Dwaraavati - 87 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 87

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द्वारावती - 87

87

चंद्र ने अपनी स्थिति बदल ली । वह व्योम में कुछ अंतर आगे बढ़ गया । अब उसकी ज्योत्सना उत्सव तथा केशव को प्रकाशित कर रही थी जिनसे उनके मुख देदीप्यमान हो रहे थे। समग्र तट पर चंद्रिका व्याप्त थी। तट की रेत पर वह स्थिर थी। जैसे नितांत श्वेत चादर। वही चंद्रिका समुद्र की लहरों के साथ गतिमान थी, चंचल थी, उन्मुक्त थी। 
चाँदनी के दोनों भिन्न भिन्न रूप देखकर गुल के मन में कुछ मनसा जागी। वह शिला से उठी। चाँदनी से धवल हुए तट की रेत पर चलने लगी। उत्सव-केशव भी उसके साथ चलने लगे। बिना किसी प्रश्न के, बिना किसी संवाद के, बिना किसी संशय के वह गुल के साथ चलते रहे। 
चलते चलते गुल समुद्र की लहर के सम्मुख आकर रुकी। समुद्र में नर्तन कर रही चाँदनी को मनभर देखती रही। केशव तथा उत्सव ने भी वही किया। 
प्रत्येक लहर के साथ चाँदनी भी समुद्र से तट तक यात्रा करती थी। लहर के साथ ऊपर उठती थी। प्रत्येक लहर में चाँदनी इस प्रकार घुल जाती थी कि देखने वाले तीनों को चाँदनी तथा लहर में कोई भिन्नता दृश्यमान नहीं हो रही थी। जैसे चाँदनी के रंग से ही लहर का रंग बना हो ! यह कहना असम्भव था कि चाँदनी में लहर स्नान कर रही है या लहर में चाँदनी स्नान कर रही है। प्रकृति के इस समन्वय से लहर तथा चाँदनी एकरूप हो गए। 
लहरों के साथ दौड़कर तट पर आती चाँदनी लहरों के साथ पुन: समुद्र में विलीन हो जाती थी। लहर तथा चाँदनी की इस क्रीड़ा देखकर तीनों के मन अलौकिक अनुभूति का अनुभव कर रहे थे। 
अनेक लहरों की क्रीड़ा के पश्चात सहसा एक उद्धत लहर ने अपनी सीमा लांघ कर गुल के शरीर को स्पर्श कर लिया। उस स्पर्श ने गुल का समुद्र के साथ रचा तादात्म्य भंग कर दिया। उसने उस उद्धत लहर को देखा। समुद्र में विलीन होने के लिए वह लौट रही थी। गुल को उस लहर में किसी नटखट बालक के मुख पर होती है वैसी प्रसन्नता के दर्शन हुए। उसे बाल कृष्ण का स्मरण हो आया। गुल ने उत्सव, केशव को देखा। दोनों स्थिर नयनों से गुल को ही देख रहे थे। 
दोनों स्थिर थे, प्रतिमा की भाँति। गुल ने ऊपर देखा। चंद्र अस्त होने की अवस्था में था। उसकी चाँदनी मंद हो रही थी। एक अत्यंत सूक्ष्म प्रकाश पूर्व दिशा से अपने अस्तित्व को प्रकट कर रहा था। तमस तथा प्रकाश के मिश्रण का अनूठा क्षण था वह। प्रकाश तथा तमस के मध्य कोई संघर्ष नहीं, कोई द्वंद्व नहीं, कोई युद्ध नहीं। दोनों एक दूसरे को आलिंगन दे रहे थे। इस आलिंगन में दोनों एक दूसरे में इतने मिश्रित हो गए थे कि प्रकाश में तमस विलीन है या तमस में प्रकाश यह निश्चित करना कठिन हो गया। दोनों के मध्य भेद कर पाना सम्भव नहीं था। 
तमस् शासन समाप्त होने वाला था, प्रकाश का राज्योदय होने वाला था। सत्ता परिवर्तन, सत्ता हस्तांतरण की वह प्रक्रिया पूर्ण सहजता से हो रही थी। 
उस दृश्य को देखकर गुल, केशव तथा उत्सव के मन प्रसन्न होने लगे। इसी प्रसन्नता में गुल चल दी, जाकर उसी शिला पर बैठ गई जहां उसे गुरूपद देकर उत्सव तथा केशव ने बिठाया था। 
गुल के पीछे दोनों भी यंत्रवत शिला के समीप जाकर खड़े रह गए। 
“गुल, इस अंतराल के पश्चात, इस अनूठे अनुभव के पश्चात भी हमारे प्रश्न अनुत्तर ही रहे हैं।”
“हाँ, गुल।” उत्सव की बात का केशव ने समर्थन कर दिया। 
“ऐसा प्रतित होता है कि प्रकृति के इस रूप को देखकर पंडित गुल किसी अन्य अवस्था को प्राप्त कर चुकी है अतः हमारे प्रश्नों का उसे विस्मरण हो गया है, केशव।”
“तुम भी यही मान रहे हो ना, केशव जो अभी उत्सव ने कहा?” 
