लवणा एक छोटी बरसाती नदी है। उन्नाव के पास ऊसर से निकाली, खजुरगाँव से कुछ दूर गंगा में मिली है। उपनिषदों की तरह सैकड़ों नाले इससे आकर मिले हैं। बरसात की शोभा देखते ही बनती है। बस्ती और उत्सरों का तमाम पानी इससे होकर गंगा में जाता है। पहले इसके तटों पर नमक बनता था। लवणा इसका गुद्ध नाम है, यों इसे लीना कहते हैं। इसके सम्बन्ध में एक दन्त-कथा भी प्रचलित है, पर वह केवल कपोल कल्पित है। वर्तमान युग के मनुष्यों को मालूम होना चाहिए कि गंगा की उत्पतति में जैसे इसमें भगीरथ-प्रयत्न न रहने पर भी, खेत काटती हुई, पुत्रों को देखकर भगी, लज्जिता, नग्न् लोना चमारिन के गंगा-गर्भ में चिराश्रय लेने की पद-रेखारूप बनी यह नदी वैसी ही आख्या, रखती है, यदि बरसाती नदी न होकर बारहमासी होती, ती सायद भगीरथ के रथ के पीछे जैसे, लोना चमारिन के पीछे भी लज्जारकलंक-क्षालनार्थ प्रबल वेग से जलधारा बहती होती। इस समय इस प्रान्त की आबादी बहुत बढ़ गई है, फिर भी कहीं-कहीं लगणा के तट काफी भयावने, हिरन, भेड़िये और जंगली सूअर आदि के अड्डे ही रहे हैं। तब, जब कान्परकुन्ज का दोपहर का प्रताप-सूर्य पूर्ण स्नेह की दृष्टि से अपनी पृथ्वी को देख रहा था, इसके तट इतर वृक्षों तथा झाडियों से पूर्ण, अन्धकार से बैंके रहते थे। स्थानीय राजकुमार तथा चीर क्षत्रियों का यह प्रिय मृगयास्थल था।
लवणा उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर प्रवाहित है। इसके प्राय पाँच सी वर्ग मील फैले दोनों ओर के छोरों के भीतर भारतीय संस्कृति तथा उदार प्राचीन शिक्षा के अमृतोपम पप को धारण करनेवाले कान्यकुब्ज सभ्यंता के युगल सरोज झलक रहे हैं। दाहिने-दक्षिण ओर, शुभ्र स्वच्छतोषा जाहवी, मध्यभाग में लवणा, अपने जीवन-प्रचाह को पूर्ण करती हुई, उत्तार-बार्थी ओर मन्दगामिनी सई।
आज इसी भाग का नाम बैसवाड़ा है। इस समय बैस राजाओं तथा ताल्लुकेदारों की छोटी-छोटी रियासतें यहाँ से अवध तक दूर-दूर फैली हुई हैं, और कई जिलों में भाषा-साम्य भी प्राप्त होता है, फिर भी बैसों की मुख्यल राजधांमी यही उल्लिखित पवित्र कान्यूकुब्ज भूमि है। आज आमों के विशालकाय उपवन एक-दूसरे से सटे कोसों तक फैलते चले गए हैं। यदि इस विस्तृत भूखंड को शतयोजनायत एक रम्प कानन कहें, ती अत्युक्ति नहीं होगी। उपवन तथा जनाकीर्ण जनपद मुसलमानों के राज्य काल में भी समृद्ध थे. देखने पर मालूम हो जाता है। गंगा की उपजाऊ तट-भूमि, धौत धवल, मन्द्र-तुल्य मन्दिर, कारूकार्य खचित द्वार, दिव्य भवन, देववाणी तथा देवसरि का आर्य भावानुसर सहयोग, खुली गोचरभूमि, सुख-स्पर्श, मन्द मन्द पवन-प्रवाह, अनिन्द्य हिन्दी के मंजे कंठ से निकले ग्राम-गीत किसी भी दर्शक भ्रमणकारी को तत्काल मुग्ध कर लेंगे। पर उस समय जब कि आर्य-संस्कृति का पावन प्रकाश यहाँ के निरभ्र आकाश में फैला था, यहाँ की और ही शोभा थी। कमल की सुगन्ध की तरह लोकोत्तर माधुर्य का यह विकास, वह भी अपने आधार को छोड़कर इतनी दूर तक चली गई थी कि उसकी वर्णना नहीं हो सकती। आज वह उपभोग्य नहीं, किसी तरह अनुभव-गम्य है।
