हनुमत पचासा - परिचय व समीक्षा 5 अंतिम
'हनुमत पचासा' मान कवि कृत 50 कवित्त का संग्रह है। जो लगभग 256 वर्ष ( 256 वर्ष इसलिए क्योकि यह संस्करण अप्रैल 71 में छपा था तब उन्होंने उसे 200 वर्ष पूर्व कहा था तो 71 से अभी तक 56 साल हो गए हैं तो 256 वर्ष) पूर्व यह रचा गया था जिसका संपादन और जिसकी भाषा टीका कविंद्र हरनाथ ने 1971 में की थी। इस भाषा टीका समेत हनुमत पचासा का प्रकाशन राजस्थान विद्यापीठ साहित्य संस्थान उदयपुर राजस्थान में किया था। इस पुस्तक के बारे में लिखते हुए कवींद्र हरनाथ कहते हैं कि चरखारी राज्य में काकनी गांव है इस छोटे से गांव काकनी में हनुमान जी का पहाड़ी पर मंदिर है।
यह हनुमत पचासा की हस्तलिखित पांडुलिपि कविंद्र हरनाथ को जालौन निवासी पंडित गोविंद राम जी के यहां से प्राप्त हुई। इन 50 छंदों में मांन कवि ने अपने इष्ट देव हनुमान जी के नख शिख, स्वभाव ,गुना आदि को लेकर 50 कवित रचे।( पृष्ठ एक, संपादक के दो शब्द) आगे कवींद्र हरनाथ लिखते हैं ' कवि मान के समकालीन मैथिली पंडित ओझा भी सतकवि थे ।वह मांन कवि को अपने से श्रेष्ठ नहीं मानते थे।कवित्व तथा काव्य की श्रेष्ठता आंकने के लिए दोनों में तनाजा पैदा हुआ। तय हुआ कि किसी भी मनुष्य से इसका निश्चय न करवा कर देवता से ही निश्चय करवाया जाए। तदनुसार काकनी के हनुमान जी की प्रस्तर मूर्ति को निर्णायक माना गया । काकनी के हनुमान मंदिर में जनता का इजलास भरा। प्रथम दिन पंडित ओझा ने अपना काव्य सुनायाम दूसरे दिन मांन कवि ने अपना काव्य कहा। मांन कवि ने जो ही अपना 50 वा कवित सुनाया त्यों ही हनुमान जी की प्रस्तर मूर्ति में श्री विग्रह हुआ और उनकी पत्थर की गरदन कवि मान की ओर होकर टेढ़ी हो गई। मूर्ति आज भीज्यों की त्यों टेढ़ी है (प्रश्न 2व 3 संपादक के दो शब्द ) मांन कवि द्वारा लिखे गए इन 50 छंदों कविताओं की व्याख्या भाषा टीका कविंद्र हरनाथ जी ने की है ।कविंद्र हरनाथ भिंड के पास एक गांव के रहने वाले थे। किंवदंती है कि वह अपनी विद्या और बुद्धि के बल पर ऐसे कठिन शास्त्र की व्याख्या कर सके। राजस्थान विद्यापीठ में जो वहां के प्राध्यापक गण थे, कुलपति थे, अध्यक्ष थे, उनको हनुमत पचासा के यह चांद उन्होंने सुनाएं, जैसा उन्होंने उल्लेख अपनी भूमिका में भी किया है । राजस्थान विद्यापीठ ने यह पुस्तक छपी है। इस पुस्तक में हनुमान जी का नखशिख वर्णन है। सबसे पहले छन्द में मंगलाचरण में उन्होंने लिखा है- दरस महेश को गणेश को अलभ शशि सुलभ सुरेश को न देश है धनेश को।
पूज हरि पालन बने प्रजापाल दिक् पाल लोकपाल पाव महल प्रवेश को।
इसके बाद उन्होंने हनुमान जी की उस मूर्ति का वर्णन किया है जो काकनी में विराजमान है । फिर तीसरे छंद में उन्होंने हनुमान जी के शरीर का वर्णन किया है और फिर उन्होंने नख सेशिखा की प्रशंसा करते हुए एक-एक अंग की शिखा आंख हॉट थोड़ी का विस्तृत वर्णन करते हुए कुल 50 चांद लिखे हैं । इन छंदों को सुंदरकांड की भांति अनेक साधक अपनी दैनिक पूजा में पाठ करते थे ।स्वयं समीक्षक ने भी इनका पाठ किया। और कहा तो यह जाता है कि अनेक लोग तांत्रिक पाठ भी इनका करते थे। मान्यता मानकर अथवा शत्रु के नाश के लिए हनुमत पचास का पाठ करते थे। ऐसे अद्भुत हनुमत पचासा को मैं इस परिचय टिप्पणी के साथ उद्धरण रूप में जनसाधारण को सुलभ कराने हेतु प्रस्तुत कर रहा हूं। मेरी यह समीक्षा, समीक्षा ना होकर इस ग्रंथ का परिचय है। पाठकों के समक्ष समीक्षा रूप में और साक्ष्य उध्दरण रूप में छंद व टीका प्रस्तुत कर रहा हूं।