उत्सव ने मौन रहना ही उचित समझा। 
“नहीं उत्सव। मुझे विस्मरण नहीं हुआ है।”
“तो उत्तर क्यों नहीं दे रही हो?”
“कैसे देगी? उसके पास कोई उत्तर ही नहीं है।”
“अर्थात् मैंने यहाँ इतने दिनों तक रुककर व्यर्थ ही समय नष्ट किया।”
“यदि तुम्हें ऐसा प्रतीत हो रहा हो तो तुम हमें छोड़कर जा सकते हो, उत्सव।”
“चला तो जा सकता हूँ, गुल। किंतु मुझे उस बाबा के वचनों का स्मरण हो रहा है कि केवल पंडित गुल ही मेरी जिज्ञासा संतुष्ट कर सकती है, प्रश्नों के उत्तर दे सकती है। बाबा के वचनों को मिथ्या मानने का साहस नहीं है मुझ में।”
“बाबा? गुल? उत्सव? आप दोनों किस बाबा की बात कर रहे हो?”
“मैं प्रेमभिक्षु जी महाराज की बात कर रहा हूँ, केशव। क्या तुम उसे जानते हो?”
“क्यों नहीं? गुरुकुल के मेरे निवास काल में मैं उनसे अनेक बार भेंट कर चुका हूँ। तुम उनसे कब, कहाँ मिल चुके हो, उत्सव?”
“केशव,मैं उनसे तीन बार मिल चुका हूँ। उन्होंने मुझे कहा था कि मेरे प्रश्नों के उत्तर पंडित गुल देगी और तुम देख रहे हो ना कि गुल क्या कर रही है। बाबा के वचनों को मिथ्या कर रही है।”
“गुल, यदि यह सत्य है तो तुम्हें उत्तर देने ही होंगे। उत्सव इसी कारण यहाँ आया है, आकर रुका हुआ है।”
कुछ क्षण सभी मौन हो गए। गुल के प्रतिभाव की प्रतीक्षा दोनों करने लगे। गुल ने अपना समय लिया। आँखों में स्मित के साथ बोली, “मैं कैसे उत्तर दूँ? मैं दे ही नहीं सकती इन प्रश्नों के उत्तर।”
“क्यों?” दोनों ने एक साथ पूछा।
“क्यों कि इन प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं होते हैं।”
“ऐसा कैसे हो सकता है, गुल? केशव, तुम ही कहो कि कोई प्रश्न बिना उत्तर के होता है क्या?”
“विज्ञान की मानें तो प्रकृति सर्व प्रथम उत्तर को जन्म देती है, तत् पश्चात मनुष्यों के मन में प्रश्न का सर्जन करती है। बिना समाधान दिए, प्रकृति किसी भी संशय को जन्म नहीं देती। यह बात को स्वयं गुल भी स्वीकार करेगी। हैं ना गुल?”
“हाँ, मैं स्वीकार करती हूँ। किंतु यह सत्य सीमित रूप से सत्य है।”
“तो असीमित सत्य क्या है, गुल?”
“किसी भी प्रश्न के या तो कोई उत्तर नहीं होते या अनेक उत्तर होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने दृष्टिकोण से भिन्न भिन्न उत्तर खोज लेता है। उसे ही अंतिम एवं एक मात्र सत्य मान लेता है। 
जब हम किसी प्रश्न का एक उत्तर खोज लेते हैं तब उसी उत्तर में से कई नए प्रश्न जन्म ले लेते हैं। उन नए प्रश्नों के उत्तर खोजने लग जाते हैं। जो हमें किसी अन्य प्रश्नों- उत्तरों की माया में डाल देते हैं। प्रश्न तथा उत्तर के इस चक्र में पड़कर मनुष्य अपने लक्ष्य से भटक जाता है, जैसे तुम भटक रहे हो, उत्सव।”
“मैं तुम्हारे पास आकर भटक गया हूँ?”