वाल्मीकि की सीता, कालिदास की शकुन्तला, श्री हर्ष की दमयन्ती पति गृह को अपनी दिव्य ज्योति से आलोकित कर रही थी, बल्कि बाहर से होनेवाले आक्रमणों ने इन भारतीय महिलाओं, विशेषकर क्षत्रिय कुमारियों को आत्म-रक्षा के लिए सजग कर एक-दूसरे ही भाव-रूप में बदल जाने को बाध्य कर दिया था। क्षत्रिया-वीरांगनाएँ अश्वारोहण और शस्त्र प्रयोग में भी पटुल्य प्राप्त कर रही थीं। एक ओर मुख की ओर मुख की जैसी स्निग्ध से चन्द्राभा सौन्दर्य के अपार समुद्र को ज्वार से उच्छ्वसित कर रही थी, दूसरी ओर अविचल अपांगों की दृप्त द्युति में पति-प्रेम की वैसी ही कठोरतम तपस्या आत्म-रक्षा के उज्ज्वल गर्व से बिरजाग्रत थी। क्षत्रियों के औद्धत्प के साथ-साथ वामादर्प भी देश के बल के उपमान के रूप से मस्तक उठाए हुए था। बौद्धों का प्राबल्य बरत्काल की क्षुद्र जल धारा की तरह भारत की धरा से लुप्त हो चला था। पौराणिक सभ्यता की प्रबल शाखाएँ उज्जयिनी के वासन्तिक विकास से पल्लवित होती हुई अब कुसुमित तथा फलित हो रही थी। इस समय कान्यकुब्जेश्वर भारत के श्रेष्ठ शक्तिधर, कला और कौशल के सर्वोत्तम आधार स्तम्भ थे, पर महाराज पृथ्वीराज की लोकप्रियता प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, गोराधिपति मुहम्मद कई बार परास्त हो चुका था, अपने उदार क्षात्रधर्म के अनुसार जीवनाकांक्षी को कई बार वे प्राणों का दान दे चुके थे। निकट सम्बना, अप्राप्त राज्याधिकार तथा पिथौरा की बढ़ती हुई शक्ति जैसे राजनीतिक अनेक कारणों से हुआ दिल्लीपति तथा कान्यकुब्जेश का वैमनस्य् प्रजावर्ग को बहुत दिनों से ज्ञात था। उल्लिखित यह समस्त कान्यकुब्मभूमि महाराज जयचन्द्र के शासनाधिकार में थी।
इस समय लालगढ़ा पूर्ण यौवन में ओत-प्रोत, सौन्दिर्य का उद्दाम वासनाओं से चपल हो रहा है। यहाँ के राजा महेन्द्रपाल कान्यकुब्जेश को स्वल्पमात्र कर तथा युद्ध के समय पाँच हजार सेना से सहायता देनेवाले मित्र हैं।
लालगढ़ चारों ओर से जल से भरी चौड़ी खाई से घिरा हुआ है। खाई में विहार के लिए छोटी छोटी रंगीन, मयूर-पारावत, हंसादि सुन्दर-सुन्दर पक्षियों के आकार बनी सजी चमकती हुई किश्तियाँ पड़ी हैं। वसन्त से निकलते हुए श्वेत और लाल कमल बीच का गहरा जल छोड़कर दोनों और, शरत के अन्त तक खिलते और दिक्कुमारियों की आँखों को शीतल और केशों को सुवासित करते रहते हैं। जल के भीतर की ओर किनारे के ईंटों की मजबूत चारदीवार उठी हुई है जिस पर तीक्ष्ण शस्त्रास्त्र गड़े हुए, सूर्य की किरणों में लपलपाते रहते हैं। चारदीवार के बीच-बीच, छोटे-छोटे बड़ी खिड़कियों के तौर पर बने वज्रदार हैं जिनसे रानियों स्नान तथा जल- बिहार के लिए बाहर निकलती हैं। सामने ईटों के