४१]
राखे निज कुक्ष व्योप ब्रह्म लों अतुक्ष कपि रिक्ष दल सुक्ष जो विपुक्ष कुलवंत को।
सुखद सुमक्ष हेत उक्ष तरु मुक्ष केश, संकट मुमुक्ष नाम दुक्षर जपंत को ॥।
कहे कवि 'मान' महा गरब को गुक्ष पेख, पंच सत दक्ष पूजो मुक्ष बलवंत को।
यक्षपति अक्ष लौं रिपुक्षय समक्ष घय सान मुख मुक्ष बंदौं पुक्ष हनुमंत को ॥
हनुमानजी इच्छानुसार पूंछ को इतना लघु आकार दे देते हैं, जिससे वह गोद में ही समाहित हो जाती है। यदि उसका विस्तार करते हैं तो ब्रह्माण्ड से किसी अंश में कम नहीं होती, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो जाती है। कुलीन ही प्रायः अपने कुल का पक्ष लेते हैं, इसीलिये भालुओं और वानरों को विपक्षियों से सुरक्षित रखने वाले हैं। क्षुधित अवस्था में जिस पूँछ ने वृक्षों को उजाड़ डाला, ऊँचाई पर लगे फलों को तोड़ लिया, जो भक्षण योग्य व सुस्वादु थे। संकटापन्न अवस्था से मुक्त करते हैं। राम, नाम दो अक्षरों का, जिनका कभी क्षय नहीं होता, निरंतर जाप करने में निमग्न रहते हैं। मान कवि कहते हैं कि आप महा-महिमा से युक्त हैं, इसका अनुभव पंच देवताओं ने भी किया । उनकी प्रवीणता को प्रमाणों से सिद्ध कर, उसका निर्धारण कर पूज्य भाव से माननीय स्वीकार किया है। बलवानों में भी जिसका स्थान सर्वोपरि है। शिवजी की भाँति, अपने दल के लिये शत्रुओं का क्षय करते हैं। रण के नायक (नेता) होकर, युद्ध रत हनुमानजी की पूँछ का अभिवादन करता हूं।
[ ४२]
खल दल खंडन विजय को धुज दंड के, कराल काल दंड कालनेम के निपात को ।
लंका दाह देन धूमकेतु को निकेट है के, निशाचर विनाश हेत केतु उत्पात को ।।
कहे कवि 'मान' रन मंडल को खेम कियौं, बंधन को रज्जु दश-कंधर के गात को।
संभु जटा जूट को अपार हेमकूट के, त्रिकूट कूट गंजन लॅगूट बात जात को ।।
हनुमानजी की पूँछ दुष्ट समाज की घातक है एवं लहराते हुये रूप में अपनी विजय पताका फहरा रही है। वह विकराल काल को भी नष्ट करने वाली है तथा कालनेमि की संहारक है। लंका दहन करने वाली धूमकेतु का आवास स्थल है। अर्थात् सर्वनाश का मूल है। राक्षसों को नष्ट करने के लिये राहु के पीछे केतु समान लगी हुई है। मान कवि कहते हैं कि ऐसा विदित होता है कि मानों रण की रक्षार्थ खंभा स्थित हो। (युद्ध के दिनों में राम की सेना रात्रि में पूँछ के परकोटे में रहती थी और उनके फाटक रूप मुख के समीप होकर आती जाती थी) अथवा रावण को बाँधने का फंदा है। महादेव अपना जटा-जूट खोले पद्मासन में आसीन हैं। सुमेरु पर्वत अपने को कृत-कृत्य करने हेतु उनका स्वागत कर रहा है। हनुमानजी की पूंछ में वह शक्ति है जिसने त्रिकूट पर्वत पर स्थित स्वर्ण लंका को विनष्ट कर दिया ।
[ ४३ ]
