Hanumat Pachasa - Parichay v Samiksha - 3 in Hindi Book Reviews by Ram Bharose Mishra books and stories PDF | हनुमत पचासा - परिचय व समीक्षा - 3

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हनुमत पचासा - परिचय व समीक्षा - 3

हनुमत पचासा - परिचय व समीक्षा 3  

'हनुमत पचासा' मान कवि  कृत 50 कवित्त का संग्रह है। जो लगभग 256 वर्ष ( 256 वर्ष इसलिए क्योकि  यह संस्करण अप्रैल 71 में छपा था तब उन्होंने उसे 200 वर्ष पूर्व कहा था तो 71 से अभी तक 56 साल हो गए हैं तो 256 वर्ष) पूर्व यह रचा गया था जिसका संपादन और जिसकी भाषा टीका कविंद्र हरनाथ ने 1971 में की थी। इस भाषा टीका समेत हनुमत पचासा का प्रकाशन राजस्थान विद्यापीठ साहित्य संस्थान उदयपुर राजस्थान में किया था। इस पुस्तक के बारे में लिखते हुए कवींद्र हरनाथ कहते हैं कि चरखारी राज्य में काकनी गांव है इस छोटे से गांव काकनी में हनुमान जी का पहाड़ी पर मंदिर है।

 यह हनुमत पचासा की हस्तलिखित पांडुलिपि कविंद्र हरनाथ को जालौन निवासी पंडित गोविंद राम जी के यहां से प्राप्त हुई। इन 50 छंदों में मांन कवि ने अपने इष्ट देव हनुमान जी के नख शिख, स्वभाव ,गुना आदि को लेकर 50 कवित रचे।( पृष्ठ एक, संपादक के दो शब्द) आगे कवींद्र हरनाथ लिखते हैं  ' कवि मान  के समकालीन मैथिली पंडित ओझा भी सतकवि थे ।वह मांन कवि को अपने से श्रेष्ठ नहीं मानते थे।कवित्व  तथा काव्य की श्रेष्ठता आंकने  के लिए दोनों में तनाजा पैदा हुआ। तय हुआ कि किसी भी मनुष्य से इसका निश्चय न करवा कर देवता से ही निश्चय करवाया जाए। तदनुसार काकनी के हनुमान जी की प्रस्तर मूर्ति को निर्णायक माना गया ।  काकनी के हनुमान मंदिर में जनता का इजलास भरा।  प्रथम दिन पंडित ओझा ने अपना काव्य सुनायाम दूसरे दिन मांन कवि ने अपना काव्य कहा। मांन कवि ने जो ही अपना 50 वा कवित सुनाया त्यों ही हनुमान जी की प्रस्तर मूर्ति में श्री विग्रह हुआ और उनकी पत्थर की गरदन कवि मान की ओर होकर टेढ़ी हो गई। मूर्ति आज भीज्यों की त्यों टेढ़ी है (प्रश्न 2व 3 संपादक के दो शब्द ) मांन कवि  द्वारा लिखे गए इन 50 छंदों  कविताओं की व्याख्या भाषा टीका कविंद्र हरनाथ जी ने की है ।कविंद्र हरनाथ भिंड के पास एक गांव के रहने वाले थे। किंवदंती  है कि वह अपनी विद्या और बुद्धि के बल पर ऐसे कठिन शास्त्र की व्याख्या कर सके।  राजस्थान विद्यापीठ में जो वहां के प्राध्यापक गण थे, कुलपति थे, अध्यक्ष थे, उनको हनुमत पचासा के यह चांद उन्होंने सुनाएं, जैसा उन्होंने उल्लेख अपनी भूमिका में भी किया है ।  राजस्थान विद्यापीठ ने यह पुस्तक छपी है। इस पुस्तक में हनुमान जी का नखशिख वर्णन है। सबसे पहले छन्द में मंगलाचरण में उन्होंने लिखा है- दरस महेश को गणेश को अलभ शशि सुलभ सुरेश को न देश है धनेश को।

