रात जो कभी खत्म नहीं होती – भाग 3
खेल के नए नियम
कमरे में अब भी पिछली रात की गूंज थी—बिखरी चादरें, सिगरेट का ठंडा पड़ चुका धुआं, और हवा में तैरता एक अधूरा सवाल—क्या यह सिर्फ एक खेल है?
सान्या के कदमों की आहट कॉरिडोर में गूंज रही थी, लेकिन इस बार उसका दिल भी अजीब सी बेचैनी से भरा था। क्या वो सच में खुद को इस खेल से अलग कर सकती थी? या फिर आयुष की तरह उसे भी यह खेल ज़रूरत से ज्यादा पसंद आ गया था?
अनसुलझे एहसास
अगली रात...
सान्या आईने के सामने खड़ी थी, बालों को कसकर बांधते हुए उसने खुद को देखा। उसके होंठों पर हल्की मुस्कान थी, लेकिन उसकी आँखों में सवाल थे।
फोन स्क्रीन पर आयुष का नाम चमक रहा था।
कुछ सेकंड तक घूरने के बाद उसने कॉल उठाई।
आयुष: “मतलब, तुझे आने में इतना वक्त लग रहा है?”
सान्या: "शायद मैं सोच रही थी कि आज की रात तेरी होगी या मेरी..."
आयुष (हंसते हुए): "तेरा यह सोचने का तरीका ही मुझे और पागल करता है। जल्दी आ।"
सान्या: "और अगर मैं न आऊँ?"
फोन के दूसरी तरफ कुछ सेकंड का सन्नाटा था। फिर आयुष की धीमी मगर ठहरी हुई आवाज़ आई—
"तो मैं आ जाऊँगा। और इस बार, मैं तुझे कहीं जाने नहीं दूँगा।"
पुराने दायरे, नई सीमाएँ
रात के 2 बजे।
दरवाज़ा खुला, और आयुष अंदर आया। उसकी आँखों में वही वहशी चमक थी, लेकिन इस बार कुछ और भी था—एक सवाल, एक उलझन।
सान्या बालकनी में खड़ी थी, हाथ में वही रेड वाइन का गिलास।
आयुष ने दरवाज़ा बंद किया, धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा, और उसके ठीक पीछे खड़ा हो गया।
उसने कोई सवाल नहीं किया, कोई आदेश नहीं दिया। बस, उसकी गर्दन के पास झुका और गहरी साँस ली।
"आज कुछ बदला-बदला सा लग रहा है..."
सान्या मुस्कुराई, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया।
"तू सच में मुझसे दूर जाना चाहती है?"
अब सान्या ने उसकी आँखों में देखा।
"अगर मैं चाहूं भी, तो क्या तू जाने देगा?"
आयुष ने कोई जवाब नहीं दिया, बस अपना हाथ उसके कमर पर रख दिया। सान्या की साँसें धीमी हो गईं।
खेल के बदले हुए दांव
"तेरे इस खामोश जुनून से ज्यादा खतरनाक कुछ नहीं है, आयुष," उसने फुसफुसाकर कहा।
आयुष मुस्कुराया। "और तेरा ये बार-बार मुझे काबू करने का खेल... तू सोचती है कि तू मुझे काबू कर सकती है?"
"हो सकता है, शायद मैं कर चुकी हूँ।"
बस, इतना सुनना था कि आयुष ने उसे अपनी ओर खींच लिया। उनकी साँसें आपस में उलझ गईं, लेकिन इस बार कुछ अलग था।
इस बार सिर्फ एक रात का नशा नहीं था—इस बार एक सवाल था। "अब आगे क्या?"
आयुष ने उसे बिस्तर की ओर धकेला, लेकिन सान्या ने खुद को रोक लिया।
"नहीं।"
आयुष ठहर गया। "मतलब?"
सान्या उसकी आँखों में देखते हुए मुस्कुराई। "आज खेल मैं खेलूंगी, तेरे नियमों पर नहीं, अपने नियमों पर।"
नियंत्रण की जंग
"तेरा इतना कॉन्फिडेंस देख कर मज़ा आ रहा है," आयुष ने कहा। "लेकिन तू सच में सोचती है कि मुझे कंट्रोल कर सकती है?"
सान्या ने धीरे से उसकी शर्ट के कॉलर को पकड़कर खींचा और फुसफुसाई—"आज की रात सिर्फ मेरी है, और आज के बाद तू इस खेल को खेलना चाहेगा भी, तो मेरे इशारे पर खेलेगा।"
आयुष ने हल्की हंसी ली। "ओह? तो दिखा, तेरा तरीका क्या है?"
और फिर, इस बार आयुष ने खुद को उसके हवाले कर दिया।
सुबह की बेचैनी
सवेरा होने तक दोनों बिस्तर पर लेटे थे—थके हुए, उलझे हुए, लेकिन अब पहले जैसे नहीं।
इस बार सबकुछ अलग था।
आयुष ने करवट ली और उसके चेहरे को देखा। "आज की रात कुछ अलग थी।"
सान्या ने हल्की मुस्कान के साथ आँखें खोलीं।
"क्यों? तुझे डर लग रहा है कि तू अब इस खेल में अकेला नहीं रहा?"
आयुष चुप रहा। यह पहली बार था कि उसने खुद को कमजोर महसूस किया था—या शायद, पूरी तरह बेबस।
"अब तू क्या करेगा?" सान्या ने धीरे से पूछा।
आयुष ने गहरी साँस ली। "शायद पहली बार... मुझे नहीं पता।"
सान्या उठी, शर्ट पहनने लगी।
"अब तू कहाँ जा रही है?"
"कहीं नहीं। पर शायद अब मैं तुझे ये सोचने के लिए अकेला छोड़ दूँ कि तुझे अब क्या चाहिए।"
"मतलब?"
सान्या उसके करीब आई, उसकी गर्दन पर हल्की उंगलियाँ फिराईं, और धीरे से फुसफुसाई—
"अगर तू सोचता था कि मैं इस खेल की बस एक प्यादे थी, तो अब शायद तुझे एहसास हो कि मैं इस खेल की शतरंज खुद हूँ।"
आयुष ने गहरी साँस ली।
"अब आगे क्या?"
सान्या ने हल्का सा हंसा। "अब मैं तय करूंगी कि ये खेल कब खत्म होगा।"
वो दरवाज़े की तरफ बढ़ी, लेकिन इस बार आयुष ने उसे नहीं रोका।
कमरे में अभी भी सिगरेट के धुएँ की हल्की खुशबू थी, और पर्दों के पीछे से आती सुबह की हल्की रोशनी माहौल को और धुंधला कर रही थी।
लेकिन इस बार, यह सिर्फ एक खेल नहीं था।
यह कुछ और बन चुका था।
(जारी रहेगा...