शिवाजी महाराज का बचपन...
भाग 1
शिवाजी महाराज के दादा मालोजी सैनिक के रूप में अपना भाग्य आजमाने के उद्देश्य से अपने अन्य वंशजों की तरह (जो मुसलिम आक्रमण के दौरान उदयपुर छोड़कर भागे थे) अहमदनगर राज्य में एक सैनिक के रूप में काम करने लगे। अहमदनगर के हिंदू राजा ने मालोजी का भरपूर स्वागत किया। यहाँ तक कि उसने अपने राज्य के प्रमुख दरबारी की बहन से मालोजी का विवाह कर दिया। सन् 1594 में शिवाजी महाराज के पिता शाहजी का जन्म हुआ।
अहमदनगर राजदरबार में अनेक मराठा अधिकारी थे। उनमें लाखोजी नाम का एक धनी जमींदार था, जो नगर के हिंदू समुदाय का मुखिया था। हिंदू त्योहारों पर वह अपने विशाल घर और विस्तृत आँगन में बड़े पैमाने पर हिंदुओं को एकत्र करके त्योहार मनाता था। सन् 1599 की वसंत ऋतु के प्रसिद्ध त्योहार होली के दौरान हिंदू समुदाय उसके घर पर रंगों का उत्सव मना रहा था। रंग-बिरंगी पोशाकों में नर्तक पैरों में घूँघरू बाँधकर घोड़े के मुखौटे को सीने से लगाए नाच रहे थे। चारों ओर हँसी-खुशी और गाजे-बाजे के शोर में धरती की उर्वरता की शान में गीत गाकर लोग एक-दूसरे पर रंगों की बौछार कर रहे थे। इस पारंपरिक उत्सव की हँसी और ठिठोली देखकर आँगन की नक्काशी से सुसज्जित मेहराबों के पास बैठे छोटे बच्चे अपने माता-पिता की हँसी-ठिठोली देख-देखकर खुश हो रहे थे। इस अवसर पर लाखोजी की पाँच वर्षीय पुत्री जीजाबाई भी नाचनेवालों की भीड़ में शामिल हो गई और लोगों की नकल करके रंग फेंकने लगी। ऐसे में एक युवक शाहजी ने भी उसकी देखा-देखी रंग खेलना शुरू कर दिया और जीजाबाई के सफेद और हरे रंग के कपड़ों पर अपना रंग डाल दिया। इसके उत्तर में जीजाबाई ने भी शाहजी पर रंग फेंकना शुरू कर दिया। दोनों ने एक-दूसरे को रंगों से भिगो दिया और दोनों एक-दूसरे को देखकर हँसने लगे। उनकी चंचल आँखों में खुशी को देखकर लाखोजी के मुँह से निकल गया ‘कितनी सुंदर जोड़ी है!’ मालोजी एक महत्त्वाकांक्षी, किंतु सीधे-सादे व्यक्ति थे। उन्होंने लाखोजी के उद्गार को लेकर उपस्थित समुदाय का ध्यान आकृष्ट किया और लाखोजी के उद्गारों की व्याख्या को दोनों बच्चों के विवाह के वायदे के रूप में ले लिया। इस प्रकार के विवाह के वायदे का अर्थ तुरंत विवाह नहीं होता, बल्कि हिंदू प्रथा के अनुसार लड़का और लड़की के बड़े हो जाने के बाद ही विवाह की रस्म की जाती है या फिर यदि तुरंत विवाह हो भी जाता है तो दोनों फिलहाल अपने-अपने घर लौट जाते हैं और वयस्क हो जाने के बाद ही विवाह होता है। विवाह का ऐसा वायदा हिंदुओं में आमतौर पर प्रचलित है और यह भी सच है कि हिंदू रीति-रिवाज वायदों के पक्के माने जाते हैं। उनमें किसी प्रकार की छूट की गुंजाइश नहीं होती।
लाखोजी की गिनती अहमदनगर के एक विख्यात सम्मानित जमींदार के रूप में की जाती थी। अपने साधारण रूप से कहे गए उद्गारों को इस रूप में लिये जाने पर किंचित् क्रोध के साथ-साथ उन्हें व्याकुल भी कर दिया। उन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं था कि उनकी बेटी का एक साधारण सैनिक से विवाह के वायदे जैसी बात की चर्चा तक हो। उन्होंने इन सब बातों को मजाक में उड़ाने की कोशिश की, लेकिन मालोजी ने दूसरे ही दिन लाखोजी के पास इस प्रस्ताव की सहमति के लिए बाकायदा प्रार्थना भेज दी। लाखोजी ने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। लाखोजी के इस व्यवहार से मालोजी क्रोधित हो गए और इसे अपना अपमान समझकर उन्होंने लाखोजी को मल्लयुद्ध की चुनौती दे डाली।
अहमदनगर के राजा ने जब इस झगड़े के बारे में सुना तो वह चिंता में पड़ गया। वह न तो लाखोजी जैसे वफादार जमींदार को खोना चाहता था और न ही मालोजी जैसे कर्मठ योद्धा को नाराज करना चाहता था। उसने एक प्रबुद्ध राजा के कौशल से इस झगड़े को सुलझाने की कोशिश की। उसने मालोजी को पाँच हजार घोड़ों के शासन का सम्मान देकर एक नई जागीर दे दी। यद्यपि लाखोजी की संपदा के समक्ष मालोजी का रुतबा अब भी बराबरी का नहीं था, तथापि मालोजी हैसियत में अब काफी ऊँचे हो गए थे। ऐसी परिस्थिति में राजा के प्रभाव में आकर लाखोजी अंततः अपनी पुत्री के बाकायदा ‘वाग्दान के वायदे’ के लिए तैयार हो गया। उसके पाँच-छह वर्ष बाद उसकी पुत्री का विवाह शाहजी के साथ हो गया। लगभग चार पाँच वर्ष दोनों एक साथ रहते रहे। इस दरम्यान जीजाबाई ने पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम संभाजी रखा गया।
शाहजी अपने पिता की तरह अहमदनगर राज्य की सेवा में लग गए। सन् 1656 में अहमदनगर राज्य का पतन हो गया और शाहजी बीजापुर की सेना में भरती हो गए। उनके पिता को जो जागीर मिली हुई थी, नए शासक ने उसे भी मान लिया।
अब दक्षिण भारत के पाँच मुसलिम राज्यों में केवल गोलकुंडा और बीजापुर शेष रह गए। दोनों नाममात्र के लिए दिल्ली दरबार के अधीन थे। वास्तविक रूप में वे अपने को स्वतंत्र मानते थे। दिल्ली के शहंशाह शाहजहाँ ने अपने नाममात्र के साम्राज्य को वास्तविकता का जामा पहनाने के उद्देश्य से पहले तो पतन हुए अहमदनगर राज्य के अधिकांश इलाकों को आसानी से अपनी सल्तनत में मिला लिया, उसके बाद उसने दक्षिण में बीजापुर की ओर चढ़ाई शुरू कर दी।
शाही सेना के रास्ते में शाहजी की जमीन पड़ती थी, जो उनके पिता मालोजी को मिली थी। शाहजी ने पहले तो शाही फौज को रोकने की कोशिश की, किंतु बाद में वे टिक न सके और बीजापुर की ओर पलायन कर गए। अपने साथ वे अपने नवजात शिशु संभाजी को भी लेते गए और अपनी जमीन के साथ-साथ अपनी पत्नी जीजाबाई को, जो उस समय गर्भवती थी, वहीं छोड़ गए।
To be continued..