पूज हरि  पालन बने प्रजापाल दिक्  पाल लोकपाल पाव महल प्रवेश को।

 इसके बाद उन्होंने हनुमान जी की उस मूर्ति का वर्णन किया है जो काकनी में विराजमान है । फिर तीसरे छंद  में उन्होंने हनुमान जी के शरीर का वर्णन किया है और फिर  उन्होंने नख सेशिखा की प्रशंसा करते हुए एक-एक अंग की शिखा आंख हॉट थोड़ी का विस्तृत वर्णन करते हुए कुल 50 चांद लिखे हैं । इन छंदों को सुंदरकांड की भांति अनेक साधक अपनी दैनिक पूजा में पाठ करते थे ।स्वयं समीक्षक ने भी इनका पाठ किया। और कहा तो यह जाता है कि अनेक लोग तांत्रिक पाठ भी इनका करते थे। मान्यता मानकर अथवा शत्रु के नाश के लिए हनुमत पचास का पाठ करते थे। ऐसे अद्भुत हनुमत पचासा को मैं इस परिचय टिप्पणी के साथ उद्धरण रूप में जनसाधारण को सुलभ कराने हेतु प्रस्तुत कर रहा हूं।  मेरी यह समीक्षा, समीक्षा ना होकर इस ग्रंथ का परिचय है। पाठकों के समक्ष समीक्षा रूप में और साक्ष्य उध्दरण रूप में छंद  व टीका प्रस्तुत कर रहा हूं।

 

 

[२१]

 

एक नभ ओर एक भूतल के छोर बार, ब्रह्म जोर कौर फल ग्रासन समंता के।

 

अरि दल भिन्न होत देख दल चिन्ह दश कंठ-मन खिन्न दुख छिन्न सिय कंता के ।।

 

भनै कवि 'मान' मघवान रन चाक दिन, दाब दूर दरपि दिवाकर से जंता के।

 

वीर रस रौद्र के बनाय विधि गोंठ खल, ठोंठ कर नोंठ ओंठ बन्दों अक्ष हंता के ।।

 

कवि हनुमानजी के अधरों का वर्णन करता हुआ कहता है कि अधर का ऊपरी भाग नभ की ओर प्रवृत्त है, नीचे का अधर पृथ्वी की ओर झुका है (सम्बल रूप में), जिसने ब्रह्म शक्ति को फल तुल्य एक ही बार में मुख में समा लिया । हनुमानजी के दल को देखते ही बैरियों का समूह अस्त-व्यस्त हो जाता है तथा रावण के मुख पर भी उदासीनता आवृत्त हो जाती है। सीतापति राम हनुमानजी के वीर-कौशल को देखकर प्रसन्न होते हैं। मान कवि कहते हैं कि रण में मेघनाद को घायल करने वाले और दिन दहाड़े सूर्य को निस्तेज कर क्षुद्र जीव की भाँति दबा लेने वाले हैं। सृष्टिकर्ता ने मानों अपने हाथों से नखों द्वारा वीर और रौद्र रस में पाग कर, जिनका गुंठन किया है। वे ही अधर दुष्टों को नष्ट करने वाले और अक्षय कुमार के प्राणों के घातक हैं। हनुमानजी के अधरों की मैं वन्दना करता हूं ।

 

 

[२२]

 

तंत श्रुति पंत  विरतंत वसंत बल, संतत अनंत हितवंत भगवंत के । जकट कटंत लख सूरन गिरंत भूत, भैरव भिरंत भट भागत भिरन्त के ।।

 

'मान' कवि भंत जपवंत पैठ रेत संत, अंतक हरंत जे करन्त अरि अंत के।

 

वज्र तें दुरंत दुतिवंत, दरसंत ज्वाल, वंत जे ज्वलंत वंदों दंत हनुमंत के ।।

 

तंत्र शास्त्रों के सूत्रों में तांत्रिकों ने विस्तृत रूप से जिनके शौर्य की महिमा को गाया है, जो निरंतर शेषावतार लक्ष्मण तथा श्री राम के हितेषी हैं। जब वे (हनुमान) अपने दाँतों को क्रोधावेग में जोर से पीसते हैं तो उनका गम्भीर घोष सुनकर भयभीत हो शूरवीर भी गिर पड़ते हैं, भूत-भैरव परस्पर लड़ पड़ते हैं तथा योद्धागण उनके समक्ष स्थिर नहीं रह पाते। मान कवि कहते हैं कि जो (हनुमान) मंत्र का निरंतर जाप करते रहते हैं तथा संतों से प्रेम का व्यवहार करते हैं। जब वे क्रोधावेश में दाँतों को किटकिटाते हैं तब शत्रु दल की कुशल नहीं रहती। उनके दाँतों की पुष्टता में वज्र की शक्ति भी नगण्य है । धधकती ज्वाला से भी अधिक चमकने वाले हैं। तेज की कांति से दीप्त हनुमानजी के दाँत सर्वथा स्तुत्य हैं।

 

 

[ २३ ]

 

रौद्र रस रेले रन खेले मुख भेले भार, असुर उसेले जो उबोले सुर गाढ़ तें।

 

