likh rahe ve nadi ki antaerkathyen in Hindi Book Reviews by Ram Bharose Mishra books and stories PDF | लिख रहे वे नदी की अंतर्कथायें गीत संग्रह

Featured Books
  • ભાગવત રહસ્ય - 247

    ભાગવત રહસ્ય -૨૪૭   નંદ મહોત્સવ રોજ કરવો જોઈએ.મનથી ભાવના કરવા...

  • काली किताब - 7

    वरुण के हाथ काँप रहे थे, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। वह धीर...

  • શ્યામ રંગ...લગ્ન ભંગ....21

    ઢળતી સાંજમાં યાદોના ફૂલોથી એક સુંદર ગુલદસ્તાને બન્ને મિત્રો...

  • અભિષેક - ભાગ 9

    અભિષેક પ્રકરણ 9અભિષેક કારતક સુદ એકાદશીના દિવસે ઋષિકેશ અંકલ સ...

  • લવ યુ યાર - ભાગ 82

    લવ યુ યાર પ્રકરણ-82લવ પોતાની બેગ લઈને ઉપર પોતાના બેડરૂમમાં ગ...

Categories
Share

लिख रहे वे नदी की अंतर्कथायें गीत संग्रह

समीक्षक प्रो राम भरोसे मिश्र

समीक्षा लेख:  ‘लिख रहे वे नदी की अंतर्कथायें’

                                                            नवगीत परम्परा का नया संग्रह

लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित वरिष्ठ कवि कृष्ण विहारी लाल पाण्डेय का गीत संग्रह ‘लिख रहे वे नदी की अंतर्कथायें’’ समकालीन नवगीत साहित्य का एक सशक्त और प्रासंगिक दस्तावेज है। यह संग्रह 36 गीतों के माध्यम से समाज, समय, और मानवीय संवेदनाओं का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इन गीतों में न केवल गीतात्मकता और लय की परिपूर्णता है, बल्कि वैचारिक गहराई और युगीन यथार्थ की झलक भी है।

 युगीन विडंबनाओं का चित्रण

संग्रह का पहला गीत, "वे अभी निर्माण चिंतन में लगे हैं, हम लगे यश गान की अंत्याक्षरी में...", समाज के दो परस्पर विरोधी पक्षों का सटीक चित्रण करता है।

कवि लिखते हैं:

"वे अभी निर्माण चिंतन में लगे हैं,

हम लगे यशगान की अंत्याक्षरी में।

संधिया इस दौर में ऐसी हुई हैं,

महाभारत हर दिशा में मच रहे हैं।"

यह पंक्तियां आधुनिक समाज की विडंबना को उजागर करती हैं, जहां एक वर्ग समाज के निर्माण में संलग्न है, तो दूसरा वर्ग निरर्थक आत्ममुग्धता और दिखावे में उलझा हुआ है। आगे की पंक्तियां समाज में मौलिकता के अभाव और केवल दिखावटी गतिविधियों पर प्रहार करती हैं:

"मूल लेखन से बड़े हैं शुद्धिपत्रक,

और हम खुश हैं नया हम रच रहे हैं।

व्याकरण की हर नसीहत है उपेक्षित,

व्यस्त हैं सब शब्द की बाजीगरी में।"

इन पंक्तियों के माध्यम से कवि यह संकेत करते हैं कि समाज में विचारशीलता और गुणवत्ता का स्थान सतही गतिविधियों ने ले लिया है।

 उल्लेखनीय उद्धरण: गहराई और तीक्ष्णता का सम्मिश्रण

कृष्ण विहारी लाल पाण्डेय जी के गीतों में समय और समाज का गहन यथार्थ बिंबित होता है। कुछ पंक्तियां अपनी तीव्र प्रासंगिकता और प्रभावशाली अभिव्यक्ति के कारण विशेष उल्लेखनीय हैं:

"घाट पर बैठे हुए हैं जो सुरक्षित लिख रहे वे नदी की अन्तर्कथाएँ।

आचमन तक के लिए उतरे नहीं जो कह रहे वे खास वंशज हैं नदी के।

बोलना भी अभी सीखा है जिन्होंने, बन गए वे प्रवक्ता पूरी सदी के!

