समीक्षा
तंत्र के मख़ौल का जवाब- “हल्ला”
रामभरोसे मिश्रा
राजनारायण बोहरे यानी भारतीय हिंदी समाज का वह कथाकार जो मध्यवर्गीय समाज की कहानियों को न केवल आधिकारिक अंदाज में लिखता है, बल्कि हंसी-मजाक, सुख-दुख तीज- त्यौहार और खेती-किसानी की बातें भी साफगोई के अंदाज में रखता है । इस राजनारायण बोहरे को हिंदी के कथा साहित्य में मध्यवर्ग व गाँव का प्रतिनिधि कथाकार भी कहा जा सकता है।हिन्दी में अब तक हमने जितने भी कथा संग्रह या उपन्यास पढ़े, अधिकांश किताबों के बारे में लगा कि वे सब स्टडी रूम में बैठकर लिखे गए ऐसे किस्से हैं , जिनका वास्तविक जीवन से न कोई संबंध और न सरोकार है।
राजनारायण बोहरे की कहानियों (यानि चाहे ट्रक ड्राइवर की कहानी ट्रक पर सवार जोंक हो , चाहे मोहल्ले की कुतिया की कहानी ‘मलंगी’ , चाहे आपसी रिश्तो में प्रेम बुनती दिवा की कहानी डूबते जलयान हो अथवा गिरिराज और लल्ला की कहानी मुहिम) के पात्र हमको अपने इर्द-गिर्द के वे लोग लगते हैं, जो हमसे रात दिन बतियाते हैं , इनकी पीड़ा हमारी आपकी तरह होती हैं । यह सफलता कहानीकार की सब में रम जाने की क्षमता का भी नमूना है तो लेखक की किस्सागोई का सहज अंदाज भी उनकी कहानियों को साधारणीकरण का गुण प्रदान करता है।
बोहरे का नया कहानी संग्रह “हल्ला” पिछले दिनों इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड के यहां से प्रकाशित होकर आया है। यह प्रकाशन संस्थान यूं तो चंद वर्षों से ही साहित्यिक क्षेत्र में आया है लेकिन उत्कृष्ट कोटि का साहित्य चयन, खूबसूरत छपाई, निर्दोष प्रूफ रीडिंग और कलात्मक पुस्तक कवर के कारण चर्चा के केंद्र में आ गया है । चर्चा में तो राज बोहरे का कहानी संग्रह “हल्ला” भी है। इस संग्रह में राज बोहरे ने अपने शासकीय सेवा काल में जुटाए गए सरकारी नौकरी के दर्द, ईमानदार आदमी को सताए जाने के अनुभव, डेली अप-डाउन करने वाले पैसेंजर्स के सुख- दुःख, उनके अपने गुण-अवगुण और छोटी-मोटी घटनाओं पर बड़े रोचक ढंग से लिखी कहानियाँ शामिल हैं। यह कहानियां पाठक को गहरे से प्रभावित करती हैं और शुरू होते ही पाठक को अपने दायरे में ले लेती हैं ।
कहानी संग्रह अथवा उपन्यास की समीक्षा का आजकल ऐसा प्रचलन बढ़ गया है कि कहानियों के कथानक की बात नहीं की जाती। इससे विनम्र असहमति जताते हुए कहें कि आम पाठक जब तक मूल कथा तथा उनके पात्रों के किसी संवाद विशेष को नहीं जान पाएगा, तब तक वह ऐसे कहानी संग्रह अथवा उपन्यास के वास्तविक मर्म तक भला कैसे पहुंच पाएगा?
इस संग्रह की पहली कहानी “हल्ला” बहुत जबरदस्त कहानी है, यही इस सँग्रह की शीर्षक कहानी भी है। इस कहानी में एक ईमानदार सरकारी कर्मचारी द्वारा शासन और जनहित में किए गए एक विशिष्ट अभियान व उसकी वजह से उत्पन्न हुए संकटों का किस्सा है, यह अभियान अगर सफल होता तो जनसामान्य और सरकार दोनों का हित होता,लेकिन नहीं हो पाता। गांवों में उग रहे छुटभैया नेताओं, सरकारी लगान दबा कर बैठे बड़े किसानों और खुद को चर्चा में लाने को उत्सुक तथाकथित जन प्रतिनिधियों द्वारा ईमानदार अधिकारी के साजिशन अपमान की यह कहानी कई स्तरों पर विलक्षण मोड़ लेती है। तहसीलदार बजाज साहब एक किसान के बेटे हैं । भले ही वे किसानों के विरुद्ध अरसे से मिथक बने रहे लगान वसूलीकर्ता तहसीलदार जैसे पद पर बैठे हैं, पर उनकी कृषक समर्थक मानसिकता बदलती नहीं है । सरकार द्वारा पुराने लगान को छूट के साथ जमा कराने के वास्ते लाये गए एक अभियान के विरुद्ध जब कुछ गुंडे नुमा किसान बजाज का अपमान करते हैं तो बजाज एक बार फिर उस द्वंद्व में घिर जाते हैं ,जिसमें सदा घिरते रहे कि आखिर किसी कर्मचारी अधिकारी को ईमानदार होने का यही पुरस्कार क्यों मिल पाता है! हद तो यह है कि ऐसे ईमानदार अधिकारी को केवल वचनों के आश्वासन और हौसले तो कलेक्टर और दूसरे अधिकारी देते हैं, पर वास्तविक अपराधियों से बदला लेने या उनके खिलाफ कार्रवाई करने को कोई समवर्गीय व्यक्ति नहीं आता। बल्कि बजाज साहब के समर्थन में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी एकत्रित होते हैं। जो दिन में हजार झिड़कियां खाते हैं, तनखा कटाते हैं, डांट खाते हैं और जनता की नजरों में भी वे ही खराब साबित होते हैं। लेखक अप्रत्यक्ष रूप से इसमें यूनियन की भूमिका को, मजदूर की शक्ति को और अल्प वेतन भोगी मजदूर नुमा कर्मचारी की तत्परता को भी प्रकट करता है, कि राजनीतिज्ञों,टुच्चे नेताओं और आक्रामक गुंडों के खिलाफ “हल्ला” केवल मजदूर वर्ग ही , सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है।