बने, जल में उतरने के सुदुद्ध सोपान, विस्तृत घाट, दोनों और मौलसिरी के छायादार विशाल वृक्ष। चारों दिशाओं में अत्युच्य चार फाटक, आठों पहर सशस्त्र सिपाहियों का पहरा लगा हुआ। बाहर जाने के लिए पुष्ट काष्ट के बने चार रास्त, जल से बनकर आए हुए ईंटों के पुल से मिले हुए इच्छा नुसार खोले जा सकनेवाले, जिससे किला जल से घिरा सुरक्षित रहे। भीतर गगनचुम्बी भवन, रम, घोड़े और अस्त्रशस्त्रादि की अलग-अलग शालाएँ, दरबार, रनवास, सेना-निवास आदि। अगरू, चन्दन और कस्तूरी की उठती हुई सुगन्थे। देवार्चना तथा मनोरंजन के उधान। जल के हौज। प्रतिगृह की भिन्न-भिन्न निर्माण-कला। भारतीय शिल्प और उज्ज्वल कौशल का पह कमला निवास नील जलराशि के भीतर आकारा के चन्द्र की तरह शोभित है। उत्तर के फाटक के बाहर साधारण जनों की असाधारण अपूर्व नगरी अपनी अनुपम विभूति से आगन्तुकों को मुक्त करती हुई। दुर्ग के फाटकों से दूर प्रान्तरों के पार उपवनों की छाया रेखा।
राजकुमार देव सज्जित घोड़े पर सवार, हाथ में भाला लिए, ढाल-तलवार और तरकस-कमान बाँचे अकेले पूर्व के फाटक से बाहर निकले। प्रकृति की दृष्टि में नया बसन्त फूट चुका है। बन्प वासन्ती, हरी साड़ी पहने निप की अपलक प्रतीक्षा कर रही है। कोई मालिनी उसकी लतामित कवरी में फूल खोंसकर गले में हार पहना चुकी है। कुमार पूर्व की ओर घोड़ा बढ़ाते, प्रकृति की नई सज्जा देखते हुए चले जा रहे है। मालूम न हुआ और घोड़ा आठ कोस भूमि पार कर लवणा के वन में आ पहुँचा। कुमार घोड़ा बढ़ाते हुए लवणा को पार कर गए। यहाँ से दूसरे राज्य की भूमि है। पर प्रकृति की शोभा देखते हुए तन्मय, नवीन यौवन स्वप्न में भूले राजकुमार को यह न मालूम हुआ कि वे शिकार के लिए आए हुए हैं। इसी समय सामने से एक शब्द आता हुआ सुनाई पड़ा। उसी तरफ घोड़ा बढ़ाते गए। जब घटना स्थल कुछ दूर पर रह गया तब संघटित दृश्य देखकर आचार्यचकित हो गए
घोड़े की लगाम डाल से बंधी हुई है, राजवेश से सज्जित एक युवक सुअर का शिकार कर भाला निकाल रहा है। भाला कनपटी से गर्दन को पार कर निकल गया है। निस्पन्द पशु शायद मर चुका है। युवक भाला निकाल रहा है। फलक बड़ा होने के कारण भाला निकल नहीं रहा।
ऐसी अवस्था में स्वभावतः कुमार के हृदय में कौतूहल हुआ। घोड़ा बढ़ाकर युवक के पास पहुंचे, कुछ पहचाना, पर भ्रम हुआ कि गलत न पहचाना हो; इसलिए सचन वृक्षों का अँधेरा पारकर निश्चय कर लेने के विचार से और अच्छी तरह देखने लगे। यह शिकारी को आत्म-सम्मान के खिलाफ जान पड़ा।
"क्या देखते हो?" डॉटकर पूछा।
गले के स्वर से कुमार का रहा भ्रम जाता रहा। बोले, "मुझे संशय था, इसलिए आपका निक्रय करने लगा। क्षमा कीजिएगा।
"अब तो आपका संशय दूर हो गया?" शिकारी ने पूछा, "आपका परिचय?" शिकारी भाला निकालना छोड़कर शौर्य से तनकर आगन्तुक को देखने लगा।
"मेरा स्थातन लालगढ़ है, नाम देवा शायद इतना परिचय पचेष्ट होगा।" राजकुमार ने मुस्कुराती आँखे झुका
