तुमसे मिलना अच्छा लगता है
(कविता)
"समय पल भर को अब भी रुकता है,
तुमसे मिलना अच्छा लगता है,
सच है कि अब तक वर्षों बीते,
चलते फिरते हारे जीते,
दूर बहुत हो यह सच है,
फिर भी मन हर पल कहता है,
तुमसे मिलना अच्छा लगता है,
तब ताने बाने जीवन के सपने,
सब बातें सिर्फ पढ़ाई थी,
आती जाती कई परीक्षा,
वह भी जटिल लड़ाई थी,
मान मर्यादा का पालन,
लक्ष्य बना कर जीना था,
चाह यही थी कुछ बन जाऊँ,
कुछ बन कर ही तुमको पाना था,
जब तुम मिली कई वर्षो बाद,
पहले से हो मोटी और बहुत कुछ बदला है
तुम दो बच्चों की अम्मा हो ,
और " ईशू " एक निकम्मा हैं ,
समय पल भर को अब भी रुकता है,
तुमसे मिलना अच्छा लगता है,...... ......
✍🏻 संदीप सिंह (ईशू)
(।।)
🙏आभार 🙏
❤️ आभार - प्रवीण भार्गव जी, पेरी सूर्यनारायण मूर्ति "दिवाकर" जी ❤️
अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब प्रतिलिपि पर मैंने लिखना आरंभ किया।
एक नया स्थान और मन मे ढेरों उमंग लिए मैंने भी लिखने का साहस किया।
ऐसा नहीं कि मैं लिखता नहीं था, लेखन का भूत तो बचपन मे ही सिर पर चौकड़ी लगा चुका था।
किन्तु बिखरे पन्नों वाला लेखक था। मेरे लेखन को पहला ठहराव विद्यालय की पत्रिका "ज्ञानदा" मे मिला ।
सौभाग्यशाली समझाता हूँ स्वयं को कि इसका छात्र सम्पादक बनने का गौरव प्राप्त हुआ। कई लेख लिखे जिनमे से कुछ अन्य के नाम से प्रकाशित हुए। ज्ञानदा ने अपने प्रकाशन के कई वर्ष देखे, लिखना वहीं बच्चों की कहानियां चुटकुले, नकल की भरमार वालेे सामाग्री के साथ एक निश्चित ढ़र्रे मे ही था।
पहली बार सामाजिक मुद्दों की रचना के साथ प्रकाशन मेरी रचनाओं से हुआ, यह भी मेरे लिए गौरवांवित करने वाला पल था। रिपोर्ताज शैली मे 26 जनवरी के कार्यक्रमों पर एक शब्दों के माध्यम से पंक्तिबद्ध की गई रचना, से काफी सुदृढ़ता और सबलता मिली।
" नारी " शीर्षक से तीन वर्ष तक 3 भाग प्रकाशित हुए। पत्रिका प्रकाशन के पश्चात पुस्तक की प्रति कॉलेज के ट्रस्टी स्व. नूरउल्लाह जी के लिए अमेरीका भेजी गई थी।
एक बार एक रचना सरस सलिल मे भेजने का प्रयास किया किंतु बाल सुलभ अज्ञानता वश to की जगह अपना पता लिख दिया था, परिणाम यह कि रचना मुझे ही वापस मिली फिर दुबारा कभी कोई प्रयास नहीं किया।
प्रतिलिपि से पूर्व मेरी रचनायें कहीं भी प्रकाशित नहीं हुई।
समय का पहिया निर्बाध चलता रहा।
फिर प्रतिलिपि पर आया अब आपके सम्मुख हूँ।
मुझ जैसे लेखक को यहाँ स्थान बनाना आसान नहीं है किन्तु आभारी रहूँगा प्रवीण भार्गव जी का, जिन्होंने काफी प्रेरित किया और आत्मविश्वास को सबलता प्रदान की।
प्रतिलिपि पर पहले मित्र हुए आप और अब भाई जैसे हो आप। आपकी लौह लेखनी और धार्मिक ज्ञान ने सचमुच बहुत ही प्रभावित करती है।
आपके माध्यम से अभी दो दिन पूर्व ही पेरी सूर्यनारायण मूर्ति "दिवाकर" जी से प्रतिलिपि के मंच पर परिचित हुआ।
"दिवाकर" सर, अभी मैंने आपकी डायरी ही पढ़ी और सुंदरकांड - रामकाव्य का एक सुंदर कांड को पढ़ना आरंभ किया है।
आज ही आपके दैनिक दैनंदिन मे आपने मेरा और मेरी रचना प्रयाग यात्रा के बारे उल्लेखित किया। आपका बहुत बहुत आभार।
सचमुच सर आपकी समीक्षाओं से नव ऊर्जा का संचार महसूस किया मैंने।
यह भी प्रतिलिपि पर लिखी रचनाओं का ही अंश है, अतः इसमे कोई संशोधन नहीं किया है मैंने। शीघ्र ही अगले लेख के साथ आपसे मिलना होगा।
आपके स्नेह का आकांक्षी
संदीप सिंह (ईशू)