और जिनने शब्द साधे कर रहे वे दो मिनट कुछ बोलने की प्रार्थनाएँ!"

यह पंक्तियां समाज के उस वर्ग पर कटाक्ष करती हैं, जो अनुभव और संघर्षों से दूर रहते हुए भी स्वयं को विशेष और महत्वपूर्ण साबित करने में जुटा रहता है। वहीं, वास्तविक श्रम करने वाले लोग हाशिए पर खड़े रहते हैं।

"जिनके सपनों में पूरा खलिहान समाया था,

उनके दिन कट रहे कर्ज से घिरी किसानी से।"

यहां कवि ने किसानों की दयनीय स्थिति को मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। जिनके सपनों में समृद्धि और सृजन की आकांक्षा थी, वे आज कर्ज और असुरक्षा से घिरकर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

"है कथानक सभी का वही दुख भरा,

जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही।

जिंदगी ज्यों किसी कर्ज के पत्र पर

कांपती उंगलियों के विवश दस्तखत।"

यह पंक्तियां मानव जीवन की सीमाओं और संघर्षों को प्रकट करती हैं। जिंदगी यहां एक अनवरत कर्ज के रूप में चित्रित की गई है, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी चुकाने की असफल कोशिशें की जाती हैं।

"नाम लिखे हर दरवाजे पर फिर भी सभी अपरिचित हैं,

सब जुलूस में शामिल लेकिन सबके अलग-अलग हित हैं!"

यहां कवि आधुनिक सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को चित्रित करते हैं। समाज में बाहरी दिखावा बढ़ता जा रहा है, पर भीतर से हर व्यक्ति स्वार्थ और अलगाव की ओर उन्मुख है।

गीत: 'जब जब खुद को लिखने बैठे, अपना समय लिखा' का विश्लेषण

संग्रह का एक अन्य गीत, "जब जब खुद को लिखने बैठे, अपना समय लिखा...", कवि के आत्मविश्लेषण और समय के सत्य का प्रतीक है। यह गीत अपने समय से संवाद करता है और पाठकों को गहराई से प्रभावित करता है।

"जब जब खुद को लिखने बैठे, अपना समय लिखा।

अच्छा नहीं लिखा लेकिन जो सच था अभय लिखा।"

यहां कवि ने ईमानदारी और निर्भीकता को प्राथमिकता दी है। वह अपने लेखन में सत्य और यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध रहे हैं। आगे की पंक्तियां बाजारवाद और दिखावे की संस्कृति पर चोट करती हैं:

"विज्ञापन में बसने वालों का क्या कहना है।

भूखी आत्माओं को सब ऐसे ही सहना है।"

यह पंक्तियां उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो केवल आडंबर में जी रहा है, जबकि वास्तविक संघर्षरत लोग उपेक्षित हैं।

नवगीत की परंपरा में योगदान

पाण्डेय जी का यह संग्रह नवगीत विधा को एक नई दिशा देता है। उनके गीत केवल गेयता और लय तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें गहराई और व्यापक दृष्टिकोण भी है।

समग्र मूल्यांकन

‘लिख रहे वे नदी की अंतर्कथायें’’ एक ऐसा संग्रह है, जो पाठकों को न केवल आनंद प्रदान करता है, बल्कि उन्हें सोचने और आत्ममंथन के लिए भी प्रेरित करता है। पाण्डेय जी के गीत आधुनिक समाज की विसंगतियों और मानवीय संवेदनाओं का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं।

यह कृति उन सभी पाठकों के लिए अनिवार्य है, जो साहित्य के माध्यम से जीवन और समय की जटिलताओं को समझना चाहते हैं।

...

पुस्तक- लिख रहे वे नदीं की अंतर्कथायें’ (गीत सँग्रह)

कवि -कृष्ण विहारी लाल पाण्डेय

प्रकाशक -लोकमित्र दिल्ली

मूल्य-200