सत्रह
दिन गुजरते गये। आखेट महल प्रोजेक्ट का काम दिन दूनी, रात चौगुनी रफ्तार से परवान चढ़ता रहा। वहाँ देखते-देखते बंजर और वीरान जमीन हरियाली और खूबसूरती में बदलने लगी थी।
शंभूसिंह ने काफी दिनों की छुट्टी के बाद वाटरवर्क्स के अपने ऑफिस में आना शुरू कर दिया था। इतने दिनों के बाद अपने दफ्तर में लौटने के बाद शंभूसिंह को जब पता चला कि हर चीज जहाँ की तहाँ है और गौरांबर के बारे में कोई अफरा-तफरी नहीं है तो उन्हें भला-सा ही लगा था।
गौरांबर अब भी उन्हीं के गाँव में था। वे स्वयं पन्द्रह-बीस किलोमीटर साइकिल चलाकर रोजाना दफ्तर आते थे, मगर गौरांबर पहले की भाँति उनके घर की चहारदीवारी में ही था। वह आसपास के गली-मोहल्लों में भी कभी-कभार निकलने लगा था।
शंभूसिंह जी के साथ मन्दिर के प्राण-प्रतिष्ठा महोत्सव के समय वह एक बार और उस शहर में हो आया था, जहाँ एक बूढ़े पुजारी से उसका पहले भी मिलना हुआ था। गौरांबर दो बार की यात्राओं और इनके दौरान शंभूसिंह, वृद्ध संन्यासी व उस मन्दिर के महंत जी की आपसी बातचीत से ही काफी कुछ समझ चुका था। उसके समक्ष एक स्पष्ट पार्श्व उभर चुका था। उसे शंभूसिंह के स्वभाव, उनके क्रियाकलापों के बारे में भी सारी जानकारी मिल चुकी थी और वह उनके साथ किसी विश्वसनीय सहयोगी ही नहीं, बल्कि उनके बेटे के विकल्प के तौर पर रह रहा था। शंभूसिंह ने गौरांबर को खुलकर कभी कुछ न बताया था, किन्तु मन-ही-मन गौरांबर उनके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो रहा था। शंभूसिंह की पत्नी रेशम देवी का दिल और विश्वास भी गौरांबर जीत चुका था। दोपहर में कभी-कभी घर पर रेशम देवी और गौरांबर के बीच काफी बातचीत होती थी और गौरांबर देख चुका था कि पुराने जमाने के राजपरिवार से जुड़ी उस औरत को आज की सियासत की भी खासी समझ थी। गौरांबर भी यह सारे दाँव-पेच अब समझने लगा था और इतना ही नहीं, इन सारे मुद्दों पर वह अपनी राय भी देने या रखने लगा था।
शंभूसिंह के बेटे अभिमन्यु के साथ जो कुछ भी हुआ था, उसकी शुरुआत केवल इतनी-सी बात से हुई थी कि आधुनिक रियासत के सत्ताघर के हर कक्ष में कई-कई परदे होने चाहिये। ताकि वक्त-जरूरत बहुत सारे भेस भी बदले जा सकें और बहुत सारे सियाह, सफेद भी किये जा सकें। और शायद इसीलिये अपने सगे भतीजे अभिमन्यु को वह रावसाहब अपने दाहिने हाथ के रूप में हर समय अपने साथ रखने में कतराते थे और उससे एक कामकाजी दूरी और लिहाज बनाये रखना चाहते थे। अभिमन्यु उनकी इस कोशिश और उदासीनता को उनके प्रति अविश्वास के रूप में लेता था। आखिर वह भी गर्म खून वाला महत्त्वाकांक्षी युवक था। वह तुरन्त इन बातों पर प्रतिक्रियात्मक भी हो उठता था और इसी नादान-सी क्रियाविधि में वह रावसाहब से दूर होता चला गया और उनके दरबारियों की आँख की किरकिरी बनता चला गया। शंभूसिंह का वात्सल्य और ममता दुनियावी ऊँच-नीच उसे ठीक से नहीं समझा पाये और स्थितियाँ दिन-पर-दिन बिगड़ती चली गयीं। और वही नन्हीं-सी फाँस पहले जख्म और कालांतर में नासूर बनी। और फिर बन गयी शंभूसिंह का एक मटमैला अतीत।
और इसी गंदले अँधेरे को तिरोहित करके उजाले की लकीर से काले अँधेरे का वध करने के ख्वाब शंभूसिंह देखा करते थे और गौरांबर को दिनोंदिन अपने आपको उस मानसिक स्थिति में ढालने के लिए तैयार होना पड़ रहा था, जो जिबह से पूर्व कसाई के द्वार पर बँधे किसी बकरे की होती है। कभी-कभी तो गौरांबर को यह भी महसूस होने लगता कि उसे किसी नरबलि के लिए तैयार किया जा रहा है। उसे किसी ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया था वक्त ने, जहाँ उसके लिए परमार्थ सोचने का ही धर्म था। और धर्म के नाम पर उसे शंभूसिंह के इशारे का इंतजार था।
गौरांबर ने शंभूसिंह के साथ की गयी यात्रा के दौरान मन्दिर में उनके व बूढ़े संन्यासी के जो बहस-मुबाहिसे सुने-समझे थे; उसके कई उद्धरण व दलीलें उसके अन्तर में घर कर गये थे। बूढ़ा कहता था, ''किसी वेश्या के मोहल्ले से कोई साधु गुजरता है तो भय साधु को होना चाहिये। लेकिन यहाँ उलटा हो रहा है। साली राजनीति चीख रही है कि धर्म से बचाओ-बचाओ। हाँ, उसे भी तो अपने धन्धे की फिकर हो रही होगी।''
''लेकिन सवाल यह भी तो है कि साधु वेश्या की गली से जाना क्यों चाहता है? आखिर धर्म को पड़ी क्या है कि वो राजनीति में कूदे। धर्म-धर्म है, उसका काम है मानव जाति मात्र का कल्याण। उसका काम है मानवता की रक्षा।''
''राजनीति का क्या काम है? क्या मानव कल्याण की कोई जिम्मेदारी राजनीति के पास नहीं है?''