संग्रह की कहानी "हड़ताल जारी है " कहानी में ऐसे राजनीतिज्ञों के अंतः करण और अंतःपुर के काले स्वरूप को दर्शाया गया है, जो प्रकट में समाजसेवी और 'सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ' काम करते हैं, लेकिन वे अपने अंतःपुर में उस हर युवती की कल्पना करते हैं जो किसी न किसी काम से उनके पास आकर उनकी सहायता मांग रही है, ऐसी युवतियों में भी वे उसी युवती या महिला को अपने खास शिकार के रूप में चुनते हैं जो निराश्रित हो और जिसके लिए लड़ने वाला कस्बे में समाज में कोई न हो। गोपाल बाबू समाज के ऐसे ही नेता हैं। उड़ीसा से बाढ़ पीड़ितों के दल के साथ मीना कस्बे में आई है और एक समाजसेवी होने के नाते वह गोपाल बाबू से मदद चाहती है। गोपाल बाबू अपने क्लब की मीटिंग के स्थान अपने शहर के बाहर की कोठी में मीना को बुलाते हैं कि वहां सब लोग मिलकर तय कर लेंगे कि उन्हें क्या क्या हेल्प चाहिए और क्लब के लोग क्या क्या हेल्प कर सकते हैं। तांगे वाला कोठी में मीना को छोड़कर लौट जाता है तो गोपाल बाबू वहां अचानक प्रकट होते हैं। निरस्त्र, असहाय युवती परेशान है और दानवाकार गोपाल बाबू उसके साथ बलात्कार पर आमादा है। किसी तरह कोठी से निकलकर वह युवती पास वाले उस कैंपस में पहुंचती है, जहां किसी हॉस्टल के बच्चे वॉलीबॉल खेल रहे थे। मीना की हालत और पीछे आते गोपाल बाबू को देखकर बच्चे सब समझ जाते हैं। वार्डन भी युवती की हेल्प करते हैं , उसे अपने घर ले जाते हैं और अगले दिन से कस्बे में हड़तालों का दौर शुरू हो जाता है । इस कहानी की कथा एकदम नई नहीं है,कहने को यह पुराना सा कथानक है । शायद राज बोहरे ने चालीस साल पहले यह कहानी लिखी होगी जो अब तक किसी संग्रह में नहीं आई, अब आकर उनके इस संग्रह में इसने स्थान पाया है। इसलिए इस कहानी की प्रस्तुति, भाषा लगभग प्रत्याशित सी लगती है। अकेली कोठी में बाढ़ पीड़ित स्त्री का बुलाना, उसका पहुंचना, तांगे वाले का उसे छोड़ना, यह सब पाठक को पहले से ही अनहोनी का एहसास कराते हैं। हां इस कहानी में अलग सा कुछ है तो वह है युवाओं का उस युवती के समर्थन में हड़ताल करना। अगर तरुणाई इस तरह के भले काम और असहयोग की मदद करने जैसे काम में अपनी उर्जा लगाने लगे तो शायद समाज का नक्शा बदल जाए। ऐसी कल्पना शायद लेखक ने की तभी सारे महाविद्यालयों के छात्र मीना की मदद करने के वास्ते हड़ताल पर उतर आते हैं। कस्बा टोटली बंद हो जाता है।
संग्रह की एक कहानी “रिटायरमेंट” कहानी में एक ऐसे ईमानदार अधिकारी की कथा को लेखक पाठकों के समक्ष लाता है जिसमें पिता द्वारा कहे गए इस वाक्य को सरकारी नौकरी ज्वाइन करता युवक सिर माथे स्वीकार कर लेता है कि ‘कभी लांच खाच मत लेना। ऐसा ना हो कि समाज में तुम्हारी वजह से मुझे नीचे सिर्फ करना पड़े!’ जीवन भर ईमानदारी का बर्ताव करता कहानी का नायक टैक्स कलेक्शन विभाग का अधिकारी है अपने समकक्ष लोगों के बीच हास्य का पात्र बनता है । वह अपने सब ऑर्डिनेट व अधिनस्थ अधिकारियों और चपरासियों तक की नजरों में नाकारा , बेवकूफ और दोष साबित होता है , लेकिन अपनी दुनिया में खुश रहता है। जिस दिन इस ईमानदार अधिकारी का “रिटायरमेंट” होने वाला है, पार्टी की सारी तैयारी हो चुकी है कि ठीक उसी दिन शासन निर्णय करता है कि अब कर्मचारी 60 वर्ष की बजाय 62 साल की उम्र में रिटायर होंगे ।कहानी का नेरेटर आशा से भर जाता है कि अब शायद बढ़ गए दो सालों में अपने बच्चों और परिवार की खातिर अग्रवाल साहब कुछ कमाई धमाई वाले काम करेंगे और इन दो वर्षों में वे शायद घर का नक्शा बदलेंगे। इस आशा में अग्रवाल साहब के घर आया हुआ नेरेटर संशय में हैं, क्योंकि उन्हें पता लगा है कि अग्रवाल साहब अभी सो रहे हैं। दोपहर ग्यारह बजे तक सोना एक विलक्षण सी आदत है । शायद लेखक जागने के “समय” सोने की घटना बता कर के प्रतीक के माध्यम से अपनी बात कहना चाहता है।