चखल निशाचर चमून चक चूरे महि, पूरे लंक भाजन जरुरी जाड़ पाढ़ तें ॥

जानत को डाढ़े शोक सागर तें काढें सान,साढ़े गुन बाढ़े खल बाढ़ ते ।

 

परे प्रान पाड़े दल दुष्टन को ढाढ़े धन्य, पौन पुत्र डाढें जे उखाड़ें यम दाढ़ तें ॥

 

हनुमानजी की दाड़ों का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि वे रणभूमि में रौद्र रस का संचार करने वाली हैं तथा अनेकों राक्षसों को जिसने क्रीड़ा  सदृश मुख में चबाकर मार डाला, राक्षस उन (दाड़ों) के समक्ष नहीं ठहर सके । हनुमानजी की यह लीला देखकर देवता भी संतुष्ट हुए, क्योंकि राक्षसों का हनन कर उन्हें हनुमानजी ने कठिनाइयों (गड्डों) से उबार लिया । दानवी सेना को पूर्णतया समाप्त कर उनके मृत शरीरों से लंका भूमि को पाट दिया। अवशेष राक्षस प्राणों को बचाकर भागे । इन दाड़ों के प्राबल्य से ऐसा कौन है जो परिचित नहीं है। उनका अद्भुत कौशल शोक-समुद्र से भान सहित निकालने वाला है । सर्व गुणों से सम्पन्न है। जिस प्रकार शत्रुओं की संख्या और बल वृद्धि के अनुपात में दाड़ों की शक्ति भी द्विगुणित बढ़ जाती है। उनके (दाढ़ों के) अधिकार में आने वालों को प्राणों के लाले पड़ जाते हैं। दुष्ट अपने कर्म का दण्ड पाते हैं। जो (दाड़े) यमराज की दाड़ों के महत्त्व को भी उखाड़ने वाली हैं, ऐसी पवन पुत्र की दाढ़ धन्य हैं।

 

 

 

[२४]

 

सिया सोक गंज मन रंज फल जासों मंजु.स्वादे भंज बाटिका त्रिकूट पुरहूत की।

 

जहाँ बानी वास जान जानकी विलास महा, नाटक प्रकाश काव्य प्रभु के प्रभूत की ।।

 भने कवि 'मान' गान विद्या में सुजान वेद, आगम पुरान इतिहास के अकूत की।

आशा न निहारी जपे राम यश जामें विषै, वासना सुरसना प्रभंजन के पूत की ।।

 

हनुमानजी की रसना का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि जिसने विरह व्यथिता सीताजी के शोक का निवारण किया, साथ ही इन्द्र द्वारा निर्मित लंका जो त्रिकूट पर्वत पर स्थित है, उसमें बसी अशोक वाटिका, (जिसमें सीताजी ने कुछ काल निवास किया था) में लगे सुस्वादु फलों का रसास्वादन कर, तदनन्तर उसे उजाड़ दिया। अपनी कुशलता से जिसने हनुमन्नाटक का प्रणयन किया एवं प्रभु (श्रीराम) के महत्त्व से अभिभूत अनेक ग्रन्थों की रचना की। मान कवि कहते हैं कि जो (रसना) संगीत कला में निपुण हैं, वेद, पुराण, शास्त्र आधदि विद्याओं में पारंगत एवं राम के अतिरिक्त किसी अन्य को अवलम्ब नहीं मानती । हनुमानजी की रसना अन्यान्य विषय-वासनाओं से प्रवृत्त न होकर केवल राम रस का ही आस्वादन करने (गुणगान करने) में लवलीन है

 

 

 

२५ ]

 

प्रकट प्रमान सो सुमेरू की सिखर कैधों, उच्च सिंदुराचल है सान बड़े सान की।

 

उधम उमंड घनाघन की घटा है प्रले

पावक छटा है कि हरन अरि प्रान की ।।

 हूनी अनहूनी जैत पत्र जाहि भूमि रंग, समर घमंड चंड चमू चप मान की।

 

गोड़ी मान मंडली बिगोड़ी सुर सैन लखो, ओड़ी वज्र चोट धन्य ठोड़ी हनुमान की ।।

 

 

हनुमानजी की ठोड़ी अनुमानतः साक्षात् रूप से सुमेरू पर्वत का श्रृंग है अथवा उच्च प्रभावशाली सिंदूर का पर्वत है। ऐसा प्रतीत होता है कि गम्भीर वर्षाकालीन घटा घोर-गर्जन के साथ उमड़ रही है, किंबहुना प्रलय पावक का प्रज्ज्वलित रूप है या शत्रु की संहारिणी है। असम्भाव्य पर सम्भाव्य की विजय पताका है अथवा शक्तिशाली सैन्य का घमासान युद्ध में मान-मर्दन करने वाली है। मान कवि कहते हैं कि जिसने अभिमानिनी मंडलियों को विच्छिन्न कर दिया, जिसके अद्भुत रूप को देव-समूह ने भी विस्मय से अवलोका, वज्र के कठोर वार को भी सहन कर लेने वाली हनुमानजी की ठोड़ी कृतार्थ स्वरूपा है।

