88
उत्सव तथा केशव व्याकुल थे, चिंतित थे, दुविधा में थे। गुल शांत, स्थिर तथा निर्लेप थी।
सूरज की प्रथम रश्मि ने अवनी को स्पर्श किया। दूसरी ने समुद्र को, तीसरी ने गुल को, चौथी ने केशव को , पाँचवीं ने उत्सव को स्पर्श किया। छठी ने तट को स्पर्श किया। धरती पर चेतना का संचार होने लगा।
गुल ने आँखें खोली, “केशव, तुम बांसुरी बजाओ।”
“मेरे पास बांसुरी नहीं है, गुल।”
“जाओ, मेरे कक्ष में एक बांसुरी है जो तुमने मुझे दो थी। स्मरण है ना तुम्हें?”
केशव बांसुरी लेने चला गया।
“मेरे लिए क्या आज्ञा है, गुल?”
“तुम नर्तन करो, उत्सव।”
“कैसा नर्तन, गुल?”
“जैसा कृष्ण ने गोपियों के साथ किया था। जैसा चैतन्य महाप्रभु ने किया था। जैसा प्रेमभिक्षुजी ने किया था। जैसा तुमने मथुरा में किया था।”
“हाँ, कर सकता हूँ।”
“जब केशव बांसुरी बजाए तब तुम नर्तन करना।”
“और तुम क्या करोगी, गुल?” उत्सव तथा केशव ने एक साथ पुछ लिया।
“मैं कीर्तन करूँगी, कृष्ण नाम का कीर्तन।”
केशव ने अपने ओष्ठों पर बांसुरी रखी। उसमें प्राण फूंके। निर्जीव वेणु जीवंत हो गई। सुमधुर सुर बोलने लगी बांसुरी। गुल कीर्तन करने लगी।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।
उत्सव के चरणों ने स्वयं ही नृत्य की शरण ले ली। वह नाचने लगा। समग्र विश्व का, स्वयं का विस्मरण कर नाचने लगा। इसी प्रकार गुल कीर्तन करने लगी, केशव वेणु बजाता रहा।
संगीत, नर्तन तथा कीर्तन के त्रिविध कर्म ने समुद्र के तट पर नए वृंदावन का सर्जन कर दिया। एक अलौकिक उत्सव को प्रकट कर दिया। समुद्र पर बहता समीर, समुद्र की लहरें, सूर्य के अयांश, महादेव की ध्वजा आदि सभी उस उत्सव में सम्मिलित हो गए।
द्वारका निवासियों ने समुद्र की दिशा से आ रहे नर्तन-कीर्तन-संगीत के त्रिविध ध्वनि को सुना। किसी अकथ्य आकर्षण से द्वारका निवासी समुद्र की तरफ़ जाने लगे। कुछ ही क्षणों में नगरजनों का समुद्र अरबी समुद्र के तट पर आ गया। सभी उस उत्सव का आनंद लेने लगे। कीर्तन करने लगे।
एक बालक उस उत्सव में जुड़ गया। नाचने लगा। उसे देख कुछ अन्य व्यक्ति भी नर्तन करने लगे। उन्हें देखकर और भी लोग जुड़ने लगे। देखते देखते सभी नगरजन उत्सव में जुड़ गए, कीर्तन करने लगे, नर्तन करने लगे।
समुद्र भी विशेष आनंद में नर्तन करने लगा। बांसुरी की ध्वनि से अपनी ध्वनि मिलाने लगा। लहरें नर्तन करने लगी। मनुष्य के इस समुद्र को भेंटने के हेतु से अरबी समुद्र की कुछ लहरें तट की सीमा तोड़कर उन्हें भिगोने लगी। उत्सव चलता रहा।
समय के किसी बिंदु पर सहसा संगीत एवं कीर्तन रुक गया। नाच रहे नगरजन रुक गए। सबने समुद्र की तरफ़ देखा।
एक विशाल दिव्य आकृति समुद्र के भीतर समा रही थी। उस आकृति ने अपने आलिंगन में गुल, केशव तथा उत्सव को ले लिया था। क्षण भर में वह आकृति उन तीनों को लेकर समुद्र में विलीन हो गई।
कोई नहीं जानता कि वह विशाल दिव्य आकृति के रूप में कौन था। कोई यह भी नहीं जानता कि समुद्र में विलीन होने के पश्चात गुल, केशव तथा उत्सव का क्या हुआ।
किंतु नगरजन तो कह रहे हैं कि वह आकृति के रूप में स्वयं समुद्र ने उन तीनों को अपने भीतर समा लिया है। तो कोई यह भी कह रहा है कि स्वयं भगवान कृष्ण आकर उन तीनों को लेकर गए और समुद्र में डूबी हुई सुवर्ण नगरी द्वारका में तीनों को स्थान दिया है और तीनों वहीं रह रहे हैं।
किंतु सत्य कोई नहीं जानता। मैं भी नहीं। हाँ, मैं भी नहीं।
मैं केवल इतना जानता हूँ कि उस दिन के पश्चात भड़केश्वर महादेव के मंदिर वाले समुद्र के तट पर प्रत्येक प्रभात में सूर्योदय के समय आज भी नर्तन, कीर्तन तथा बांसुरी की ध्वनि सुनाई देती है। कई भाग्यवान व्यक्तियों ने उसे सुना है, देखा है। कई भाग्यवान उस तट पर अनायास ही नृत्य भी करने लगते हैं।
आप पुछ रहे हो ना कि क्या मैंने देखा है? मैंने सुना है?
मेरा उत्तर है, “मैं इतना भाग्यवान कहाँ?। हाँ, कभी कभी मैं अनायास ही उस तट पर चला जाता हूँ और नर्तन करने लगता हूँ।”
****सम्पन्न***
जय श्री कृष्ण।