खलन को खूद वज्र वेग मजबूत जबे, सिन्धु कूद सुखद सिया के मन रंजनी ।
जीत इन्द्रजीत की छिड़ाय के चढ़ाई विजे, विक्रम बड़ाई जे लड़ाई लड़ अंजनी ।।
कहे कवि 'मान' बड़े बल के विलास धूम, नाश के विनाश दशकंठ भान भंजनी ।
धक्का को गरुर करे धाराधर धूर धन्य, पौन पुत्र अरु जोह हू हू हू गर्व गंजनी ।।
जिसने (जंघाओं ने) वज्र प्रहार से दुष्टों को कुचल दिया, जिनका वेग अमोघ है। जिन जंघाओं द्वारा समुद्र को एक छलाँग में लाँग कर सीताजी के मन मुकुल को प्रफुल्लित किया। मेघनाद को विजित कर युद्ध में धावा बोल दिया अर्थात् अपनी वीरता से चुनौती दी। बल-पौरुष से युक्त अंजनी पुत्र की जय ध्वनि गुंजार करने लगी । मान कवि कहते हैं कि जो महान् पराक्रमशील हैं, ध्वंसकारी, दशकंध (रावण) के मनोरथ को भग्न करने वाले हैं, यही नहीं अपितु पवन पुत्र (हनुमान) की जाँघ के स्पर्श से विशाल पर्वत भी चूर २ होकर धू ल धूसरित हो जाते हैं, उनकी जाँघ गन्धर्वों के गर्व को भी तिरोहित करने वाली है ।
[४४]
कीन्हो घूमनाश को विनाश जिन रौंद ख़ौन्द, खलन के खंडित जे मंडित समर के।
ठोकर के लगे जासु मसकें अचल कंप, कसकै कमठ शेष बल के उभर को ।।
भनै कवि 'मान' महाविक्रम निधान मल्ल, विद्या के निधान प्राण प्यारे रघुवर के।
पालत प्रजान भंज अरि को भुजान तौन, बन्दों युग जानु जानकी के शोक हर के ॥
घूमनाश (घूमकेतु) को पदाक्रान्त कर जिन जानुओं ने नष्ट किया । दुष्टों को पराजित कर समरारूड़ हुए, जिनकी ठोकर लगने से पर्वत कम्पित होकर दब जाते हैं। उनके बल से कमठ भी कसक जाती है तथा शेषनाग भी बल खा जाता है। मान कवि कहते हैं कि जो बड़े ही पुरुषार्थी, मल्ल-विद्या में प्रवीण तथा श्री राम के प्राणाधिक प्रिय हैं। प्रजापालक, रिपु-संहारक हैं। हनुमानजी की दोनों जानु की जाँघ) और पिंडली के मध्य का भाग, जो सीताजी के दुःख हरण कर्ता हैं, नत मस्तक हो प्रणाम करता हूं।
[ ४५]
मसक लौं जिन सों मसोसो खग भूमि खंड, खलन के खोम जोम जीते रन रंक की।
काल दंड हूंतें जे कराल तत्काल जिन, कीन्हो अक्ष काल कालनेम हूं के भंग की ।।
कहे कवि 'मान' लंक जिनसे प्रदान मीड, मारे जातुधान बड़े विक्रम अभंग की।
हरे जिन युद्ध सिंधु सातहू उलंघे मार वंदों बार-बार धन्य जंघे बजरंग की ॥
जिन जंघाओं ने आकाश और पृथ्वी को मच्छर के समान मसल डाला। दुष्ट कुल के आवेश का मद विनष्ट कर दिया। रण में विजय प्राप्त की। विकरालता में काल दंड से भी भयंकर हैं, जिन्होंने शीघ्र ही अक्षयकुमार (रावण पुत्र) का प्राणान्त कर दिया, अकाल में ही काल कवलित किया (यह कार्य उनके शौर्य को प्रदर्शित करता है) यमराज के नियम की भी जिसने उपेक्षा की। कालनेमि राक्षस का जिसने नाश किया । मान कवि कहते हैं कि इन्हीं जंघाओं की शक्ति से विभीषण लंका के अधिकारी हुये । विशाल राक्षसों का जिसने नाश किया। युद्ध में जिसने कभी भी पराजय नहीं प्राप्त की। जिन जंघाओं से वे दुर्गम सातों समुद्रों को लांघ गये, जो स्वनाम धन्य है, उनकी बलशाली जंघाओं का मैं स्तवन करता है।
[ ४६]
एक बार एक पार पूर रहे, पारवार है न पारावार बल विक्रम अकूत को ।