 

 

 

[ २६ ]

 

यासों बाहु मेल मेलो सानुज सकेलि राम, अक्ष कर झेल करो खेल मल्लपन को ।

दाबो भुज बीस का दबोना बढ़ो घोर है ना जाको ओर छोर घटो जोर खल गनकौ ।।

भने कवि मान मालवान छबिवान हारी, जस को निधान धरे ध्यान घनाघन को ।

भेदी है सुकंठ को सराहें संतकंठ रण बंदों यह कंठ दसकंठ रिपुजन को ।।

 

श्रीराम ने अपने अनुज लक्ष्मण के साथ जिस कंठ में अपनी बाहुओं को प्रेम से सम्पुटित किया। अक्षयकुमार को कंठ पर झेलकर हाथों से उछाल कर कौतुक ही में मल्ल के समान समाप्त किया । रावण की बलवान बीस भुजाओं से भी जो दब नहीं सका। जिसकी (कंठ की) शक्ति अपरिमित है. उसके समक्ष शस्त्रधारी शत्रुओं की शक्ति नगण्य होकर क्षीण हो जाती है। मान कवि कहते हैं कि जो रावण के मन्त्री माल्यवान की छवि को हीन करने वाले हैं। यश निधि के अधिपति हैं तथा घनश्याम वर्ण वाले श्रीराम के ही ध्यान में विभोर रहते है । सुकंठ (सुग्रीव) के भेदों को भी कंठ में धारण करने वाला (कंठ) दूत है। रण क्षेत्र में जिनकी सराहना शतशः योद्धाओं द्वारा दौत्य कर्म की पटुता के कारण होती है, ऐसे दसकंठ (रावण) के रिपु हनुमानजी के कंठ की में वन्दना करता हूँ।

 

 

[२७]

 

लायो द्रोण अचल उपाट धर जापे व्योम व्यापे बल काँपे कहि जाय मजबूत के ।

 

हेम उपवीत लसे बसन सुपीत जे धरैया इन्द्रजीत युद्ध लक्ष्मण सपूत के ॥

 

भनै कवि 'मान' महा विक्रम बिराजमान, भारी जान समर सराहैं पुरहूत के ।

 

जापै बंधु सहित चढ़ाये दीन बंधु तेवे, बंदौ जुग कंध दसकंध रिपु दूत के ।।

 

हनुमानजी अपने विशाल कंधों पर द्रोणाचल को उखाड़ कर आकाश मार्ग से ले आये। बलशाली हनुमानजी का बल शब्दों के माध्यम से नहीं नापा जा सकता, अर्थात् अवर्णनीय है। पीत परिधान अलंकृत है तथा वर्ण के अनुरूप स्वर्ण सी आभा वाली यज्ञोपवीत शोभायमान है। रणक्षेत्र में इन्द्रजीत के समक्ष नतमस्तक न होने के कारण सपूत की पात्रता को धारण करने वाले हैं। मान कवि कहते हैं कि जिनके अद्भुत शौर्य की गुरुता से प्रभावित होकर इन्द्र ने भी हनुमानजी की विविध प्रकार से सराहना की है। कवि कहता है कि मैं हनुमानजी के उन दोनों कंधों  की वंदना करता हूँ जिन्होंने दीन-बन्धु राम तथा अनुज लक्ष्मण को धारण किया, रावण के रिपु राम-दूत (हनुमान) के युगल कंध अनुपम हैं।

 

 

[२८]

 

गिरि गढ़ ढाहन सवाहन हरन वार, युद्ध हो करन बार खल दल भंग के ।

मान कवि ओज उद्‌भूत मजबूत महा, विक्रम अकूत तन धरे सफ जंग के

 

ठोंकत ही जिन्हें रख ठौर तज भाजें अरि. ठहरें न ठीक-ठाक उमड़ उमंग के ।

भारी बल बंड काल दंड ते प्रचंड बन्दौ, उदित उदंड भुजदंड बजरंग के ॥

 