' ‘डेली एक्सप्रेस ‘ ' इस संग्रह की अगली कहानी है। यह प्रतिदिन दो सौ किलोमीटर की दूरी पर ट्रेन से जाकर नौकरी करने और लौट कर आने वाले ( डेली अप डाउन करने वालों के) एक जत्थे की कुछ विशिष्ट सी कहानी है। लेखक ने इस कहानी के कथ्य “समय” को दो दिनों में उल्लेख किया है। आकार में यह लंबी कहानी है यूँ कह सकते हैं कि लगभग उपन्यास की तरह फैली हुई है यह कहानी। इसमें आरंभ से लेकर अंत तक छोटे-छोटे अध्यायों में दिया गया सूक्ष्मतम विवरण पाठक को उस दुनिया के अनुभवों का साक्षी बनाता है जो प्रतिदिन यात्रा करने वाले लोग अनुभव करते हैं। इस यात्रा में किसी स्टेशन से गाने वाला चढ़ता है, तो किसी से कीर्तन करने वाले चढ़ते हैं । किसी स्टेशन से किन्नर चढ़ता है तो कहीं चाट,चने और ककड़ी बेचने वाली महिलाएं । कोई किसी से बोहनी कराता हैं तो कोई गणपति वँदना से अपने छोटे से हारमोनीयम के साथ यात्रियों को कीर्तन सुनाना आरंभ करता है। कुछ लोग अंताक्षरी खेलते हैं तो कुछ लोग ताश ।अलग-अलग तरह के शौक, मिजाज और स्वभाव के लोगों की कहानी है यह। इन दैनिक यात्रियों के बीच फंसा चैतुआ मजदूर (यानी बुंदेलखंड के दूर के इलाके से चैत की फसल काटने आगरा और मथुरा की तरफ जा रहे लोगों) के एक परिवार की कहानी है यह। परिवार का मजदूर मुखिया स्वयं और उसके बच्चे इन अप डाउनर के बीच फंसकर बड़ी अजीब स्थिति में पड़ जाते हैं और ठीक है ऐसे वक्त उस परिवार की छोटी बच्ची को दस्त की हाजत हो जाती है, यात्रियों से लेकर बाथरूम तक उस बच्ची की हाजत फैल जाती है तो यात्री नाक पर रुमाल रख लेते हैं । बर्थ पर लेटे लोगों को जगाने से लेकर आकस्मिक चेकिंग गैंग द्वारा ट्रेन के यात्रियों की चेकिंग की घटना और कलेक्टर द्वारा दैनिक अप डाउन करने वाले लोगों की एस.पी. पुलिस की सहायता से चेकिंग करने तथा कर्मचारियों को धारा 151 में जेल में बंद हवालात में बंद कराने की घटना के विवरण को समेटती यह कहानी लौटती हुई गाड़ी के एक्सीडेंट पर खत्म होती है। दैनिक आवागमन करने वाले लोग अपने आप स्वभाव और भेद को भुलाकर उन यात्रियों की सेवा करने में जुट जाते हैं जो इस दुर्घटना में हताहत हुए हैं या डर गए हैं । जब तक पुलिस बल, रेल प्रशासन तथा जिला प्रशासन आता है, तब तक दैनिक यात्री बहादुरी से दुर्घटनाग्रस्त लोगों को ट्रेन में से निकाल निकाल कर यात्रियों को लाते हैं और सुरक्षित स्थान पर लिटाते जाते हैं ।अपनी बोतलों का थोड़ा थोड़ा पानी भी वे यात्रियों को पिलाकर उनका हौसला बढ़ाते हैं। टीम भावना की इस कहानी का नायक कोई एक दैनिक यात्री नहीं है ,लेकिन पाठक इस कहानी से गुजरने के बाद एक ऐसे संसार से होकर आ जाता है जो उनके आसपास है और दूर से कभी-कभी कुछ दृश्य जिसके देखें भी गए हैं ,पर उसको आम पाठक अनुभव नहीं कर पाता।
इस संग्रह की एक कहानी है '‘भिड़न्त’ ' दरअसल एक शिक्षक के त्याग व समर्पण की कहानी है। वह पटेल के घर उसके बच्चे को पढ़ाने नहीं जाता, इसलिए पटेल उसका दुश्मन हो जाता है। उसकी विविध प्रकार की शिकायत करता है, उधर शिक्षक गांव वालों के बीच बैठकर न केवल बुजुर्गों को पढ़ाता है, बल्कि अपने रेडियो से उन्हें नयी नयी खबरें सुनाता है और गांव वालों को जागृत करके अनाप-शनाप वसूली करने वाले साहूकारों के जाल और जंजीरों से मुक्त होने का रास्ता भी दिखाता है। पटेल द्वारा की गई शिकायत की जांच करने उस वक़्त जिला शिक्षा अधिकारी गांव आ रहा है और वह भी पटेल द्वारा भेजे गए ट्रैक्टर में बैठकर। तब उस जिला शिक्षा अधिकारी से भिड़ंत के लिए शिक्षक न केवल आत्मविश्वास से भरा है ,बल्कि इसे भी अपनी परीक्षा समझ रहा है। गांव के जिस दलित मोहल्ले को उसने अब तक अपनी शैक्षणिक गतिविधियों का केंद्र बनाया था, वह मोहल्ला खुद आकर जिला शिक्षा अधिकारी के समक्ष अपनी बात रखेगा कि यह अध्यापक किसी दण्डनीय कार्यवाही के योग्य नहीं हैं, यह तो पुरस्कार के योग्य है। उधर शिक्षक ने अपनी जेब में पांच सौ का एक लिफाफा भी रख लिया है कि अगर जिला शिक्षा अधिकारी पटेल द्वारा दी गयी रिश्वत के कारण अपनी कार्यवाही रोकने में हिचक महसूस करें तो वह जिला शिक्षा अधिकारी द्वारा चाही गई रिश्वत भी देने को तैयार है। यह शिक्षक नए युग का नायक है। यह नए युग के चरित्र हैं जो अपने काम को निपटाने के लिए रिश्वत देने से भी परहेज नहीं करते। हालांकि महात्मा गांधी ने कहा था कि साध्य का पवित्र होना ही पर्याप्त नहीं है , साधन भी पवित्र होने चाहिए, लेकिन नए युग में जब दुश्मन हर हद तक नीचे गिर जाने को तैयार है और सारा तंत्र उसकी मदद कर रहा है, ऐसे में ईट का जवाब पत्थर से देने वाले चरित्र पैदा करते हुए राज बोहरे शायद यह जताने का प्रयास कर रहे हैं कि दुश्मन का किसी भी तरह सफाया होना चाहिए और दलित व वंचित लोगों के समर्थन में किसी भी हद तक खड़े होकर हर तरह के नुकसान के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