“प्रतीत तो यही हो रहा है, उत्सव।”
“कैसे?”
“तुम्हें स्मरण है, तुम्हारा लक्ष्य क्या था? क्या है?”
“मैं कृष्ण को पाना चाहता था, चाहता हूँ।”
“यदि यही लक्ष्य है तो तुम्हें क्या अंतर पडता है कि कृष्ण महायोद्धा थे या रणछोड़? मनुष्य थे या महामानव? या ईश्वर? 
महाभारत के युद्ध में कृष्ण क्या कर रहे थे वह जान लेने से कृष्ण प्राप्ति में कितनी सहायता होगी? युद्ध के लिए कृष्ण उत्तरदायी हो अथवा ना हो। योगेश्वर कृष्ण हो या साधारण मृत्यु को स्वीकार करनेवाला कृष्ण हो। 
ऐसी अन्य सभी बातों को जानने से तुम्हारे कृष्ण प्राप्ति के लक्ष्य तक जा रहे मार्ग में कितना लाभ होगा?”
“मैं नहीं जानता।”
“तो क्यों इन प्रश्नों का भार उठा रहे हो? क्यों उसे पकड़े रखा है? तुम नहीं जानते किंतु सत्य यह है की यह प्रश्न तुम्हारे लक्ष्य के मार्ग की बाधा बने हुए हैं। तुमने इन बाधाओं को ना केवल आमंत्रण दिया है, अपितु तुमने उसे आलिंगन भी दे रखा है। ऐस आलिंगन जो छूटते नहीं छूट रहा तुमसे। इस प्रकार तुम कभी कृष्ण को नहीं पा सकोगे। तुम उससे मुक्त क्यों नहीं हो जाते हो?”
“मुझे तो बस अल्प ज्ञान प्राप्त करना था इसी कारण मैं …।”
“हाँ, गुल। उत्सव उचित तो कह रहा है।”
“उत्सव, ज्ञान का होना आवश्यक है। ज्ञान, अल्पज्ञान, अतिज्ञान, अज्ञान, अनुचित ज्ञान, तथा अर्धज्ञान आदि के अंतर को समझने का विवेक होना आवश्यक है। ज्ञान की सीमा से परे भक्ति होती है। ईश्वर का साक्षात्कार भक्ति से होता है, ज्ञान से नहीं।”
“किंतु, गुल। मेरे प्रश्नों के उत्तर अनेक साधु, संत एवं ज्ञानियों ने दिए हैं। उनका क्या?”
“वह सभी ज्ञानी हैं, भक्त नहीं। उन सभी ने प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए हैं, केवल उत्तर देने की चेष्टा मात्र की है।”
“ऐसा कैसे हो सकता है, गुल? मैं भी जानने को उत्सुक हूँ।”
“केशव, तुम भी सुनो। उत्सव, क्या उन सभी उत्तरों में से कोई भी उत्तर पूर्ण था? स्पष्ट था? अंतिम था?”
“यदि ऐसा होता तो मैं यहाँ तक आता ही क्यों?”
“इसका अर्थ यही हुआ कि वह सभी उत्तर अपूर्ण थे। तो उन लोगों ने उत्सव को उत्तर देने की चेष्टा क्यों की होगी, गुल?”
“जिन के उत्तर नहीं होते हैं उनके भी उत्तर देना व्यर्थ चेष्टा नहीं है तो क्या है? सभी ने अपनी अपनी मति अनुसार कुछ ना कुछ उत्तर दिए हैं। जब कोई ऐसी चेष्टा करता है तब वास्तव में वह स्वयं को ज्ञानी सिद्ध करने की चेष्टा ही करता है। हमें ऐसी चेष्टाओं से बचना चाहिए।
“तो अब मुझे क्या करना चाहिए, गुल? तुमने मुझे विकट दुविधा में डाल दिया है।”
“गुल, उत्सव को दुविधा में तुमने डाला है, मार्ग भी तुम्हें ही दिखाना होगा। है ना उत्सव?”
“मार्ग भी मिलेगा।” कुछ क्षण सब कुछ विस्मरण कर, आँखें बंद कर गुल विचारने लगी।
समुद्र की ध्वनि मंद हो गई थी। पूर्वाकाश में सत्ता परिवर्तन होने पर प्रकाश का शासन हो गया था। सूर्य के आगमन में कुछ ही क्षण शेष रह गए थे।