keemat in Hindi Short Stories by Sandeep Tomar books and stories PDF | कीमत

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कीमत

 प्रशांत ने सुबह का अखबार खोला ही था कि उसकी निगाह एक खबर पर पड़ी। साहित्य के अति विशिष्ट सरकारी संस्थान ने साहित्यिक पुरस्कारों की घोषणा की। वह पुरस्कृत नामों पर सरसरी निगाह गड़ाता चला गया, एक नाम पर उसकी निगाह टिक गयी। मनप्रीत भट्टाचार्य का नाम देखकर वह चौंक गया। मनप्रीत उसे अपनी चलताऊ कहानियां और एकांकी भेजा करती थी। वह आवश्यक सुझाव देकर संशोधन करने की सलाह दे दिया करता। तीन-चार ड्राफ्ट के बाद ही वह रचनाएँ पत्रिकाओं में भेजने के लिए हरी झंडी देता था। प्रशांत को समझ आ चुका था कि मनप्रीत साहित्य में बिना बैशाखियों का सहारा लिए कुछ नहीं कर पाएगी, उसके लेखन में न धार है, न पैनापन। वाक्य-विन्यास जितना शिथिल होता है, संवाद भी उतने ही लचर।

मनप्रीत उसकी बारहवीं कक्षा में सहपाठिन थी, विज्ञान संकाय का होने के चलते, बस हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य की घंटियाँ ही एक साथ होती थी, प्रशांत कीट्स और जॉन मिल्टन पर बातचीत करता तो मनप्रीत कहती, “तुमको साहित्यकार बनना है क्या जो इतना गहन चिंतन करते हो?”, तब वह कहता,” मैं तो चाहता हूँ- तुमको एक दिन ज्ञानपीठ मिले।“

प्रशांत ने बारहवी के बाद बीएससी करते हुए सिविल सर्विस में जाने का मन बनाया, उधर मनप्रीत ने बीए में दाखिला लिया। इस बीच उनकी आपस में कोई बातचीत नहीं हुई। प्रशांत आईएएस बना तो मनप्रीत की बीए फाइनल में शादी हो गयी। वह पूर्णतः गृहस्थ महिला में बदल चुकी थी। प्रशांत और वह पुनः दस-बारह साल बाद सोशल मीडिया पर मिले थे। प्रशांत की पहचान एक प्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में हो चुकी थी, मनप्रीत को अपने पुराने दोस्त की प्रसिद्धि पर फक्र अनुभव हुआ। उससे प्रेरित होकर ही मनप्रीत ने लिखना शुरू किया, उसे प्रशांत की बात का स्मरण हुआ- मैं तो चाहता हूँ- तुमको एक दिन ज्ञानपीठ मिले।

आज अखबार की खबर पढ़ प्रशांत ने मनप्रीत के मोबाइल कॉल लगाया- “बधाई हो, तुमको भाषा संवर्धन के लिए पुरस्कृत किया गया है।“

सुनकर कुछ देर तो मौन रही, फिर बहुत मधुर वाणी में बोली, "प्रशांत! तुम मेरे साहित्यिक सफ़र के गवाह हो, तुमसे क्या कुछ छिपाना? डब्बू अंकल के नाम से प्रसिद्ध लेखक तुम्हें याद है? एक बार उनसे मैं रचनाएँ दिखाने की गरज से मिली। डब्बू अंकल को मेरी रचनाओं से भी ज्यादा मैं पसंद आई। उनकी नजरें इनायत हुई तो रचनाओं में निखार आता चला गया। इसके बाद तो मामूली सी फीस वसूल वह मुझे मंच और पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम दिलाता रहा। कुछ समय तक डब्बू अंकल के साथ अच्छा साहित्यिक सफर बीता, फिर एक दिन एक बड़ी संस्था के अध्यक्ष ने मेरी रचनाओं पर संज्ञान लिया। मैंने आलिंगनबद्ध हो उनका आभार व्यक्त किया, उन्होंने गदगद हो आभार को प्रत्युत किया।“

“सुन्दर और शानदार साहित्यिक सफ़र है तुम्हारा।“ प्रशांत ने कहा।

मनप्रीत आगे बोली, "बस, मैंने बस उसी दिन सोच लिया कि जब संस्थाओं पर इतने विराट ह्रदय महानुभाव काबिज हैं तो ऐसे आलिंगनों की कीमत पूरी क्यों न वसूल की जाए, सिर्फ पत्र-पत्रिकाओं, दैनिक कॉलम और रचनात्मक आसरे के लिए ही क्यों? बस यही सोचकर थोड़े से पंख और फैलाये। तुम्हीं बताओ प्रशांत, क्या तुम्हारी तरह सिर्फ लिक्खाड़ बनी रहती?”

 उसने सीधे प्रशांत पर, उसके लेखकीय कद पर ही सवाल दाग दिया।

प्रशांत के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।