श्रीहरि-अवतार की कथा—
त्रिकूटाचल पर्वत पर जब ग्राह ने गज को पकड़ा था तब उसकी आर्तवाणी को सुनकर भगवान् श्रीहरि प्रगट हुए। इन्होंने ही ग्राह को मारकर गजेन्द्र की रक्षा की तथा लोगों के बड़े-बड़े संकट हरण करके 'श्रीहरि’ यह नाम चरितार्थ किया। कथा इस प्रकार से है—
क्षीरसागर में त्रिकूट नाम का एक प्रसिद्ध, सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। वह दस हजार योजन ऊँचा था। उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी। उस पर्वतराज त्रिकूट की तराईमें भगवान् वरुण का ऋतुराज नाम का उद्यान था, जिसके चारों ओर वृक्षों के झुण्ड शोभा दे रहे थे। वहीं एक विशाल सरोवर था। उस पर्वतके घोर—जंगलमें बहुत-सी हथिनियों के सहित एक गजेन्द्र निवास करता था। जो बड़े-बड़े शक्तिशाली हाथियों का सरदार था। एक दिन वह अपनी हथिनियों के साथ वनको रौंदता हुआ उसी पर्वत पर विचर रहा था। मदके कारण उसके नेत्र विह्वल हो रहे थे। बहुत कड़ी धूपके कारण वह व्याकुल हो गया। वह साथियोंसहित प्याससे सन्तप्त होकर जलकी खोजमें फिर रहा था कि उसे दूर ही से कमलके परागसे सुवासित वायुकी सुगन्ध मिली, जिसके सहारे वह उसी सरोवरपर पहुँचा और स्नानकर श्रम मिटाया, प्यास बुझायी, फिर उसमें गृहस्थोंकी भाँति क्रीड़ा करने लगा।
जिस समय वह इतना उन्मत्त हो रहा था, उसी समय एक बलवान् ग्राहने क्रोधमें भरकर उसका पैर पकड़ लिया। हाथी और हथिनियोंने शक्तिभर सहायता की, पर वे गजेन्द्रको बाहर निकालनेमें असमर्थ ही रहे। गजेन्द्र और ग्राह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे। कभी गजेन्द्र ग्राहको बाहर खींच लाता तो कभी ग्राह गजेन्द्रको भीतर खींच ले जाता। इस प्रकार एक हजार वर्ष बीत गये। अन्तमें गजेन्द्रका उत्साह, बल तथा शक्ति क्षीण हो गयी और ग्राहका बल, उत्साह और शक्ति बढ़ गयी। गजेन्द्रके प्राण संकटमें पड़ गये। वह अपनेको छुड़ानेमें सर्वथा असमर्थ हो गया। बहुत देरतक अपने छुटकारेके उपायपर विचार करता हुआ वह इस निर्णयपर पहुँचा—‘जब मेरे बराबरवाले हाथी भी मुझे न छुड़ा सके, तब ये बेचारी हथिनियाँ कब छुड़ा सकती हैं? ग्राहका मुझे ग्रस लेना विधाताकी फाँसी है। अतएव अब मैं सम्पूर्ण विश्वके एकमात्र आश्रय परब्रह्मकी शरण लेता हूँ, जो प्रचण्ड कालरूपी सर्पसे भयभीत प्राणियोंकी रक्षा करता है। तथा मृत्यु भी जिसके भयसे दौड़ती रहती है। यथा—
यः कश्चनेशो बलिनोऽन्तकोरगात् प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम्।
भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्भयान्मृत्युः प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥ (श्रीमद्भा० ८।२।२३)
ऐसा निश्चयकर उसने सँड़में एक सुन्दर कमलका पुष्प लेकर (जो उस सरोवरमें खिला हुआ था) सँड़को ऊपर उठाकर बड़े कष्टके साथ पुकारकर कहा—‘नारायण! जगद्गुरो ! भगवन्! आपको मेरा नमस्कार है। पुकारनेके साथ ही भगवान् गरुड़को छोड़कर तत्काल वहाँ पहुँचे और दोनोंको सरोवरसे निकालकर ग्राहका मुँह चक्रसे फाड़कर गजको छुड़ा दिया। भगवान्का स्पर्श होते ही गजेन्द्रके अज्ञानबन्धन कट गये और वह भगवान्की भाँति चतुर्भुजरूप हो गया, अर्थात् उसे सारूप्य मुक्ति प्राप्त हुई। भगवान् उसे अपना पार्षद बनाकर अपने साथ ही ले गये।