''है, परन्तु राजनीति की सीमाएँ हैं। राजनीति एक खास समुदाय, एक राज्य या एक राष्ट्र के लिए होती है। यह प्रशासन का एक ढंग है और इसका काम केवल उन लोगों के विकास और बेहतरी के मामले में सोचना है जो इसके दायरे में आते हैं। चाहे भौगोलिक दायरे में, चाहे सामाजिक दायरे में। जबकि धर्म हर जगह धर्म है। उसका कोई कोई दायरा नहीं होता है। उसका क्षेत्र असीमित है। यदि दो देशों की सरहद पर युद्ध हो रहा है तो राजनीति दुश्मन का सिर काट देने का आदेश दे सकती है, परन्तु धर्म इन्सान मात्र को खत्म करने का निषेध करता है।''
''क्यों, क्या धर्म को न्याय-अन्याय में आस्था नहीं है। यदि युद्ध वास्तव में न्याय-अन्याय के बीच हो रहा है तो अन्याय का सर कलम करने का आदेश समय-समय पर धर्म ने नहीं दिया? क्या राक्षसों, आतताइयों व अमानुषिक प्रवृत्तियों वाले लोगों का वध धर्मक्षेत्र में नहीं आता? राजनीति के मैदान में हर वक्त सवाल न्याय-अन्याय का नहीं होता। यहाँ स्वार्थ और परमार्थ भी लड़ते हैं। यहाँ आकांक्षा और आधिपत्य में भी युद्ध होता है। इसलिए जरूरी है कि धर्म राजनीति के मैदान में भी आये ताकि राजनीतिज्ञों के बीच नैतिक-अनैतिक की समझ बची रहे। उन्हें उनका जमीर भटकने से रोकता रहे। धर्म-कर्म में आस्था जीवन मूल्यों में आस्था होती है।''
''किन्तु धर्म जब राजनीति से मिलकर काम करता है तो क्या उसके अपने दामन पर छींटे नहीं पड़ते? वह क्या उतना ही पावन रह जाता है। जब किसी धर्मस्थल में इंसानों के कातिल सिर्फ इसलिए छिपकर बैठ जाते हैं कि वहाँ उन्हें सुरक्षा मिलेगी या उनकी अमानवीयता पर कोई प्रश्नचिन्ह न लगेगा, तो क्या इन धर्मस्थलों की सामाजिक उपादेयता पर कलंक नहीं लग जाता? किसी भी पूजा स्थल में भगवान नहीं रहता। वहाँ रहती हैं मनुष्य की आस्थाएँ, उसके विश्वास।''
''यह मनुष्य को अनुशासित करने के लिए है। मनुष्य की शारीरिक संरचना ऐसी है कि उसे एक साथ मस्तिष्क और हृदय धारना पड़ता है। मस्तिष्क में असंख्य विचार हर समय किसी बवंडर की भाँति घूमते रहते हैं। हृदय में भावनाओं का ज्वार उमड़ता रहता है। ऐसे में एक अनुशासन या एकाग्रता के लिए कुछ नियम बनाये जायें तो इनमें हर्ज क्या है?''
