Bhagwan ke Choubis Avtaro ki Katha - 4 in Hindi Mythological Stories by Renu books and stories PDF | भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 4

The Author
Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

भगवान्‌ के चौबीस अवतारों की कथा - 4

श्रीनृसिंह-अवतार की कथा
जब वराहभगवान्‌ ने हिरण्याक्ष का वध कर डाला था, तब उसकी माता दिति, उसकी पत्नी भानुमती, उसका भाई हिरण्यकशिपु और समस्त परिवार बड़ा दुखी था। दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपु ने सबको समझा-बुझाकर शान्त किया, परंतु स्वयं शान्त नहीं हुआ। हृदय में प्रतिशोध की ज्वाला धधकने लगी। फिर तो उसने निश्चय किया कि तपस्या करके ऐसी शक्ति प्राप्त की जाय कि त्रिलोकी का राज्य निष्कण्टक हो जाय और हम अमर हो जायँ। निश्चय कर लेने पर हिरण्यकशिपु ने मन्दराचल की घाटी में जाकर ऐसा घोर तप किया कि जिससे देवलोक भी तप्त हो गये। देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्माजी ने जाकर उससे अमरत्व छोड़कर अन्य कोई भी मनचाहा वर माँगने को कहा। उसने कहा कि मैं चाहता हूँ कि आपके बनाये हुए किसी प्राणी से मेरी मृत्यु न हो। भीतर-बाहर, दिनमें-रात में, आपके बनाये हुए प्राणियों के अतिरिक्त और भी किसी जीवसे, अस्त्र-शस्त्र से, पृथ्वी या आकाश में कहीं भी मेरी मृत्यु न हो। युद्ध में कोई भी मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियों का एकछत्र सम्राट् बनूं। इन्द्रादि समस्त लोकपालों में जैसी आपकी महिमा है, वैसी ही मेरी हो। तपस्वियों और योगियों, योगेश्वरों को जो अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी दीजिये। ब्रह्माजी ने ‘एवमस्तु’ कहकर उसके माँगे वर उसको दिये। वह अपनी चतुराई पर बड़ा ही प्रसन्न हुआ कि मैंने ब्रह्मा को भी ठग लिया। उनके न चाहने पर भी मैंने युक्ति से अमरत्व का वरदान ले ही लिया। यह जीव का स्वभाव है, वह अपनी चतुराई से चतुरानन की कौन कहे, भगवान्‌ को भी धोखा देनेका प्रयत्न करता है। वैसे ही हिरण्यकशिपु ने भी अपनी समझ से मृत्यु का दरवाजा बन्द ही कर लिया था, किंतु भगवान्‌ ने जब चाहा तो खोल ही लिया। वर प्राप्तकर उसने सम्पूर्ण दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नर, गन्धर्व, गरुड, सर्प, सिद्ध, चारण, विद्याधर, ऋषि, पितृगणों के अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचपति, भूत और प्रेतों के नायक तथा सम्पूर्ण जीवों के स्वामियों को जीतकर अपने वशीभूत कर लिया। इस प्रकार उस विश्वजित् असुर ने अपने पराक्रम से सम्पूर्ण लोकपालों के स्थान छीन लिये, स्वयं इन्द्रभवन में रहने लगा। उसने दैत्यों को आज्ञा दी कि आजकल ब्राह्मणों और क्षत्रियों की बहत बढती हो गयी है। जो लोग तपस्या, व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय और दानादि शुभ-कर्म कर रहे हैं, उन सबोंको मार डालो; क्योंकि विष्णु की जड़ है द्विजातियों का कर्म-धर्म और वही धर्म का परम आश्रय है। दैत्यों ने जाकर वैसा ही किया। परंतु जहाँ त्रैलोक्य में इस प्रकार धर्म का नाश किया जा रहा था, वहाँ हिरण्यकशिपु के पुत्रों में प्रह्लाद जी जन्म से ही भगवद्भक्त थे। पाँच वर्ष को अवस्था में वे अपने पिता को भगवद्भक्ति का पाठ सुना रहे थे। पुत्र को अपने शत्रु विष्णु का भक्त जानकर उसने यह निश्चय कर लिया कि यह अपना शत्रु है, जो पुत्ररूप से प्रकट हुआ है। अतः उसे मार डालने की आज्ञा दी, पर दैत्यों के सब प्रयोग व्यर्थ हुए। तब हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया। विषधर सर्पो से डॅसवाया, कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी कि प्रह्लाद को खा ले। पहाड़ों पर से नीचे गिरवाया। शंबरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग कराया। विष दिलाया। दहकती आग में प्रवेश कराया, समुद्र में डुबाया इत्यादि अनेक उपाय मार डालने के किये, पर उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ। गुरुपुत्रों की सलाह से वे वरुणपाश से बाँधकर रखे जाने लगे कि कहीं भाग न जायँ और गुरुपुत्र इन्हें अर्थ, धर्म और काम की शिक्षा देने लगे। छुट्टी के समय प्रह्लाद जी ने समवयस्क असुर-बालकों को भगवद्भक्ति का स्वरूप बताया, जिसे सुनकर सब सहपाठी असुर बालक भगवन्निष्ठ हो गये। यह देखकर पुरोहित ने जाकर सब हाल हिरण्यकशिपु से कहा। सुनते ही उसका शरीर क्रोध के मारे थर-थर काँपने लगा और उसने प्रह्लादजी को अपने हाथ से मार डालने का निश्चय किया। उन्हें बुलाकर बहुत डाँटा, झिड़का और पूछा कि तू किसके बल पर मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया करता है? प्रह्लादजी ने उसे सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ के स्वरूप का उपदेश दिया, वह क्रोध से भरकर बोला—देखें वह तेरा जगदीश्वर कहाँ है? अच्छा, क्या कहा—वह सर्वत्र है तो इस खम्भे में क्यों नहीं दीखता ? अच्छा, तुझे इस खम्भे में भी दीखता है। मैं अभी तेरा सिर अलग करता हूँ, देखता हूँ, तेरा वह हरि तेरी कैसे रक्षा करता है? वे मेरे सामने आयें तो सही। इत्यादि, कहते-कहते जब वह क्रोध को सँभाल न सका तब सिंहासन पर से खड्ग लिये कूद पड़ा और प्रह्लादजी के यह कहते ही कि हाँ, वह खम्भे में भी है, उसने बड़े जोर से खम्भे को एक घूसा मारा। उसी समय खम्भे से बड़ा भारी शब्द हुआ। चूंसा मारकर वह प्रह्लादजी को मारने के लिये झपटा था परंतु उस अपूर्व घोर शब्द को सुनकर वह घबड़ाकर देखने लगा कि शब्द करने वाला कौन? इतने में उसने खम्भे से निकले हुए एक अद्भुत प्राणी को देखा। वह सोचने लगा— अहो, यह न तो मनुष्य है न सिंह। फिर यह नृसिंहरूप में कौन अलौकिक जीव है! वह इस उधेड़-बुन में लगा ही हुआ था कि उसके बिल्कुल सामने नृसिंहभगवान् खड़े हो गये। भगवान् उससे बड़ी देरतक खेलवाड़ करते रहे, अन्त में सन्ध्या समय उन्होंने बड़े उच्च स्वर से प्रचण्ड भयंकर अट्टहास किया, जिससे उसकी आँखें बन्द हो गयीं। उसी समय झपटकर भगवान्‌ ने उसे पकड़कर राजसभा द्वार की ड्योढ़ी पर ले जाकर अपनी जंघाओं पर गिराकर अपने नखों से उसके पेट को चीरकर उसे मार डाला।