Bhagwan ke Choubis Avtaro ki Katha - 13 in Hindi Spiritual Stories by Renu books and stories PDF | भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 13

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भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 13

श्रीयज्ञ अवतार की कथा 
श्रीस्वायम्भुव मनु की पुत्री आकृति, जो रुचि प्रजापति से ब्याही गयी थीं। उन रुचि प्रजापति ने आकूति के गर्भ से एक पुरुष और स्त्री का जोड़ा उत्पन्न किया। उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञ-स्वरूपधारी भगवान् विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह भगवान् से कभी भी अलग न रहने वाली लक्ष्मी जी की अंशरूपा ‘दक्षिणा’ थी। मनु जी अपनी पुत्री आकूति के उस परम् तेजस्वी पुत्र को बड़ी प्रसन्नता से अपने घर ले आये और दक्षिणा को रुचि प्रजापति ने अपने पास रखा। जब दक्षिणा विवाह के योग्य हुई तो उसने यज्ञभगवान्‌ को ही पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की। तब भगवान् यज्ञपुरुष ने उससे विवाह किया। इससे दक्षिणा को बड़ा सन्तोष हुआ। भगवान् यज्ञपुरुष ने दक्षिणा से सुयम नामक देवताओं को उत्पन्न किया और तीनों लोकों के बड़े-बड़े संकट दूर किये। वर्णन आया है— जब स्वायम्भुव मनु ने समस्त कामनाओं और भोगों से विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया और अपनी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने वन को चले गये और वन में जाकर सुनन्दा नदी के तट पर एक पैर से खड़े रहकर सौ वर्ष तक घोर तपस्या की। उस समय एक बार जब स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्त से भगवान्‌ की स्तुति कर रहे थे, तो भूखे असुर और राक्षस उन्हें नींद में अचेत होकर बड़बड़ाते जानकर खा डालने के लिये टूट पड़े। यह देखकर अन्तर्यामी भगवान् यज्ञपुरुष अपने पुत्र ‘याम' नामक देवताओं के साथ वहाँ आये, उन्होंने उन्हें खा डालने के निश्चय से आये असुरों का संहार कर डाला और फिर वे इन्द्र के पद पर प्रतिष्ठित होकर स्वर्ग का शासन करने लगे।

श्रीऋषभ-अवतार की कथा 
महाराज नाभि के कोई सन्तान नहीं थी, इसलिये उन्होंने अपनी पत्नी मेरुदेवी के सहित पुत्र की कामना से एकाग्रतापूर्वक भगवान् यज्ञपुरुष का यजन किया। भक्तवत्सल भगवान् उनके विशुद्ध भाव से सन्तुष्ट होकर यज्ञ में प्रकट हुए। सभी ने सिर झुकाकर अत्यन्त आदरपूर्वक प्रभु की पूजा की और ऋषियों ने उनकी स्तुतिकर यह वर माँगा कि हमारे यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तान को ही परम पुरुषार्थं मानकर आपके ही समान पुत्र पाने के लिये आपकी आराधना कर रहे हैं। आप इनके मनोरथ को पूर्ण करें। भगवान् बोले– मुनियो ! मेरे समान तो मैं ही हूँ; क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ। तो भी ब्राह्मणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है। इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से आग्नीध्रनन्दन नाभि के यहाँ आकर अवतार लूंगा; क्योंकि अपने-समान मुझे कोई और दिखायी नहीं देता। यह कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और यथा समय महाराज नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्ध सत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए। नाभिनन्दन के अंग जन्म से ही भगवान् विष्णु के वज्र-अंकुश आदि चिन्हों से युक्त थे। सभी श्रेष्ठ सद्गुणों से युक्त होने के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम ऋषभ (श्रेष्ठ) रखा। राजा नाभि ने यह देखा कि ऋषभदेव प्राणिमात्र को अत्यन्त प्रिय लगते हैं और राज्य कार्य सँभालने योग्य भी हो गये हैं, तब उन्होंने इन्हें धर्म मर्यादा की रक्षा के लिये राज्याभिषिक्त कर दिया और स्वयं पत्नी मेरुदेवी के सहित बदरिकाश्रम चले गये और वहाँ भगवान्‌ की आराधना करते हुए भगवत्स्वरूप में लीन हो गये।

भगवान् ऋषभदेव सर्वधर्मविज्ञाता होकर भी ब्राह्मणों की बतलायी हुई विधि से साम, दानादि नीति के अनुसार ही पुत्रवत् प्रजा का पालन करते थे। एक बार इन्द्र ने ईर्ष्यावश इनके राज्य में वर्षा नहीं की तो योगेश्वर भगवान् ऋषभ ने अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने वर्ष अजनाभखण्ड में खूब जल बरसाया। आपने लोगों को गृहस्थधर्म की शिक्षा देने के लिये देवराज इन्द्र की कन्या जयन्ती से विवाह किया और उसके गर्भ से अपने ही समान गुण वाले सौ पुत्र उत्पन्न किये।

भगवान् ऋषभदेव जी के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे और थे बड़े भगवद्भक्त। श्रीऋषभदेव जी ने पृथ्वी का पालन करने के लिये उन्हें राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियों को भक्ति, ज्ञान और वैराग्यरूप परमहंसोचित शिक्षा देने के लिये बिलकुल विरक्त हो गये।

निरन्तर परमानन्द का अनुभव करते हुए दिगम्बररूप से इतस्ततः भ्रमण करते हुए भगवान् ऋषभदेव का शरीर कुटकाचल के वनों में घूमते हुए प्रबल दावाग्नि की लाल-लाल लपटों में लीन हो गया।