था कि अचानक से स्टोर रूम की बत्तियां झपकने लगी
स्टोर रूम की झपकती बत्तियों के बीच अर्जुन की सांसें अटक गईं। रूपा की वो फुसफुसाहट अब सिर्फ़ कानों तक नहीं, सीधे रूह तक उतर गई थी। "तुमने मुझे छोड़ा था…" — ये शब्द उसके भीतर गूंज रहे थे।
अर्जुन ने चिट्ठियाँ कसकर थाम लीं। वो दौड़ता हुआ स्टोर से बाहर निकला। घर की दीवारें उसे अब अजनबी सी लग रही थीं। हर कोना, हर दरवाज़ा जैसे कोई भूला हुआ राज़ लिए खड़ा था। वो सीधा अपनी माँ के पास गया।
"माँ, रूपा कौन थी?"
माँ ने चौंक कर देखा, जैसे कोई भूत पीछे से आ गया हो।
"तुम… तुमको कैसे याद आया ये नाम?"
"माँ, मैं सब जानना चाहता हूँ। अभी के अभी।"
माँ की आंखें नम हो गईं। उन्होंने धीरे से सोफे पर बैठते हुए कहा, "रूपा तुम्हारी बचपन की सबसे अच्छी दोस्त थी। तुम्हारी हर बात में बस वही होती थी। लेकिन एक दिन… सब बदल गया।"
"क्या हुआ था माँ?"
"उस दिन तुम्हारा जन्मदिन था। तुम बहुत खुश थे। रूपा भी आई थी, लेकिन झूले से गिर गई। सिर पर चोट लगी और… और वो कभी वापस नहीं लौटी।"
अर्जुन का दिल बैठ गया। "तो… वो मर गई थी?"
माँ ने सिर झुका लिया। "हमने तुम्हें सब भुला दिया। डॉक्टर ने कहा था तुम्हारी याददाश्त पर असर पड़ा है। तुम हफ्तों चुप रहे, और फिर धीरे-धीरे सब भूल गए।"
अर्जुन की आंखों के सामने जैसे पूरा अतीत घूम गया। झूला, हँसी, वो मासूम आवाज़ें… और फिर अचानक सन्नाटा।
"तो वो… अब क्यों लौटी है?" अर्जुन ने खुद से पूछा।
उसी रात, अर्जुन ने पहली बार डर के बजाय सच्चाई से सामना करने की ठानी। उसने कमरे की सारी बत्तियाँ बुझा दीं। खिड़की खोल दी, और वही फोटो और चिट्ठियाँ अपने सामने रख दीं।
"रूपा, अगर तुम सच में हो… तो आओ। मैं अब डरूंगा नहीं।"
कमरे में सन्नाटा था। हवा रुकी हुई थी। फिर अचानक, चिट्ठियाँ हिलने लगीं… जैसे किसी ने उन्हें छुआ हो। खिड़की के पर्दे फड़फड़ाए, और कमरे में वो जानी-पहचानी ठंडक भर गई।
अर्जुन ने आंखें बंद कर लीं।
"रूपा, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुम्हें छोड़ना नहीं चाहता था। मुझे कुछ याद नहीं था… लेकिन अब है। मैं अब तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूंगा।"
धीरे-धीरे, उसे किसी की हल्की सांसें सुनाई दीं। और फिर वो आवाज़—
"तुम्हें याद आ गया…"
अर्जुन ने आंखें खोलीं। उसके सामने खड़ी थी रूपा। वही मासूम चेहरा, अब थोड़ा बुझा हुआ। आंखों में आँसू… लेकिन उनमें कोई ग़ुस्सा नहीं था।
"मैं इंतज़ार करती रही, अर्जुन। हर साल… हर जन्मदिन…"
"अब नहीं, रूपा। मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूंगा।"
रूपा की आँखों में सुकून आ गया। उसकी देह धीरे-धीरे धुंध में बदलने लगी। लेकिन इस बार वो गायब नहीं हो रही थी डर बनकर—वो जा रही थी सुकून के साथ।
"धन्यवाद… अर्जुन…" उसकी आवाज़ हवा में घुल गई।
कमरे में शांति छा गई।
अर्जुन वहीं बैठा रहा। अब डर नहीं था—बस एक खालीपन, और एक वादा जो उसने पूरा किया था।
पर ये अंत नहीं था।
अर्जुन की टेबल पर एक नई चिट्ठी रखी थी—ताज़ा लिखी हुई।
"अगर मैं फिर आऊं… तो तुम फिर से मुझे पहचान लोगे ना?"
अर्जुन ने मुस्कुरा कर चिट्ठी सीने से
लगा ली।
क्योंकि कुछ रिश्ते… मौत के बाद भी ज़िंदा रहते हैं।