हनुमानजी के पुष्ट भुजदण्ड की महिमा वणित करते हुए कवि कहता है कि वे भुजदण्ड गिरि व गढ़ का ध्वंस करने वाले तथा रण भूमि में वाहनारूढ़ होकर वार करते हैं। दुष्टों के प्रहार और उनके समूह को छिन्न-भिन्न कर अस्तित्वहीन बना देते हैं। मान कवि कहते हैँ कि जिनकी (भुजदण्ड की) ओजस्विता दृड़ता की भित्ति  पर अवस्थित है। जिनके पराक्रम का अनुमान भी नहीं किया जा सकता । विशाल तन व दीर्घ आकार वाले भुजदण्डों से रणक्षेत्र में शत्रुओं पर विजय प्राप्त  करते हैं। रिपु दल जो कि  अत्यन्त उत्साहित होकर अपनी वीरता के प्रदर्शन हेतु रणक्षेत्र में प्रविष्ट होता है, यह बजरंग की भुजाओं भ

 का ताल ठोंक कर ललकारने तथा वीरभूमि के समान रन भूमि में प्रविष्ट होने पर, प्राण बचाकर भाग जाता है। आतंक से पराभूत हो जाने के कारण उन्हें आत्म चेतना भी नहीं रहती। कवि कहता है कि हनुमानजी के भुजदण्ड उभरे  हुए और पुष्ट हैं। अतुलित बल से युक्त है। काल दण्ड से प्रचण्ड एवं काल की सत्ता को समाप्त  करने अपराजेय हैं  ऐसे पराक्रमी की वन्दना करता हूँ।

 

[ २९]

 

पूजी जे उमाहैं भरी बल की उमाहें लोक, छाई महिमा हैं प्रभु कारज प्रभूत की ।

ग्ररि दल दाहें काल दंड की उजाहैं. सुर-मेटती रुजाहैं जे समा हैं पुरहूत की ।।

 

मान कवि गाहैं  सदा जासु जस गाहैं  ओज, बाहैं  अवगाहैं जे निगाहें रणदूत की ।

 खलन को ढाहैं  करें दीनन पै छाहैं जोम, जन को निबाहैँ धन्य बाहें पौन पूत की ।।

 

बाहों का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि जिनको आदर्श स्वरूपा बलवती जान कर पूज्य भाव में वृद्धि करने के लिये देवी उमा ने पूजन किया है, वे उमा जो कि स्वतः शक्ति से समस्त जग को हर्षदायिनी है। ये बाहें प्रभु (श्रीराम) केवअनेकानेक कार्यों को पूर्ण करने में लोक व्यापिनी महत्ता को प्राप्त हैं। रिपुदल संहारिनी है। यम का दंड भी जिनकी प्रभुता से आतंकित है। देवयोनि को अपने पौरुष से रोगमुक्त करने वाली इन्द्र की शक्ति के समान ही है, कम नहीं। जिनके (बाहों के) प्रताप का यशोगान करने के लिये मान कवि सदा उत्सुक रहता है. जिनकी यशस्वी बाहें रणदूतों की दृष्टि को विचलित कर देती हैं, दुष्टों का संहार करने वाली तथा दीनों की छाया रूप में शरणदायिनी हैं । जन के उत्साह, उमंग व ओज को उदीप्त करने वाली ऐसी हनुमानजी की बाहें धन्य है।

 

 

 

 

[३०]

 

मीड महि मंडल कमंडलु यो खंडे कोप, फोरे जो ब्रह्मांड को समान अंड फल के ।

 

बज्र हू ते जिनके प्रहार हैं प्रचंड घोर, दंडधर दंड तें उदंड झलाझल के ।।

 भनै कवि 'मान' सरनागत सहाय करे, अरिन ढहाये जे बहाये खल बल के ।

 राम रण रंजा गज कर्ण गल गंजा  जिन, अक्ष मुख भंजा धन्य पंजा महाबल के ।।

 

कवि कहता है कि जब हनुमानजी कोधावेश में आते हैं, तब उनका पंजा पृथ्वी-मंडल को कमंडल की भांति टुकड़े-टुकड़े करने एवं ब्रह्माण्ड को अंडे के समान फोड़ने में समर्थ है। जिनके घोर प्रहार के समक्ष वज्र भी अवश है, जो यमराज के दंड से भी अधिक शोभायमान है। मान कवि कहते हैं कि वे शरणागत के प्रतिपालक हैं। शत्रुओं के ध्वंसकारी तथा दुष्टों को मूल से नष्ट करने वाले हैं। हनुमानजी का महाबलशाली पंजा गज के कान और गले के आकार को भी हीन बना देता है। जिन पंजों ने श्री राम को रणक्षेत्र में आमंत्रित किया तथा अक्षय कुमार (रावणपुत्र) का प्राणान्त किया, वे कृतार्थ स्वरूपा है।