जिनके धरत डग धरनी डिगत धूज, धाराधार ढक्कन सों धूर होत धूत को ।।
कहे कवि 'मान' करे संतन सहाय जे, ढहाइ खल गर्व गंज गहर गहूत को ।
चाप चूर जिनसे निसाचर उदंड ते वे, प्रबल प्रचंड पद बंदौ पौन पूत को ॥
एक प्रयास में ही जिन पैरों से शत योजन में विस्तीर्ण समुद्र को सुगमता से लाँघ कर दूसरे किनारे पर चले गये। उनके निरुपम एवं अपरिमित बल की पराकाष्ठा नहीं है। चरण स्पर्श मात्र से पृथ्वी डांवाडोल होने लगती है। पर्वत कम्पित होकर धूल धूसरित हो जाते है। मान कवि कहते हैं कि वे संतों के संरक्षक, दुष्टों के मिथ्या गर्व को पूर्णरूपेण नष्ट करने वाले हैं, जिससे वे पुनः प्रबल न हो सकें। जिनके प्रबल व प्रचण्ड पैरों की चाप (ध्वनि) से राक्षसों की उदंडता खंडित हो जाती हैं, अर्थात् राक्षसों को भयभीत कर उनके बल को उत्थित नहीं होने देती । ऐसी प्रचण्डता एवं प्राबल्य के प्रताप से परिपूर्ण पवन पुत्र (हनुमान) के पदारविन्द की मैं वंदना करता हूँ।
४७]
गोपद चरन तोय निधि के तरन अक्ष दल के दरन जे करन खल अंत के।
अपदा हरन दया दीन पे धरन काल-नेमि संघरन और आभरन संत के ।।
ओढर ढरन मान कवि के भरन चारों-फल के फरन जे दरन अरिदंत के ।।
असरन सरन अमंगल हरन बंदों, रिद्ध सिद्धि करन चरन हनुमत के ॥
जिनके पदारविन्द का ध्यान करने से मनुष्य गौ-खुर के समान हो जाता है, [अर्थात् उन्होंने जल से भरे गौखुर के समान समुद्र को लांघ कर पार कर लिया। जिन चरणों का स्मरण सुगमता से मुक्ति प्रदाता है। जो अक्षय कुमार के दल (राक्षसों) को विदीर्ण करने वाले तथा शत्रु का क्षय करने वाले हैं। विपदाग्रस्त अवस्था का मूल से छेदन करने वाले, दीनों के प्रति कृपालु, कालनेमि के घातक एवं संतों के आभूषण हैं, अर्थात् उनकी श्री वृद्धि करने वाले हैं। अपार रूप से मनमाने ढंग से अनुग्रह कर्ता, मान कवि के पोषक, धर्म ,अर्थ, काम, मोक्ष चारों ऐहिक फलों के प्रदाता तथा शत्रु संहारक है। आश्रयहीन के आश्रयदाता, अनिष्ट की आशंका को नष्ट करने वाले, रिद्धि सिद्धि के दाता की गरिमा से महिमान्वित हनुमानजी के चरण वन्दनीय हैं।
४८]
ऊरध बदन के बधन विरदैत कीश संघर सघन गज रदन के अंत के।
कालनेमि तन के विदीरन करन अव, दीरन करन धूम लोचन दुरंत के ॥
कहे कवि 'मान' हलाहल के समान मघ-वान के गुमान गज भंजन दुखंत के ।
सूल ते सखर अक्ष वक्ष ले बखर बंदौ वज्र हू ते प्रखर नखर हनुमंत के ।।
निशाचरों के संहारक, समर में प्रशंसित, हाथियों के दांतों को भी तोड़ने वाले हैं, कालनेमि के शरीर को चीरने वाले एवं दुर्दान्त घूमलोचन को भी विनष्ट करने वाले हैं। मान कवि कहते हैं, कि बलराम के हल सदृश हैं (नखों को हल की उपमा दी है)। द्वन्द्व का गर्व तिरोहित करने वाले तथा स्नेही भक्त जन के दुःख दूर करने वाले हैं। हनुमानजी के नख, शूल से भी अधिक तीक्षण, अक्षय कुमार के वक्ष स्थल को क्षत-विक्षत करने वाले तथा वज्र से अधिक प्रखर (तीव्र) हैं।
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४९]
राम रज भाल की जै, रवि गिलगान की जै. अजनी के लाल की, कराल हाँक वारे की।
वीर बलबंड की उदण्ड सुजदंड की जै, महामुख मंड की प्रचण्ड नाक वारे की ।।
