Hanumat Pataka - Samiksha v Chhand - 3 in Hindi Spiritual Stories by Ram Bharose Mishra books and stories PDF | हनुमत पताका- समीक्षा व छन्द - 3

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हनुमत पताका- समीक्षा व छन्द - 3

हनुमत पताका- समीक्षा व छन्द 3

'हनुमत पताका' दरअसल हनुमान जी की स्तुति के 135 छन्द का ग्रंथ है, जो काली कवि द्वारा लिखित मन्त्र सदृश्य छन्द हैं। इसका पुनर प्रकाशन और संपादन अरुण कुमार नागर 'अरुण' उरई ने किया है जो कि काली-कवि के पौत्र हैं।  इसके प्रकाशक, संपादक और वितरक अरुण कुमार  "अरुण" उरई up हैं। 26 सितंबर 1983 को इसे प्रकाशित किया गया था। मूल 'हनुमत पताका' तो कभी अपने सामने कवि काली ने छपाई होगी। इस ग्रंथ में काली कवि का नाम पंडित काली दत्त नागर लिखा गया है । यह गुजराती ब्राह्मण थे । सम्वत  1900 के लगभग इनका जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम छविनाथ नागर था । महाकवि काली अपने समय के प्रकांड ज्योतिष थे, तांत्रिक, पहलवान थे, और महा कवि थे । यह बगलामुखी के बड़े उपासक थे। संभव है बगलामुखी से संबंधित उनके चरणों की कोई पुस्तक मौजूद हो। वैसे इनके ग्रँथों में हनुमत पताका, गंगा गुण मंजरी, छवि रत्नम, ऋतुराजीव,  रसिक विनोद, कवि कल्पद्रुम, चिदंबर रहस्य है। संवत 1966 में पंडित काली दत्त नागर ने इस लोक से विदाई लेकर स्वर्ग लोक की यात्रा आरंभ की। उनके तीन ही ग्रंथ  प्रकाशित हुए , हनुमत पताका, गंगा गुण मंजरी और छवि रत्नम । 

 डॉक्टर श्यामसुंदर बादल राठ ने कवि के बारे में लिखा है ' काली महाराज एक सफल साधक थे। सड़क अगर कभी हो तो सोने में साधक अगर इनकी साधना में ओझाओं की कठिन वृत्ति स्थान न पाती तो निश्चय ही काली महाराज कभी कल कुमुद कलाधर कालिदास होते पर उन्होंने जितना लिखा बेजोड़ लिखा।'(प्रथम पृष्ठ)

 

 अरुण कुमार संपादक कहते हैं कि 'संस्कृत बुंदेली एवं ब्रजभाषा का अनूठा संगम हिंदी साहित्य का प्रयांग है। हनुमत पताका जो बुंदेलखंड में  काली कवि की यश पताका कहलाती है, हनुमत पताका हिंदी साहित्य का अनूठा खंडकाव्य है जिसमें हनुमान जी को लंका गमन, लंका दहन आदि कथा को कविताओं के माध्यम से दर्शाया गया है।( अरुण कुमार नागर 'अरुण',  मैं भी कुछ कह लूं , पृष्ठ १)

काली कवि के बारे में डॉक्टर हर नारायण सिंह आजमगढ़ लिखते हैं-

 कर गयो कमल ई कराल कल कालहूं में,

 कुसुम खिलाए गयो  कुशल एक माली सौ।

 धन्य ये उरई अरु धन्य है येहै भारत देश, धन्य धन्य धरती जहां जन्मों  कभी काली सौ।

 डॉक्टर ए के जड़िया लिखते हैं काली की कृपा सों जंत्र जाल के जनैया  खास ,

दिव्य रोशनी के अंश मानव रवि के भरे ।

भाव के खरे हैं नखरे हु निखरे  हैं ऐसे,

 कोऊ न भरे हैं जैसे काली कवि के भरे।

  परमात्मा शरण शुक्ला गीतेश ने लिखा है-

 मुक्त मधुमास में मधुप मन संभ्रमित,

 हो प्रशस्ति कुंज की कि आत्मा सिद्ध माली की।

 उरई के उर सुगंधि है दिगंत व्याप्त,

 काव्य की प्रशस्ति समेत कवि काली को। (पृष्ठ दो)

 पद्मभूषण रामकुमार वर्मा ने लिखा है ,  काली कवि को हम जरा भी संकोच किए वगैर पद्माकर, बिहारी व सेनापति की श्रेणी में बेहतर स्थान पर रख सकते हैं।(पृष्ठ तीन) केदारनाथ अग्रवाल ने कहा है ' काली कवि की रचनाएं आज भी लोगों को याद है, व उन्हें भाव विभोर करती हैं। उनके कृतित्व  का मूल्यांकन वरिष्ठ हिंदी के विद्वानों व विशारदों  द्वारा मनोयोग से किया जाना चाहिए।