इस संग्रह की विशेषताओं में एक कहानी ‘मलंगी’ का होना भी है। प्रेमचंद की हीरा मोती कहानी या दो बैलों की आत्मकथा से लेकर पूरे हिंदी साहित्य को खंगालने पर कुछ गिनी चुनी कहानियां ही हमको पशु जगत की मिलती हैं। ऐसे में राज बोहरे की कहानी ‘मलंगी’ एक अजीब और शानदार एहसास से सराबोर कर जाती है। मोहल्ले की कुतिया ‘मलंगी’ को मुख्य नायिका बनाकर लेखक कहानी की लंबी यात्रा पाठकों करा लाता है । ‘मलंगी’ मोहल्ले के कुंए को लांघने का हुनर जानती है, जो दूसरे मोहल्ले वालों के लिए विलक्षण है और उस मोहल्ले को कुछ खास अहसास कराती है। बाहर के लोगों और घुसपैठियों पर हमला कर बैठने वाली ‘मलंगी’ तब असहाय हो जाती है, जब छतों पर कूदता हुआ एक लंगूर घुसपैठिया बन इस मोहल्ले में आया। वह न केवल छतों पर सूखते अचार के मर्तबान तोड़ने लगता है बल्कि कबेलू भी फोड़ने लगता है ।एक दिन कल्याण ‘मलंगी’ को छज्जे पर चढ़ा देता है,तो छप्परों पर लंगूर का पीछा करती ‘मलंगी’ लंगूर को डरा देती है। लेकिन यह तरकीब बहुत ज्यादा कारगर साबित नहीं होती। लंगूर एक दिन किसी घर से उठाए गए रोटी के कटोर दान में से ‘मलंगी’ को एक रोटी देता है। ‘मलंगी’ हिचक के साथ रोटी खा लेती है और वह रोटी उन दो विजातीय प्राणियों के बीच दोस्ती का भाव पैदा कर देती है। अब वह लंगूर की दुश्मन नहीं है। अगले दिन से ‘मलंगी’ भी लंगूर के साथ छप्परों पर दौड़ती फिरती है। मोहल्ले वाले परेशान हो उठते हैं। इसी बीच नगरपालिका के लोग लंगूर को पकड़ने पिंजरा लेकर आते हैं। उनके डर से भागता फिरता लंगूर अंत में एक नीचे छप्पर से दूसरे ऊंचे छप्पर पर छलांग लगाता है, जिनके बीच में दस फिट का चौड़ा रास्ता है । लंगूर यह रास्ता आसानी से पार कर जाता है लेकिन अपनी ही झोंक में आती ‘मलंगी’ न तो इतनी ऊंची उछाल भर पाती, न सड़क पार कर पाती । वह ऊंचे छप्पर वाली अटारी की दीवार से टकराकर नीचे गली में आकर गिरती है और चीखने लगती है ।कहानी का आरंभ यहीं से हुआ है बाकी सब कथा फ्लैशबैक में ।बाद में ‘मलंगी’ ठीक हो जाती है। लंगूर पकड़ा जाता है। लेखक ने एक बच्चे के रूप में इस कहानी को कहा है। वह बच्चा कहता है कि हम लंगूर को भूल चुके थे पर ‘मलंगी’ की स्मृतियों में लंगूर जीवित है या नहीं पता नहीं ।(पृष्ठ 118)।इस कहानी में पशु के मानवीकरण की कला ही नहीं बल्कि प्रतीक रूप में मोहल्ले की प्रहरी सदस्य का घुसपैठिए के साथ मिल जाने पर जो भय पैदा होता है ,जो घृणा पैदा होती है , वह इस कहानी में प्रकट होता है। ‘मलंगी’ के एकल प्रेम को मोहल्ले वाले स्वीकार नही करते। उनकी नजरों में ‘मलंगी’ को किसी से भी से प्रेम नहीं करना चाहिए, भले ही वही ‘मलंगी’ शरद ऋतु में बाहर के मोहल्लों के अनेक कुत्तों के संसर्ग में खुलेआम किलोल करती हुई घूमती है और बाद में “समय” पर बच्चे पैदा करती है। तब मोहल्ले वालों को कोई आपत्ति नहीं होती। इस तरह किसी जीव की घुटन का भी चित्रण इस कहानी में आया है।
'‘अपनी खातिर’ ' भी लगभग इसी संदर्भ की कहानी है।इस कहानी की नायिका कामदा का बचपन में विवाह एक उम्र दराज द्विज वर व्यक्ति से हो गया है, जिसे वह पहली रात ही छोड़ कर आ गई है, उस से छुटकारे के लिए कोर्ट में विवाद प्रस्तुत है और बार-बार पेशियां लग रही हैं। कामदा ने बीए कर लिया है और टाइपिंग परीक्षा पास कर एक दफ्तर में वह क्लर्क की नौकरी पा चुकी है । दफ्तर में तबादले पर आए एक फील्ड ऑफिसर युवक से उसका प्रेम प्रसंग चल रहा होता है कि अचानक एक दिन खबर लगती है कि युवक के घर वाले सख़्ती से लड़के को धमका चुके हैं और उसका अन्यत्र विवाह कर रहे हैं। लड़का उनके आगे झुक गया है कि वह इस कहानी की नायिका कामदा से ब्याह नहीं करेगा , बल्कि परिवार वालों द्वारा चाही गई लड़की से विवाह करेगा। कहानी इस निष्कर्ष के साथ खत्म होती है कि अपने पूर्व पति को छोड़ना, नौकरी करना किसी और के वास्ते नहीं था बल्कि कामदा खुद के लिए कर रही थी।