कहे कवि 'मान' हनुमान बजरंग की जै, अस्त्रन अभंग की चकेत चाक वारे की ॥
जै जै सिधु नाकरे की, ढाल पंगु ठाकुरे की, काकिनी के बाँकुरे की बाँकी टांगवारे की ॥
मान कवि कहते हैं कि श्री राम के चरणाविन्द की रज को भाल पर धारण करने वाले, शैशव काल में प्रातःकालीन सूर्य को मधुर फल जान कर मुंह में रखने वाले एवं विकराल गर्जन करने वाले अंजनी पुत्र (हनुमान) की जय हो। मान कवि कहते हैं कि जिनका अंग वज्रवत बलिष्ठ है, जिस पर किसी अस्त्र-शस्त्र का वार असफल ही सिद्ध होता है एवं चक्रधारी (विष्णु) भी जिसकी अनुपम शक्ति से चकित हैं। पंगु (हनुमान) के ठाकुर (स्वामी) श्रीराम के लिये जो ढाल के समान हैं। बाँकी टाँगेवाले बाँके हनुमानजी काकिनी पर्वत पर विराजमान हैं।
[५० ]
ज्वाल सों जले न जलजोर सो जले ना अस्त्र-अरि को घले ना जो चले ना जिमी जंग की।
काल दंड ओट सत कोट की न लागे चोट, सात कोटि महामन्त्र मंत्रित अभंग की ।।
कहे कवि 'मान' मघवान मिलगीरवान.दीनों वरदान मान पान के प्रसंग की ।
जीत मोह माया मार कीन्हों छार छाया राम, जाया कर दाया धन्य काया बजरंग की ।।
[एक समय का वृत्तान्त हैं- जब हनुमानजी शिशु थे और माता अंजनी इन्हें खेलता हुआ छोड़कर फल लेने गई थीं। इस अवसर पर उन्होंने उदयकालीन सूर्य को उत्तम फल जानकर मुख में रख लिया। यह देखकर इन्द्र ने अपने वज्र से उनकी ठोड़ी तोड़ डाली। इस धृष्टता से हनुमानजी के पिता पवन कुद्ध हुये, उन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों का श्वासोच्छवास अवरूद्ध कर दिया। तब सब देवताओं ने उस अवसर पर हनुमानजी को पृथक-पृथक वरदान दिये-
अग्निदेव ने कहा 'मैं इसको कभी नहीं जला सकूंगा ।" वरुण ने कहा "इसको जल से कोई पीड़ा नहीं होगी और न कोई वरुण पाश से इसे बाँध सकेगा।" विश्वकर्मा ने कहा- 'मेरे बनाये हुये किसी भी शस्त्रास्त्र का इस पर कोई प्रभाव नहीं होगा। ऐसी परिस्थिति में न तो शत्रु ही बाल बांका कर सकता है और न रणांगन में क्षति पहुँचा सकता है। यम ने कहा- "यह मेरे दण्ड से अबध्य रहेगा। इसके स्वास्थ्य में कभी विकृति नहीं आयेगी और न यह युद्ध में कभी पराजित होगा। इसके अतिरिक्त राम महामंत्र से अभिमंत्रित होने के कारण इसे कोई अभंग नहीं कर सकता।" इन्द्र ने कहा- "यह मेरे वज्र से घायल नहीं होगा ।" शिव ने कहा "मेरे तीसरे नेत्र से संसार भस्म हो जाता है पर हनुमानजी का उससे कोई अनिष्ट नहीं होगा और मैं इसे मार ही सकूंगा।"]
कवि कहता है कि जिन्होंने मोह माया पर प्रभुत्व जमा लिया है तथा जिनकी शक्ति को निर्जीव कर दिया है। जो श्रीराम के करुणपूर्ण कर-कमलों से पोषित हैं, उस दिव्य अंग का वर्णन किस प्रकार से हो सकता है ? नितान्त असम्भव है। वे धन्य सेवक हैं, जिन पर स्वामी अनुकूल हों।प
[ ५२]
अरुण ज्यों भौम सोय दृग लौं असोम सोम, कोयल ज्यों छेम करे कर सिय कंत के।
महा प्रलै ओम मुनि लोमस के लोमन लौं, बेरिन विलोम अनलोम सुर संत के ॥
वज्र मुद मोम छबि मान संत सोम जे, अ-सोम ग्रह सोम कर अरिन के अंत के ।
खलन के खोम जोम होत है अजोम जोम, ज्वॉलिन के तोम वन्दौ रोम हनुमंत के ।।