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श्रीहरि-अवतार की कथा—
त्रिकूटाचल पर्वत पर जब ग्राह ने गज को पकड़ा था तब उसकी आर्तवाणी को सुनकर भगवान् श्रीहरि प्रगट हुए। इन्होंने ही ग्राह को मारकर गजेन्द्र की रक्षा की तथा लोगों के बड़े-बड़े संकट हरण करके 'श्रीहरि’ यह नाम चरितार्थ किया। कथा इस प्रकार से है—
क्षीरसागर में त्रिकूट नाम का एक प्रसिद्ध, सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। वह दस हजार योजन ऊँचा था। उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी। उस पर्वतराज त्रिकूट की तराईमें भगवान् वरुण का ऋतुराज नाम का उद्यान था, जिसके चारों ओर वृक्षों के झुण्ड शोभा दे रहे थे। वहीं एक विशाल सरोवर था। उस पर्वतके घोर—जंगलमें बहुत-सी हथिनियों के सहित एक गजेन्द्र निवास करता था। जो बड़े-बड़े शक्तिशाली हाथियों का सरदार था। एक दिन वह अपनी हथिनियों के साथ वनको रौंदता हुआ उसी पर्वत पर विचर रहा था। मदके कारण उसके नेत्र विह्वल हो रहे थे। बहुत कड़ी धूपके कारण वह व्याकुल हो गया। वह साथियोंसहित प्याससे सन्तप्त होकर जलकी खोजमें फिर रहा था कि उसे दूर ही से कमलके परागसे सुवासित वायुकी सुगन्ध मिली, जिसके सहारे वह उसी सरोवरपर पहुँचा और स्नानकर श्रम मिटाया, प्यास बुझायी, फिर उसमें गृहस्थोंकी भाँति क्रीड़ा करने लगा।
जिस समय वह इतना उन्मत्त हो रहा था, उसी समय एक बलवान् ग्राहने क्रोधमें भरकर उसका पैर पकड़ लिया। हाथी और हथिनियोंने शक्तिभर सहायता की, पर वे गजेन्द्रको बाहर निकालनेमें असमर्थ ही रहे। गजेन्द्र और ग्राह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे। कभी गजेन्द्र ग्राहको बाहर खींच लाता तो कभी ग्राह गजेन्द्रको भीतर खींच ले जाता। इस प्रकार एक हजार वर्ष बीत गये। अन्तमें गजेन्द्रका उत्साह, बल तथा शक्ति क्षीण हो गयी और ग्राहका बल, उत्साह और शक्ति बढ़ गयी। गजेन्द्रके प्राण संकटमें पड़ गये। वह अपनेको छुड़ानेमें सर्वथा असमर्थ हो गया। बहुत देरतक अपने छुटकारेके उपायपर विचार करता हुआ वह इस निर्णयपर पहुँचा—‘जब मेरे बराबरवाले हाथी भी मुझे न छुड़ा सके, तब ये बेचारी हथिनियाँ कब छुड़ा सकती हैं? ग्राहका मुझे ग्रस लेना विधाताकी फाँसी है। अतएव अब मैं सम्पूर्ण विश्वके एकमात्र आश्रय परब्रह्मकी शरण लेता हूँ, जो प्रचण्ड कालरूपी सर्पसे भयभीत प्राणियोंकी रक्षा करता है। तथा मृत्यु भी जिसके भयसे दौड़ती रहती है। यथा—
यः कश्चनेशो बलिनोऽन्तकोरगात् प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम्।
भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्भयान्मृत्युः प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥ (श्रीमद्भा० ८।२।२३)
ऐसा निश्चयकर उसने सँड़में एक सुन्दर कमलका पुष्प लेकर (जो उस सरोवरमें खिला हुआ था) सँड़को ऊपर उठाकर बड़े कष्टके साथ पुकारकर कहा—‘नारायण! जगद्गुरो ! भगवन्! आपको मेरा नमस्कार है। पुकारनेके साथ ही भगवान् गरुड़को छोड़कर तत्काल वहाँ पहुँचे और दोनोंको सरोवरसे निकालकर ग्राहका मुँह चक्रसे फाड़कर गजको छुड़ा दिया। भगवान्का स्पर्श होते ही गजेन्द्रके अज्ञानबन्धन कट गये और वह भगवान्की भाँति चतुर्भुजरूप हो गया, अर्थात् उसे सारूप्य मुक्ति प्राप्त हुई। भगवान् उसे अपना पार्षद बनाकर अपने साथ ही ले गये।