"तो आपका यहाँ कैसे आना हुआ? यह आपका राज्य नहीं। इस जंगल में शिकार के लिए आना एक दूसरे राजकुमार के लिए अपमानजनक हो सकता है।"
उत्तर तीखा था, पर राजकुमार विचलित न हुए। उन्होंने उसी तरह आँखे झुकाए सरल भाव से कहा, "आपका कहना ठीक है, पर भ्रम ती मनुष्य से ही होता है। नया वेश बदले हुए प्रकृति को देखता हुआ मैं कुछ मुग्ध-सा हो गया। अपने और पराए इलाके का ज्ञान नहीं रहा। घोड़ा अपनी चाल बढ़ाता हुआ नदी पार कर के इधर आ गया। एक शब्द हो रहा था, जिसे सुनकर कौतूहलवश में यहाँ चला आया, क्षमा कीजिएगा। शिकार करते और भाता निकालते आपको बड़ा श्रम पड़ा है. मुझे अभी कुछ भी मिहनत नहीं पड़ी। आप आज्ञा दें, तो आपका भाला निकालकर अनधिकार प्रवेश का प्रायश्चित कर डालू)"
"आप तो बड़े वाक्पटु मालूम देते हैं।" शिकारी ने कहा, "अच्छा, आप मेरा भाला निकालिए तो सही।"
पैरों से मृत सूअर को दरबार राजकुमार भाला निकात्तने लगे। पहला जोर खाली गया। शिकारी की हंसी से निर्जन वन भूमि गूजें उठी। लज्जित होकर राजकुमार ने दुसरा जोर लगाया। पहले जोर के बक्त राजकुमार की दृष्टि शिकार की आँखो से लिपटी हुई थी सारा बल जैसे उन्हीं में प्रवेश करता जा रहा था वे देख रहे थे
एक दूसरी वसन्त-रश्मि उन आँखों में फूट रही है। प्राणों का प्रतिपत्र उसके पात से भिन्न-भिन्न रंगों से चमकता जा रहा है। यह जिस दृष्टि की रश्मि है, उसके साकार तत्त्व में केवल देह को पल्लवित करनेवाला वसन्त ही नहीं, श्रम का ताप ग्रीष्म, मस्तक पर कुंडलाधित बँधे विपुल केशों के बादल नीचे ललाट पर श्रम -कष्ण- वर्षा के जल-बिन्दु, मुख पर नवजीवन से स्नात शारद अमन्द धुति, अंगों में चौवनांग का पुष्टि हेमन्त, व्यवहार में रूक्ष शिशिर-धनुष तीर आदि की निष्पत्र डालों का पतझड़, सभी ऋतुओं की शोभा वर्तमान हैं। कैसी आँखें! संपत आयत कैसी अचल दृष्टि समस्ती विश्व के दर्प को जैसे दबाकर वश कर रही है। पृथ्वी के हरे तरंगित वृक्षों की सब्ज जल राशि के भीतर यह कमला-सी खुली स्वरूपा कुमारी, अकृत अज्ञात भी कैसे मौन इंगित से, प्रतिक्षण आमन्त्रण दे रही है। नयनों की मौन महिमा में भी असंख्य गहरे अर्थ छिपे हुए हैं। बिना शब्द के, सौन्दर्य की कैसी कर्मबेधिनी व्याख्या है। कोमल पद, पीनोरू दीर्घ मध्य को धारण किए, क्षीण कटि समुञ्जत विशाल वक्ष-वर्म को भेदकर पुष्ट मांसलता स्पष्ट होती हुई, लम्बित भुजाएँ, कपोत ग्रीवा, पश्मत रहस्यमयी बढ़ी-बड़ी तिर्यक आँखे, चितवन बहुत दूर आकाश की ज्योत्स्ना की तरह किसी के तृषित हृदय- चकोर के लिए उतर रही है। यह वीरवेश इस विजयिनी छवि के रक्षक की तरह।