जो मंगल ग्रह के सदृश लालिमा से अनुरंजित हैं, चंद्र के अनु रूप अशान्त को शान्तिदायक व कोमल हैं तथा श्री राम के कर कमलों के समान संताप नाशक, मंगलकारी हैं। जो लोमश मुनि के समान महा प्रलय स्थिति में भी विनष्ट नहीं होते । शत्रुओं के प्रतिकूल व देवताओं तथा संतों के अनुकूल हैं। जिनके समक्ष वज्लज्र और मुगद्रर भी मोम तुल्य प्रतीत होते हैं। जिनकी शोभा शत चन्द्र सी अनुपम है। अशुभ ग्रहों को शुभ में परिवर्तित करने वाले तथा शत्रुओं के विध्वंसकारी है। अपने आवेग से दुष्ट समाज के उत्साह को तिरोहित करने वाले हैं। पावक-समूह हैं । हनुमानजी की ऐसी रोम राशि के समक्ष मैं अपने मस्तक को झुकाता हूँ।
५३ ]
ओज वल वलित ललित लहरत लख, जल ठहरत हिय सेना अरि भीर की ।
कलप कृशानु के प्रमान ज्वालमान कौटि, भानु के प्रमान के समान रनधीर की ।।
कहे कवि 'मान' मालवान मद भंजनी है अंजनि सुखद मन रंजनी समीर की ।
जापे राम राजी कोटि वज्र सों तराजी यह, बंदौ तेज ताजी रोम राजी महावीर की ।।
ओज तथा बल से समन्वित रोमावली का लहराना देखकर विरोधी दल आपत्ति की आशंका से दहल उठता है। तेज की ज्वाला से प्रज्ज्वलित है। प्रताप में कोटिशः सूर्य के समान तथा योद्धाओं सा अदम्य धैर्य, उत्साह है। मान कवि कहते हैं कि जो माल्यवान के मद को विनष्ट करने वाली अंजनी माता को सुखकर तथा पिता वायु की मनो-विनोद की सामग्री है। श्रीराम की प्रसन्नता के भाजन तथा प्रौढ़ता में सहस्त्रों वज्र से बढ़कर है। जिनके रोम-राशि में तेज परिपूर्ण है नवीन रहता है, कभी कम नहीं होता, ऐसी रोमावली किसी सामान्य जन की न ही कर वीरों के अग्रगण्य हनुमानजी की है।
[ ५४ ]
बांचे डेढ़ मासा सोक संकट बिनासा तपे, तप को तमासा बासा मंगल अनंत को ।
विभव विकासा मन बांछित प्रकासा दसों, दिस सुख संपति बिलासा सुर संत को ॥
महावीर सासा पूज वीरा ओ बतासा करे, विपत को ग्रासा तन त्रासा अरि अत को ।
सिख नख खासा रिद्ध सिद्ध को निवासा यह, दासा आस पूरक पचासा हनुमंत को ।।
जो जन नियमपूर्वक डेढ़ मास पर्यन्त इसका (पचासा का) पाठ करे उसे अनेक प्रकार के अभीष्ट फलों की प्राप्ति हो । शोक व संकट का विनाश कर (मनुष्य स्वभावतः सुख का अभिलाषी है) इस तपस्या में विघ्न-बाधाओं के होते हुये भी साधक साधना में संलग्न रहे, यही तप है। तदुपरान्त इसका चमत्कार दृष्टव्य है । मंगल अनन्तता के वशीभूत होकर रहता है, तपस्या की ऐसी ही महत्ता है । ऐश्वर्यवान हो, धनोपार्जन की पूर्ति भी हो जाय। 'मान' (कवि) के सफल मनोरण पूर्ण हो। दशों दिशाओं में सुख व्यापक रूप धारण कर प्रस्तुत रहे। देवता का विलास अनुकूल ही है, संतों को सम्पत्ति प्रदाता है। महावीर की अर्चना, बीड़ा और बताशा से अनेक दुर्लभ फल प्राप्त होते हैं, विपत्ति तथा शत्रुओं का नाश होता है।
जिससे सुख-समृद्धि फलती-फूलती है। कवि कहता है कि रिद्धि सिद्धि का मुख्य स्थल शिख-नख ही है (अर्थात् हमारा शरीर ही समृद्धि और सफलता के निवास का मुख्य स्थान है) मेरी मनोकामना की पूर्ति इसी पचासा द्वारा ही सम्भव है।
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