लेकिन कामदा ने विशन से अलग और आजाद होने का फैसला कपिल की खातिर ही नहीं लिया था, ‘अपनी खातिर’ भी वह ऐसा ही चाहती थी। (पृष्ठ 110)
उसने ताजा वायु में कुछ लंबी सांसे लेकर फेफड़ों में भरी और दृढ़ता से टहलने लगी । (पृष्ठ 111)
‘कामदा यानी हर लड़की ‘अपनी खातिर’ , अपने जीवन के खातिर , हर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है।‘ इस संदेश व आत्मविश्वास को दुहराती हुई यह कहानी अपने समय में 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में प्रकाशित हो चुकी है ।
संग्रह की एक और लंबी कहानी है '“समय” '। “समय” कहानी एक ऐसे युवक की कहानी है जो कहीं नौकरी कर रहा है, लेकिन उसे अब अपने मूल निवासी प्रमाण पत्र और शिक्षा के ऐसे प्रमाण पत्रों की आवश्यकता है जो नौकरी लेते वक्त नहीं लगाए गए थे। उन प्रमाण पत्रों की तलाश में वह घर लौटता है । वे सब भाई नौकरियों पर बाहर रह रहे हैं, घर पर अकेली रहती हैं -उनकी बूढ़ी अम्मा । अम्मा एक बड़े मकान के बीचोंबीच रहती हुई घर की रखवाली करती हैं, खेती देखती हैं और पुराने सामान से भरे अटारी के नीचे के मढ़ा की चाभी अपने पास रखती हैं । उस मढ़ा में उनकी सारी पुरानी सटर-पटर, सारे बक्से , मटके पोटलिया रखी हुई हैं। कथा नायक कुछ विशेष प्रिविलेज रखता है। मां उसे बहुत चाहती हैं। युवक मां की अनुमति लेकर मढ़ा में प्रवेश करता है और एक-एक बक्से, एक-एक पोटली को खोलकर उनमें अपना कागज तलाश करने लगता है। उसे किसी पोटली में मिलता है मरा हुआ बिच्छू ,कहीं मिलते हैं रामलीला के राम और लक्ष्मण के पार्ट करने को सिलाए गए कोट, कहीं मिलती हैं पुरानी फुलझड़ी, और कहीं मिलती है रक्त में सनी हुई बनियान । हर वस्तु का अपना किस्सा है । जब कथा नायक के पिता खत्म हुए तो अभाव में जी रहे भाइयों ने किस तरह दिन गुजारे थे , उसकी दास्तान सुनाती हैं यह चीजें । वे चीजें अपने साथ अपना “समय” भी सुरक्षित करें हैं। हर चीज को सामने पाकर एक नया अध्याय खुलता जाता है पाठकों के सामने और नायक की यादों के साथ-साथ वह घटना पाठक के सामने आने लगती है। “समय” अभाव में जिंदगी जी रहे बच्चों की कहानी ही नहीं है, समय की उन सब यादों को समेटे बैठी अम्मा की कहानी भी है। इस कहानी के लंबे अर्थ हैं, विस्तृत आयाम, तो बड़ी गहराई भी है।
सँग्रह की कहानियों में 'सखी' और 'इलाज' भी है । सखी में जहां एक लेखक के विवाहेतर प्रेम प्रसंग का किस्सा है तो इलाज में झोलाछाप ऐसे डॉक्टर का जिक्र है। एक किशोर जिसे कोई रोजगार नहीं मिला तो वह क्लिनिक खोलकर इलाज करने लगा । उसने यह इलाज भी अनजाने में सीखा है। सरकारी डॉक्टर से पूछ कर लिखे , बीमारियों के लक्षण, उनके इलाज के लिए प्रचलित दवाई , इंजेक्शन के नाम, नुस्खे और पशु चिकित्सालय में ढोर को फेंक कर लगाए जाने वाले इंजेक्शन में भी वह निष्णात हो चुका है। मनुष्य व पशुओं के (दोनों प्रकार के )डॉक्टरों से सीखे गए हुनर के साथ चिकित्सा आरंभ करने वाले डॉक्टर को कितनी दिक्कतें आती हैं ,इसका रोचक विवरण इस कहानी में है।
संग्रह का कुल आकार बड़ा नहीं है, लेकिन इसकी दो कहानियां बाकी कहानियों की तुलना में काफी लंबी हैं । ‘डेली एक्सप्रेस ‘ व “समय” कहानियों में किस्सागोई, दिलचस्पी, रोचकता सहज रूप से आगयी है जो लेखक का अपना विशिष्ट गुण है।
राज बोहरे की कहानियों में समाज में प्रचलित रीति-रिवाज, संस्कृति व लोकगीत सहज रूप से आते हैं । इस संग्रह की कहानियों में भी ऐसा ही है। रोजमर्रा के जीवन में टेलीविजन पर गूंजने वाले जिंगल और गीत यानी अपने संगीत व बोल से “समय” विशेष के संदर्भ में ले जाने वाले गीत राज बोहरे सहज रूप से प्रयोग करते हैं। कहानी भिड़ंत में जब कथानायक अध्यापक बच्चों से कहता है कि परसों उनके स्कूल की जांच पड़ताल करने डी ओ साहब आ रहे हैं तो बच्चे पुराना जिंगल गाते हुए घर लौटते हैं –
आज की छुट्टी कल इतवार
परसों आ रहे डिप्टी साहब
(पृष्ठ 31 )
कहानी '‘अपनी खातिर’ 'में कामदा को रात को नींद नहीं आ रही है। वह अपने छत पर टहल रही है कि दूर कहीं ढोलक से के साथ गा रही महिलाओं का गीत उसके कानों में गूंजता है-
बालापन की प्रीत सखी री बड़ी रंगीली होए
सखी री बड़ी रसीली होए ...