 पद्म भूषण अमृतलाल नागर ने लिखा है 'काली कवि के साहित्य को परखने का सौभाग्य मिला, भाषा, भाव, उपमाएँ किस-किस को सराहूं  ये मेरा दुर्भाग्य ही था जो मैं अब तक काली महाराज के यश से अपरिचित रहा । काली कवि  का उचित मूल्यांकन शीघ्र होना चाहिए।

 स्वर्गीय द्वारका प्रसाद गुप्त रसिकेंद्र ने लिखा था ' काली-कवि जैसी  घनाक्षरी लिखने में हिंदी का दूसरा अन्य कभी इतना सफल नहीं हुआ, रस परिपाक, अलंकारों का निरूपण और चमत्कार उपमा का चयन, भाषा की लोच, सरसता और प्रवाह जैसी उनकी रचनाओं में पाई जाती है वह अन्यत्र हिंदी के कवियों में बहुत कम पाई जाती है।(पृष्ठ तीन )

 इनके अलावा आचार्य सिद्धनाथ मिश्रा, राजेश रामायणी पचोखरा, डॉक्टर लक्ष्मी शंकर मिश्रा निशंक डॉ विवेकी राय, महाकवि संतोष दीक्षित, जगदीश किंजल्क आकाशवाणी छतरपुर और अन्य विद्वानों ने काली कवि के बारे में बहुत कुछ लिखा है।

 डॉ  बलभद्र तिवारी सचिव बुंदेली पीत सागर विश्वविद्यालय सागर का एक बड़ा लेख 'को हो तुम' इस पुस्तक के आरंभ में पृष्ठ 5 से आरंभ हुआ है ,उन्होंने बहुत ही गंभीर ढंग से इस खंडकाव्य की कथा, इसके छंद, विभिन्न रसों का संयोजन आदि पर विचार किया है। हनुमत पताका में विभिन्न रसों का संयोजन हुआ है ,विशेष कर श्रृंगार और वीर का।

श्रृंगार  के दो पक्ष हैं संयोग और वियोग । कवि को दोनों में दक्षता प्राप्त है दृष्टव्य  सॉन्ग रूपक-

 छोड़ तप कंचुक चकोर कुच  कोरन को,

 करण पसार के उधार तम सारी को।

 काली-काली अमर तरंगिणी इजारी खोल,

 जारी कर हसन गुदूल गुलजारी को।

 उत्प्रेक्षा व ग्रामीण (देशज) शब्द के माध्यम से शेषशायी विष्णु की कल्पना साकार हो उठती है।औऱ जब कभी सँयोग का चित्रण करता है, तो अभिसार का दृश्य कर होता है-

 उसक उसासन सों कसक कराह आह,

 मारक मसोसन सों  कसम सरे लगी।

 लहक लपेट कट चुम्बन चहक चाह महक सुगंधन सो गहत गरे लगी( पृष्ठ आठ)

 वीर रस का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है

रक्षपति रावण सो रक्षक पुकारे जाय

चाहत कहाँ धों अब अगत दई करें।

आज लो न ऐसी भई लंकपुर वासिन पर

 यह कपि जाट नाथ निपटा नई करें। ( पृष्ठ नौ)

 कवि के अनुसार जब मेघनाथ श्री हनुमान जी पर विजय पाने में असमर्थ होता है तब वह दस महाविद्याओं में से बगलामुखी का प्रयोग करता है /

मारो वारिद नाद ने कपिहि कियो परतंत्र  ।

 ब्रह्म अस्त्र बगलामुखी रिपु  भुज तम्भन  मंत्र।

 प्रसिद्ध आचार्य की परंपरा के बीच  काली कवि ने बुंदेलखंड की भक्ति परंपरा उसके विश्वास एवं बाल के प्रति के साथ सुंदर समन्वय किया है। (डॉ बलभद्र तिवारी,पृष्ठ दस) इस तरह हमने देखा कि हनुमत पताका  जहां काव्य के स्तर पर उत्कृष्ट कोटि की रचना है, वहीं यह तंत्र की दृष्टि से, भक्ति की दृष्टि से और तमाम तरह के रस परिपाक की दृष्टि से उत्कृष्ट कोटि की रचना ठहरती है । इसके कुछ छंदों को उदाहरण स्वरूप यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-

 

 

 

 

 

 