पहले सुन्दषर आँखों से दृष्टि बंध जाने के कारण, जऔर खाली गया था-मन और इन्द्रिय दूसरे के अर्थ को छोड़कर स्वा में लगे थे-आँखे और कल्पना अन्यत्र होने के कारण कार्य शक्ति शून्य रूप रह गई थी हाथ फिसल गया था। इस बार कुमार ने पुरा जोर लगाया। इतनी शक्ति उन्होंने कभी खर्च नहीं की। इतनी शक्ति उन्हें कभी मिली भी नहीं। मालूम न हुआ कि यह भाता निकालने की शक्ति इच्छानुसार आत्मा से कैसे निकालते गए। चर्र-चर्र करती शरीर को चीरती हुई भाले की उल्टी नोकै बाहर निकल आई। राजकुमार की आँखों में अंधेरा छा गया। एकाएक जोर ज्यादा लग जाने से ताव आ गया। भाले के सहारे जरा देर ठहर गए, बड़े धैर्य से उभरी हुई कमजोरी को दबाया, फिर अपरिचिता कुमारी की ओर बढ़े। अभिप्राय समझकर कुछ कदम कुमारी आगे बढ़ आई और बढ़ाया हुआ भाला हाथ बढ़ाकर बाम लिया। धन्यवाद देने की इच्छा की, पर मुख से शब्द न निकला। गले में अज्ञात कहीं की जड़ता जैसे आकर लिपट गई। झुकी पलकें भाला लिए खड़ी रहीं, जैसे राजकुमार के शौर्य की स्वयं पुरस्कृत प्रतिमा हो। खून से रंगे विशाल भाले के नीचे झुकी आपत आँखों को वसन्त की खुली पहली दृष्टि से राजकुमार देर तक देखते रहे।
कुमार की प्रिय मुग्धन दृष्टि से कुमारी के हृदय में विजय का गर्व चपल हो उठा। पर संयम की शक्ति से उसे अपनी ही सीमा में उसने बाँध रखा, केवल आँखो की ताराओं से उल्लास की ज्योति विच्छुरित होने लगी। यही राजकुमार को होश में लाने की वजह हुई। संभलकर नम्रतापूर्वक कुमार ने पूछा, "आपका परिचय मुझे अभी नहीं मालूम हो सका।"
संयमित मधुर चपल उत्तर मिला, "मैं यादव राज-कन्या हूँ, मुझे प्रभावती कहते हैं।"
प्रसन्नमता के पलके झुकाए राजकुमार ने दूसरी आज्ञा माँगी। हँसती देखती हुई प्रभा बोली, "मुझे शिकार उठानेवाले आदमियों के लिए पास के गाँव तक जाना होगा। अगर आप मैं आपकी सहायता करूँगी हम दोनों रस्सी से बाँधकर इसे घोड़े पर रख लें। फिर आप प्रभा रूक गई।
राजकुमार ने अनुकूलता की। उत्तर इस प्रकार शब्दों में बँधकर निकला, "आप अकेली है। मुमकिन, धोड़े पर शिकार ले जाते आपको कष्ट हो। में बाँधकर इसे अपने घोड़े पर रख लेता हूँ। आपको किले के पास तक छोड़कर लौट आऊँगा।"
"बड़ी कृपा होगी।" नम्र प्रभावती कहकर मुस्कुराती रही।
राजकुमार ने सूअर को आपनी रस्सी से बांधा। फिर अकेले उसे अपने घोड़े पर उठाकर रख लिया। संभालकर जीन के कड़ों से बाँध, प्रभा को सवार होने के लिए कह कर, बैठ गए। प्रभा अपने धोड़े पर बैठ गई।
दोनों दलमऊ दुर्ग की ओर चलें। दिन का तीसरा पहर पार हो रहा था, वन से निकलकर राह पर आते-आते एक भिक्षुक मिला। राजकुमार को राजपुरूष समझकर दीन दृष्टि से देखते हुए क्षीण स्वर से प्रार्थना की। राजकुमार ने उँगली से अंगूठी निकालकर दे दी।
देखती हुई प्रभावती अपनी मोतियों की एक माला उतारकर भिक्षुक से बोली, "बाबा, इसे लो; बदले में अंगूठी हमें दे दो।"
वीरवेश से सजी कुमारी को खुली प्रसन्नता की दृष्टि से देखते हुए बहुत कुछ मतलब समढ़ाकर -जैसे, भिक्षुक ने अंगूठी दे दी और नम्र भाव से मोतियों की यह चमकती हुई माला ले ली। प्रभा घोड़े की लगाम फेर राजकुमार की तरफा पौठ कर दोनों हाथों अंगूठी ले-लेकर मुग्धी दृष्टि से देखती रही। फिर बीच की उंगली में डालकर मुस्कुराती हुई देखने लगी उसमें राजकुमार का नाम लिखा था।