इस मार्मिक मधुर और दिल में मकाम करते गीत के साथ कामदा अपने विवाह की यादों के तहखाने में पहुंच आती है और उसे याद आता है अपनी शादी का मंडप। जब महिलाएं और कामदा की मां इंतजार कर रही थी कि जल्दी ही कांमदा के मामा भात लेकर आने वाले होंगे -
तुरतई आते हुए हैं भतईया
गाड़ी से आते हुए हैं भतईया
(पृष्ठ 105)
लेखक ने नए समाज और कस्बों की जिंदगी को बड़े गहरे से देखा है। वे कहानी 'इलाज' में उस कस्बे का जिक्र करते हैं, जिसमें विभाजन के बाद शरणार्थियों के ढाई सौ परिवार लाए गए हैं। सारा कस्बा शंकित है खासतौर पर व्यापारी।
इस कस्बे के बहाने राज बोहरे एक युग विशेष में होने वाले परिवर्तनों का बहुत शानदार विवरण देते हैं ।यह न केवल विभाजन के बाद की त्रासदी है, बल्कि यह हर उस नए विस्थापन की कथा थी जिसमें बाहर के लोग आकर अपना वजूद बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं –
कस्बा अजीब सी कशमकश में था। लोग एक दूसरे से पूछते थे । इतने लोगों के आने से कस्बे का जीवन तो प्रभावित नहीं हो जाएगा। जमे जमाए व्यापारियों को चिंता थी कि उनका धंधा तो चौपट नहीं कर देंगे यह लोग धंधे में उतर के। दर्जियों को लग रहा था कि इन की औरतें कपड़े सिलने की मजदूरी तो नहीं छीन लेंगी उनसे। लेकिन वे लोग जल्दी ही कस्बे की जिंदगी में शामिल हो गए थे सोसायटी का एक विशेष हिस्सा बन के। वे सब किराना, कपड़ा, मनिहारी सामान और जूतों के व्यापार में पूरी तैयारी से कूद पड़े थे और आसपास के कस्बों के बाजार पर छा गए थे ।(पृष्ठ 87 )
कर्मचारी वर्ग की असलियत लेखक भली प्रकार जानते हैं। वे लंबे “समय” तक शासकीय नौकरी में रहे हैं । उन्हें पता है कि सदा ही जब जब वेतनमान के लिए अथवा अन्याय के प्रतिकार के लिए हड़ताल या आंदोलन किया जाता है, तो ऊंचे पदों पर बैठे रहने वाले लोग कभी आगे नहीं आते। उनका साहस नहीं होता कि वे कोई हड़ताल या आंदोलन में भाग लें। यह साहस कर पाता है मजदूरों का वर्ग (यानी मजदूरों की तरह जीवन जीने वाला), सबसे छोटा कर्मचारी, अल्पवेतन भोगी कर्मचारी। बजाज साहब के अपमान का बदला लेने की तो कोई अधिकारी बात ही नहीं करता, सरकारी अधिकारियों के क्लब में उनकी हौसला अफजाई करके व उन्हें शहीद कहकर उनकी चोट पर मरहम तो लगाई जाती है पर खुला आंदोलन कोई नहीं करता।
बाहर गगनभेदी नारे थे
-बजाज साहब जिंदाबाद!
सहसा यकीन नहीं हुआ कानों पर। खिड़की से झांका तो पाया कि जिले के तमाम विभागों के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों का एक बड़ा सा हुजूम हाजिर है उनके ऊपर के सामने।
'साहब... बजाज साहब !' तहसील का माल जमादार तोरण सिंह उन्हें पूरे आदर से पुकार रहा था ।
क्वार्टर पर तैनात पुलिस का दारोगा उस समूह को नियंत्रित कर रहा था, जबकि वह लोग बजाज साहब से मिलने की गुजारिश कर रहे थे।
वे बाहर आ गए और उदास मुस्कान के साथ बोले, " क्यों तोरण क्या बात है? इन सब लोगों को क्यों इकट्ठा कर रखा है तुमने?"
"साहब, उन गुंडों ने आपकी नहीं हम सब कर्मचारियों की बेइज्जती की है! हम लोग आपके साथ हुए सलूक का बदला लेने जा रहे हैं ।"
बजाज साहब चुप खड़े ताक रहे थे तोरण कहे जा रहा था "उनकी करने का मजा चखा देंगे हम उन्हें। आप खुद का बनाया कोई कायदा नहीं पाल रहे थे ,सरकार के हुक्म का पालन कर रहे थे। हमने चूड़ियां नहीं पहनी है साहब ।उस दिन उनका “हल्ला” था आज हमारा “हल्ला” है।"
वह आगे बढ़ा और उनके पांव छू कर लौट गया।
वे लोग अपने आकाश भेदी नारों के साथ वापस जा रहे थे और हक्के बक्के खड़े बजाज साहब आंख में आंसू भरे उन सब की तनी भुजाएं देख रहे थे, जिनको रोज रोज बाबू और अफसरों से हजार झिड़कियां और लाखों ताने मिलते हैं।
दृश्य उनकी आंखों में उतर आए थे।( पृष्ठ 87)
इस कहानी में न केवल दृश्य बल्कि संवाद भी पाठक के मन में उतर जाते है और राज बोहरे के संवाद कौशल के लिए तारीफ़ निकल आती है। राज बोहरे ने अपनी कहानी '“समय” ' में अलग तरीके से “समय” को देखा है, अम्मा के मढ़ा में घुसकर नायक जब अपनी किसी कागज की तलाश में वहां रखे सामान को उलट ने पलटने लगता है तो उसके सामने सामान नहीं, उसके बहाने कुछ और निकलने लगता है ।अम्मा ने सामने रखी पोटलिया उठाकर एक तरफ रख कर कहा था कि-इनमें तुम सातों बच्चों की याद है मेरे पास, इसलिए इन्हें न छेड़ना।
अम्मा के जाने के बाद नायक ने ताका झांकी कर उन पोटलिया को देखा तो पाया कि हर एक पोटली उन भाई बहनों की यादों से भरी पड़ी थी, खिलौने, बचपन की किताबें, स्लेट बर्ती ,बचपन के कपड़े और भी जाने क्या क्या।