सवैया ।

 आनंदके उँमगे अशुवा पुलके सब अंग परें पिघले से ॥

त्यों कविकाली मिटार मनौ मर्याद सनेह समुद्र पिलेसे ॥

मोद भरे हुलसे हियरे युग ओरते लोचन कंजु बिलेसे ॥

कीशै इतै मिली जानकी सी उतै लागे विभीषणे राम मिले से ॥ ५१ ॥

 

दोहा ।

कुशल प्रश्नकर भीषणहि, पूंछी हरि शिरमौर ॥

 रघुकुल की जीवनलता,जनक सुता किहि ठौर ॥ ५२ ॥

 

दोहा ।

 

संपति लोचन लोककी, जाय विलो-कुहु आप ॥ तरु अशोकतर बसतहैं, भरी-शोक संताप ॥ ५३ ॥

 

दोह

 

तिहि अशोकतरु कुंजमहँ, कपि आयो ततकाल ॥

 जहँ रसालकी मौरपर, भीरें भौर उताल ॥ ५४ ॥

 

कवित्व ।

 

गहब गुलाब गल चटक चमेलिनके बेलुन के विदल दुमेलन दला परें ॥ कालि कवि सधन रसालद्रुम कुंजनमें, कोकिला कलापनके हहल हलापरें ॥

प्रसरत मंजू मृदु मारुत मलयमंद, सरस सुगंधनकी सकल कला परें ॥

 मोद मद मंथर मलिंद

मतवारिन के, मधु मकरंदनपै झपक झलापरें ।॥ ५५ ॥

 लरम लफीले लफलोल हेल-वोदन की, लतन लदाऊ लौद लदलतरी फिरे ॥

काली कवि कंज प्रति कोकिला किशोरिनके, कलह कुलाहल ते कलन करी फिरे ॥

सुरभि सुगंधित पिशंगित परागु रज, पवन तरंग वन भवन भरी फिरै ॥ गौरन पे गहब गुलाब गुल झौरन पै, लद-वद भौरन की पदर परी फिरै ॥ ५६ ॥

 दोहा ।

 

फिरत बाग देखत लखी,जनकसुता अतिदीन ॥

परी भूमितल विकलजनु. कमला कमल विहीन ॥ ५७ ॥

 

कवित्व ।

 

भौर भर भंजित अशोक तरु पुंज कुंज, वंजुल की मंजरी सुमंजु कुमला परी ॥

काली कवि तोरतरु मरुत मरोर जोर, घोर घनमंडल ते चूक चपला परी ॥

विनही अराम के अराम में दशानन के, तामरस दाम छाम राम अबलापरी ॥

 दौज द्विजराजकी अकाशते सु आज मानों, राहु भय भाज छूट क्षितिपै कलापरी ॥ ५८ ॥

 

दोहा ।

आनन अरुण प्रवालतन, वरण सुरण सम तूल ॥

परण पुंज कपि छिपरह्यौ, जनु अशोक को फूल ॥ ५९ ॥

 

(२७)

 

दोहा ।

 

सुंदर दरशन योग तव, दशकंधर धर रूप ॥

आयो हर हर करत सिय, थर थर कँपी अनूप ॥ ६० ॥

 

 रावण कवित्व ।

डारकर अतर् सुगंध सुकसाजन के, गंध गजराजन के गौहरन गूने हैं ॥ काली कवि मागन पै देव नर

नागन के, बागनके पुहुप परागन  तें पूने हैं ॥

 नील मन नवल तमालघन मालन तें, व्यालन तें बाल मधु पालिन तें दूने हैं ॥

परम सुदेशकेश कामिनी हमारिन के, चूड़ामणि चरण तिहारे बिन सूनेहैं ॥ ६१ ॥

 

दोहा ।

 

कत कीजत कुचसों हियो , पाय हसन सी रैन ॥

हितकटि सौ नख से वचन अधरन ऐसे नैन ॥ ६२ ॥

आननमें राखो न विधि, अधर खुलनको नेत ॥

बोली यह संदेह जनु, दूर करन के हेत ॥ ६३॥

 

जानकी कवित्व ।

हीन तन अधिक अलीन आसुरीन कौसु; तिमिर मलीन घनकेशन को वेश है ॥

काली कवि चूड़ामणि चरण हमारे योग, रावण तिहारी यह भणति भदेश है ॥

नखसों तिहारे मूढ़ कविन बखानों मोहिं, यह अपराध क्षमिवे को करनेश है ॥

चरण सरोजनको निरख धरा की ओर, रुकत न रोको नित झुकत दिनेशहे ॥ ६४ ॥

 

दोहा ।

 