जिस समय प्रभा अपनी सुखोद्भावना में लीन थी, राजकुमार ने भिक्षुक को उँगली के इशारे से पास बुलाया और अपनी एक माला उतारकर देते हुए, इशारे से वह माला माँगी। भिक्षुक ने राजकुमार से माला लेकर प्रभावतीवाली दे दी और भरे आशीर्वाद से दोनों को देखता हुआ चला गया। जब प्रभा अपने प्रथम सुहाग के आनन्द से भरकर राजकुमार की तरफ मुड़ी, तब राजकुमार उसकी माला पहन रहे थे। उसे समझते देर न लगी। हृदय की गुदगुदी को दबाकर, जैसे कुछ नहीं समझी, राजकुमार को घोड़ा बढ़ाने के लिए कहा।
इंगित पा प्रभा का घोड़ा राजकुमार के घोड़े से सटकर चलने लगा। दोनों सवार एक अपूर्व आवेश में हैं, आँखों में अनुभूत एक सुख-स्पर्श नशा छाया हुआ है, जिससे सन्या अपार श्री धारण किए प्रतीत हो रही है, जैसे सौन्दर्य के स्वर्गलोक के दो प्रणयी प्राणी बंधे चले जा रहे हैं। दोनों मौन हैं। कुछ बोलकर विषय की गभ्भीरता को नष्ट करने की किसी की इच्छा नहीं। कभी-कभी एक दूसरे की जाँघ रगढ़ जाती है। पुलकित हो दोनों एक ही परिचय से एक-दूसरे को देख लेते हैं।
घोड़े धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। सूर्यास्त होने को हो गया। सामने मचना नाला आ पड़ा। "कुमार," प्रभा ने आग्रह की दृष्टि से देखते हुए कहा, 'यहाँ कुछ देर विश्राम कर लें, कैसी सुखद सन्या हैं। प्रभा की इच्छा जानकर कुमार घोड़े से उत्तर पड़े। सुअर को उतारकर जमीन पर रख दिया, फिर कमर से फेटा खोलकर प्रभा के लिए बिछा दिया। लज्जित प्रभा कुमार का हाथ पकड़ बैठालकर मुस्कुराती, अपने फेटे से हवा झलने लगी। कुमार ने हाथ पकड़ लिया, "मुझे गरमी नहीं मालूम दे रही।"
"पर हवा तो जाड़े में भी चलती है, आप किसी का धर्म रोक दीजिएगा? अवश्य इस समय जाड़ा नहीं।"
"हवा दूसरे कारण से बहती है। उससे हवा को बहते हुए कष्टा नहीं होता। पर यहाँ वह बहाई जा रही है। इससे हवा को न हो, पर जिससे वह वाहित है, उसे तो कह हो सकता है?"
"नहीं। ठूलाने वाली को भी कोई डुला रहा होगा, जैसे हवा के बहने का आपने कारण बतलाया।"
कुमार चुप हो गए। प्रभा व्यजन करती रही। कुछ सोचकर कुमार बोले, 'पर मुझे इसी वक्त लौटना होगा। तुम्हारे दुर्ग में तो मैं जा नहीं सकता?"
"क्या मेरे दुर्ग से तुम निकल भी सकते हो? कुमार, पिताजी के दुर्ग में तुम पहले के वैमनस्य के कारण न जाओं, मैं आग्रह न करूँगी, पर वहाँ नहीं, पहीं से, तुम मेरे अतिधि हो, मैं जिस तरह तुम्हें रखूँगी, तुम्हें स्वीकार करते हुए आपत्ति न होनी चाहिए।"
राजकुमार ने प्रभा का व्यंजन रोक दिया और स्वस्थ हो लेने के लिए बैठने को कहा। वसन्त के सान्ध्य क्षण, एकान्त प्रान्तर में परिचय के प्रकाश में स्पष्ट एक-दूसरे को देखते हुए मौन, देर तक बैठे रहे।