उसने सुना है कि पिछले कुछ दिनों से अम्मा खाली वक्त में इनमें से कोई पोटली खोलकर बच्चों के बचपन की यादों में भी विचरती रहती है।
पोटली क्या हर सामान में “समय” दफन था मढ़ा में। “समय” दफन था और सुरक्षित भी ।अपनी पूरी इयत्ता के साथ। मुझे हर चीज छूते हुए लगता था कि रुका हुआ “समय” अपने विस्तार को कंप्रेस्ड कर इन चीजों में घुस के धड़क धड़क रहा था। इस सामान में कितने रुप से “समय” सुरक्षित था । “समय” का कुछ हिस्सा तो मां को रुला देता होगा और कुछ गुदगुदा देता होगा। तभी तो अम्मा मढ़ा के तिलिस्मी संसार में अकेली बैठी रहती थी और जब कोई घुसपैठिया पाती थी तो तिलिस्म के दारोगा की तरह पूछताछ करती थी। मैं खोज कुछ और रहा था पर निकल कुछ और ही रहा था। (पृष्ठ 16 )
गांवों में एक अध्यापक के ऊपर का सरकारी अधिकारी न होते हुए भी गांव का पटेल अपनी तरह से हिकमत आजमाना चाहता है कहानी भिड़ंत में।
मुझे तबादले पर यहां आए आठ दिन ही हुए थे कि पटेल का हलवाहा उस दिन सुबह ही आ धमका -माट साहब पटेल दद्दा बुला रहे हैं ।
'क्या काम है?' मुझे अचरज हुआ।
'काम धाम तो हमें पता नहीं है तुम्हें तुरंत ही आगे की बात कही है।' दुष्टता पूर्वक मुस्कुराता हुआ हलवाहा बोला था।
'पटेल साहब से कहना मैं स्कूल जा रहा हूं काम हो तो मैं वहीं आ जाएं!'कहता हुआ मैं कोठी का दरवाजा लगाकर स्कूल चलता बना।
पटेल साहब को यह बात नागवार गुजरी थी। दोपहर को स्कूल के पास से गुजरते हुए भी रुक गए थे वह। मेरा पढ़ाना देखने लगे थे। छमाही परीक्षा नजदीक थी मैंने कल जो पाठ याद करने को दिया था सुन रहा था याद न करने वालों को दंडित भी कर रहा था-' राम राम! बच्चों को ऐसे ना मारो मास्टर साहब! बेचारे अबोध हैं यह तो!'
जबरदस्ती मेरे अध्यापन में टांग अड़ाता पटेल दिमान सिंह बोला था ।
'पटेल साहब मेरे पढ़ाने का अपना तरीका है आपस में दखल ना दें।' मैंने रोष व्यक्त किया।
'काम-धाम कछु नहीं है मास्टर साहब। हमारे छोटे लल्लू को सजा बजे पड़ा वे आ जाए करो पिछले मास्टर साहब बड़े भले आदमी थे रोजी ना आए जातते । फिर उत ई चाय वाय पियत ते।'
'पटेल साहब में सरकारी नौकर हूं और ट्यूशन बाजी का कतई विरोधी। इसलिए सॉरी मैं वहां नहीं आ सकूंगा। बच्चे को ही भेज दीजिए।'
'अरे ट्यूशन के लाने कौन कह रहा है बिना ट्यूशन के भी नहीं आ सकूंगा।'
कहता हुआ मैं बच्चों से मुखातिब हो गया था- हां चिंतामणि सुनाओ 9 का पहाड़ा।
(पृष्ठ 30 )
यह संवाद न केवल जीवंत है, बल्कि पाठकों के समक्ष दृश्य भी बनाते हैं । इन्हें पढ़कर पाठक कहानी के भीतर आहिस्ता से प्रवेश कर जाता है ।
राज बोहरे की इन कहानियों में बड़ी गहराई से महसूस होता है कि वे दर्शनशास्त्र के लंबे चौड़े विचार नहीं लिखते, बल्कि ऐसे किस्से और कहानियां लिखते हैं, जिनके भीतर संदेश और विचार गहरे तक पैबस्त होता है। वे कोई भी गहरे विचार और उपदेश न किसी पात्र से कहलाते और न कहानीकार के रूप में कथा में प्रवेश कर के पाठकों को प्रवचन सुनाते हैं, बल्कि वे तो किस्सा कहने की अपनी ड्यूटी निभाते हैं और चुप हो जाते हैं। पाठक कहानी को घोकता रह जाता है।
संग्रह की लगभग सभी कहानियों के चरित्र जितने बाहर से वाचाल देखते हैं उतने भीतर से बंद । वे द्वंद में गुम हुए नजर आते हैं । “हल्ला” के बजाज साहब बार-बार द्वंद्व में उतरते हैं । जब किसान अपमानजनक घटना करके चले जाते हैं , तब भी अपने सारे जीवन, अपनी गतिविधियों को न्याय की तराजू में डालने का प्रयास करते हैं और द्वंद में बार-बार डूबते हैं कि मैंने सही किया या गलत ? '“समय” ' कहानी का नायक खुद बार-बार द्वंद्व में रहता है, सामने दिखती पोटली, खिलौने ,फुलझड़ी, रोशनी, माचिस को देखकर वह न केवल मन के भीतर उतरता है बल्कि मन के भीतर यादों के संसार में भी वह बार-बार बंद का सामना करता है। जो एक सहेज मनुष्य की स्वाभाविक आदत होती है । 'सखी' में जब किशोर दा के बारे में नायक को “समय” “समय” पर ढेर सारी अजीब अजीब सूचनाएं मिलती हैं, तो नायक को समाज सुधारक किशोर दा द्वारा किसी लड़की को भगा ले जाने की खबरों पर सहसा विश्वास नहीं होता। नायक बार-बार द्वंद्व का शिकार होता है। इलाज का डॉक्टर फकीरचंद, हड़ताल जारी हैं के खलनायक गोपाल जी, ‘अपनी खातिर’ की कामदा सब जीते जागते विचारशील लोग हैं । जो हमेशा द्वंद्व में रहते हैं, हर घटना के अच्छे बुरे पक्षों पर न केवल विचार करते बल्कि गहरे तक चले जाते हैं और पाठक को लगता है कि वह इन चरित्रों के साथ कहानियों की गहराई में उतर रहा है। यह द्वंद्व लेखक की इन कहानियों की विश्वसनीयता को पुख्ता करता है।