रघुपति हित आतप विना, हिय नबनीत द्रवे न ॥

रामचन्द्र बिन होय क्यों, हसन चाँदनी रैन ॥ ६५ ॥

 

रावण-दोहा ।

 

वेर कहा राखी सुकर, दृगभ्रमरनकी बेर ॥

देत क्योंन नीरज नयनि, एक वेर हँसहेर ॥ ६६ ॥

 

जानकी-दोहा ।

देखी रावण नृपनकी, मतमतवारी होत ॥

सुनै कहूँ वारिज विमल, विकसत जुगुनू जोत ॥ ६७ ॥

 

रावण कवित्व ।

 मंदकर कुमुद् कदंब सुरवृंदन को मुनि सुख चन्दन को करन कलेश को।

काली कवि असुर अमंद अरविंदन को मुद-मकरंदन को हरप हमेश को॥

उदित उदंडू भुजवरन मयूखन ते भार तम टारन है शिखर महेशको ॥ देखौ देश देशन दिशान दीपदीपन में दमक रहो है तेज रावण दिनेश को ॥ ६८ ॥

 

दोहा ।

 

वरषत मो घनसुजन तें , असिधारा को नीर ॥

 राजहँस सो जाय उड़, तेरो श्वास समीर ॥ ६९ ॥

 मास दिवस वध अवधकर, सरमहि संग लिवाय ॥

दशकंधर मंदिर गयो, सीय गई सिसियाय ॥ ७० ॥

कनक कुंभ योवन युगल, नैननके जलवोर ॥

चन्द्रमुखी बोली दुखित, निरखचन्द की ओर ॥७१॥

 

कवित्व

 

पूरब को भाग है सुहाग गजभामिनी को यामिनीको राग अनुराग कुमुदीनको ॥

सागर को पूत दूत काम नटनागर को तिलक उजागर है गिरिश प्रवीन को॥

कालीकवि काम कामिनी की किंकिणी को नग चिंतामणि चोकस चकोर तरुणीन के। ॥

सार है सुधा को वसुधा को सरदार दार पूनो को शृंगार  है अंगार विरही नको ॥ ७२ ॥

 

दोहा ।

 

तम विरोध कछु सुख मिलो, हर सुत

हँसे अघाय ॥

हमहिं मार द्विजराजकी, धर्मध्वजा फहराय ॥ ७३ ॥

यदपि विरह मसि मलिन मुख, निशिपति तदपि न भूल ॥

 लाख लटे मुकुता तऊँ, घटे न शुकता तूल ॥ ७४॥

गगन सरोवर सुभग महँ, तब लग परे लखाय ॥

विकसे कुमुद कदंब से, तारनके समुदाय ॥ ७५ ॥

 

कवित्व ।

 

मंद मंद दीपत अमंद नभ कानन में मलय फनिंदनके फेन फुनगारे हैं।

 कालीकवि रैननें वियोग पिय वासर के नैननते अश्रुजला विंदु उनगारेहैं ॥ मार कर-नखन विदार शशि केहर ने हार विरहींनके हजारन वगारे हैं ॥ डारे हैं मारतंड किरन किनारे रहे छूट नम तारे हैं कि बरत अँगारे हैं ॥ ७६ ॥

 

 

दोहा ।

डारदई अवसर निरख, मणि मुँदरी हनुमान ॥

लई मगनमन जानकी, गगन अगिनकण जान ॥ ७७ ॥

 

कवित्व

 

आवत उरोज ऐसो बाढ़त वियोग दुख मनकी भई है गति लोचन चमर सी ॥

कालीकवि भौंह सों विलोकि कै विसासी विधि जीवनकी आश अब लागत कमरसी ॥

उरसों अवास केश तमसों तमाम

जग देखे विन रामश्याम मूरति समर-सी ॥

 वैसही थकी ती पार पावती न तापै भई विरह समुद्र वीच सुंदरी भवँर सी ।७८।।

 

दोहा ।

 

परम पियारी राम की, मणि सुंदरी किहि तौर ॥

 हर आई यह लंक में, जनकसुता सी और ॥ ७९ ॥ ॥

 

हनुमान-कवित्व ।

 

कंज कर कोमल कीं मुंदरी न मातु यह भानुकुल भूषण को भूषण भुजान भो ॥

काली कवि विरह तिहारे अब रावरे को मलय समीर तीरहू तें खरसान भो ॥

को  हो तुम? हौं तो दूत पीतम तिहारे को देख लघुरूप तव संशय निदान भो।।  

 लंकपुर कंदर समुंदर मथनकाज बंदर बलंद मेरु मंदर समान भो ॥ ८० ॥