अपने “समय” को और उसकी चिंताओं को स्वर देने में लेखक माहिर है।
“रिटायरमेंट” का ईमानदार चरित्र अग्रवाल वर्तमान “समय” का प्रतिनिधि चरित्र है, वह देख रहा है कि चारों ओर भ्रष्टाचार ने अपना कब्जा जमाया हुआ है, ऐसे में वह ईमानदार होने का संकल्प लेकर सब लोगों का दुश्मन बन जाता है। उसे अपने समकक्ष अधिकारी , बड़े अधिकारी और निचले अधिकारी शर्मिंदा करने लगते हैं, उसके हर काम में नुक्स निकालते हैं । इलाज कहानी वर्तमान भारतीय इलाज व्यवस्था पर एक बड़ा व्यंग है। आज जब सीमित मेडिकल कॉलेज से सीमित संख्या मे डॉक्टर निकल रहे हैं और जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, दूसरी तरफ बीमारियां दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही हैं। ऐसे में इलाज की समानांतर व्यवस्था इन्ही झोलाछाप डॉक्टरों के हाथ में हैं , इस बात को लेखक बिना किसी पक्ष विपक्ष को प्रकट किए लिख दिया है। जो यथार्थ होता है, लेखक कहानी में ज्यों का त्यों रख देता है ।
इन कहानियों के चरित्र हमारे आसपास बैठे बतियाते चलते-फिरते लोग हैं, इसलिए हर कहानी विश्वसनीय है।किसी कथा मे कोई कल्पित चरित्र नहीं दिखता है, “हल्ला” के बजाज साहब और उनके साथी केवल मुंह देखी सांत्वना देने वाले दूसरे अधिकारी, भिड़ंत के पटेल साहब, ‘डेली एक्सप्रेस ‘ के सारे दैनिक यात्री, “रिटायरमेंट” में अग्रवाल साहब के इर्द-गिर्द रहने वाले ब्यूरोक्रेसी और स्टाफ के साथी, इलाज के डॉक्टर, हड़ताल जारी है के राजनीतिज्ञ गोपाल बाबू और ‘मलंगी’ की कुतिया भी हमें काल्पनिक चरित्र नहीं लगते। यह सब वे जीवन्त चरित्र हैं, जिन्हें कहानी -किस्सों में जगह दी जानी चाहिए और राज बोहरे ने इन्हें अपने इस कथा संग्रह की कहानियों में पूरे अधिकार के साथ उनकी जगह प्रदान की है ।
कहानियों की सबसे बड़ी सफलता यह होती है कि उन्हें पढ़ते-पढ़ते पाठक काल खंडों या कल्पना किए गए दृश्यों में शामिल हो जाए। तभी ऐसे सृजन सफल होते हैं। इन सारी कहानियों में नए-नए दृश्य बनते हैं ,जिनसे पाठक खूब प्रभावित होते हैं । इस काम मे लेखक बहुत सफल सिद्ध हुए हैं ।”समय” के मढ़ा में उपस्थित नायक हो या “हल्ला” में बजाज साहब के अपमान से लेकर लघु वेतन कर्मचारी संघ के लोगों के आंदोलन का दृश्य हो, इलाज में फकीरचंद का क्लीनिक हो या दिल्ली एक्सप्रेस के दैनिक यात्रियों की बातें और ट्रेन के नजारे, अपनी रचना के माध्यम से पाठक को अपना उचित माहौल दर्शाने में लेखक बेहद सफल रहे हैं।
इन कहानियों के कुछ कमजोर पक्ष भी हैं । ‘“समय” ’ में जहां न तो एक पूरा दृश्य दिखाई देता है , वहीं कथा नायक और उस की मां के संघर्षमय जीवन की पूरी कथा पाठक के सामने कभी नहीं खुलती, तो ‘ “हल्ला” ’ के तहसीलदार का चरित्र अति विश्वसनीय होने के बाद भी भारत के परंपरागत समाज में पदीय रूप से खलनायक रहा तहसीलदार का पद आम आदमी की सहानुभूति नहीं प्राप्त कर पाता, यहां अगर कोई और चरित्र रखा जाता तो ज्यादा विश्वसनीय होता। ‘इलाज’ में चिकित्सा कर रहा झोला छाप डॉक्टर सहज रूप से लोकमानस में वैसा विश्वसनीय नहीं है, तो ‘मलंगी’ कहानी में एक कुतिया का लंगूर के साथ दोस्ताना प्रेम भी उतना विश्वसनीय नहीं लगता ।अनेक कहानियों के संवाद बड़े लंबे हो गए हैं । कहानी ‘‘भिड़न्त’ ’ का छोटा सा कर्मचारी एक अध्यापक भी गांव के सबसे बड़े नेता पटेल और अपने विभाग के जिले के सबसे बड़े अधिकारी जिला शिक्षा अधिकारी से भिड़ने को इस तरह तैयार होता है जैसे कोई अखाड़े का पहलवान किसी बराबर के विरोधी पहलवान को देखकर ताल ठोंकने लगा हो। यह भी कुछ अविश्वसनीय सा महसूस होता है ।
इन तमाम कमजोरियों के बाद भी राज बोहरे का संग्रह अपनी कई रोचक चरित्रों , कई कहानीयों में उठाए गए नए नए मुद्दों और हर एक कहानी के अलग-अलग सहज शिल्प की वजह से न केवल पठनीय बन पड़ा है, बल्कि हिंदी कहानी के शिल्प व भाषा में बिना खेल-खिलवाड़ और बिना किसी भाषाई चमत्कार तथा बिना किसी शिल्पगत सर्कस के ही सहज क़िस्सागोई के अन्दाज़ में कही गयी कथाओं का यह सँग्रह अपनी अलग जगह बनाने में कामयाब हुआ है।
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पुस्तक-”हल्ला” (कहानी संग्रह)
प्रकाशक-इंडिया नेटबुक्स प्रा लि नोयडा
लेखक-राजनारायण बोहरे
पृष्ठ-118
मूल्य-250₹
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समीक्षक-रामभरोसे मिश्रा
सम्पर्क-11,राधा विहार गली,स्टेडियम के पीछे, उनाव रोड, दतिया मप्र 475661
Mo 9406903435