''लेकिन यह नियम इतने अन्धे, इतने अमानवीय तो नहीं होने चाहिये कि इनका पालन करने में सैकड़ों इंसान पल-भर में मौत के घाट उतर जायें। किसी मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारे या अन्य उपासन स्थल के अहाते से सत्ता या शासन संचालित क्यों हो? उपासना स्थल भक्ति संचालित करें, प्रेम संचालित करें, मानवता संचालित करें।''
''पूजा का विधान किसी एक व्यक्ति के बनाने से नहीं बनता। एक दिन में नहीं बनता। परम्पराएँ सदियों में बनती हैं और पूजा के विधान व परम्पराओं को भी वक्त के साथ-साथ राजनीति से भी गुजरना पड़ता है।''
काश! राजनीति वास्तव में धार्मिक होती। काश! धर्म नैतिक ही नहीं बल्कि राजनैतिक होता।
कुछ भी हो, गौरांबर को मन-ही-मन यह महसूस होता रहता था कि शंभूसिंह के मन में बड़े रावसाहब के प्रति गहरी नाराजगी है और उसके साथ-साथ बदले की कोई आग-सी भी यहाँ निरन्तर सुलग रही है। गौरांबर को महसूस होता जा रहा था कि उसे अवश्य ही किसी नर बलि के लिए प्रयुक्त किया जायेगा। वह बलि कैसी होगी, कैसे होगी, कहाँ होगी, यह देखना था।
शंभूसिंह अपने बेटे अभिमन्यु का बदला किस तरह लेंगे, कहाँ लेंगे, किससे लेंगे? यही अब सोचता रहता था गौरांबर। आजकल उसमें एक बड़ा परिवर्तन होने लगा था। उसके मन पर एक उदासी-सी छाती जा रही थी। उसका मन संसार से वीतरागी-सा होता जा रहा था। वह शंभूसिंह के घर के अहाते में ही रच-बस गया था। छत पर चला जाता तो घण्टों आकाश की ओर निहारता न जाने किन विचारों में खोया वहीं बैठा रहता। कभी पेड़ों पर चहचहाती चिड़ियों को देखता रहता। कभी गली में पूँछ हिलाती चली जाती गाय को दूर तलक निहारता रह जाता। उसे हर चीज में एक लय-सी दिखायी देने लग जाती थी। वह संसार की हर वस्तु के बारे में इस तरह सोचता कि उसे सब-कुछ एक-सा लगता। बादल, तारे, मिट्टी यही शाश्वत लगते, बाकी सारी हलचलें अस्थायी लगतीं।
उसने अपने पर ध्यान देना भी छोड़ दिया था। उसे घर में किसी भी बात में रुचि नहीं रह गयी थी। अपने जन्म स्थान वाले घर और परिवार को तो वह बिसरा ही चुका था, वहाँ भी उसे किसी बात से कोई मतलब नहीं रह गया था। जो कुछ उसके सामने आ जाता, खा लेता। उसने शंभूसिंह के पुराने कपड़ों में से लेकर धोती ही पहनना शुरू कर दिया था। वह अब अभिमन्यु के कपड़ों को हाथ तक न लगाता। बाल और दाढ़ी भी बनाना छोड़ दिया था। नहाने के बाद शंभूसिंह की भाँति पूजा पाठ करने लगा था, पर मन उसका उसमें भी न रमता। कई-कई दिन तक बाल न बनाता। ऐसे ही लापरवाही से बैठा रहता।
रेशम देवी उसका यह बदलाव बहुत ज्यादा महसूस नहीं कर पायीं, क्योंकि वह उसे रोज देख रही थीं। गौरांबर भी अब किसी सन्त-सा दिखायी देने लगा। उसकी आँखों में एक अजीब भारीपन-सा आ गया था, जिसमें पलकें मुँदी-सी रहने लगी थीं। इंसान के शरीर में समझदारी की ग्रंथियाँ हर-एक अवयव में होती हैं। जब शरीर को पता चलता है कि उसे संसार से कुछ नहीं मिल रहा है तो वह इंसान को अभावों का अभ्यस्त बना देता है।
शंभूसिंह रात को काम से लौटने के बाद खाना खाकर गौरांबर को छत पर लेकर चले जाते थे और दोनों में बातचीत होती रहती थी। शंभूसिंह दिन-भर की हलचलों के बारे में गौरांबर को बताते थे। शंभूसिंह भी अब यह महसूस करने लगे थे कि गौरांबर काफी परिपक्व बुद्धि का हो गया है। वह बातें करते समय पहले की तरह किसी शिष्य की भाँति शंभूसिंह को सुनता ही नहीं रहता था, बल्कि वह कई बार विभिन्न विषयों पर उन्हें सलाह भी देता था। उसकी बातचीत के ढंग और विचारों में आये बदलाव पर कभी-कभी शंभूसिंह भी चकित हो जाते थे। उन्हें यह सोचकर गर्व होता कि गौरांबर को यह समझ उनके घर में रहकर प्राप्त हो रही थी। आदमी को किसी काल कोठरी में बंद कर दो, बाहरी दुनिया से उसका कोई साबका न रहे, फिर भी उसके सोचने-समझने में परिपक्वता आती है। ऐसे समय मनुष्य स्वयं अपने से सीखता है। मानव का गुरु उसका स्वयं का विगत जीवन भी हो सकता है जिससे दीक्षा ली जा सकती है, बशर्ते इंसान ईमानदारी से खुद अपने सामने बैठे। शायद जेल और काल कोठरी में कैदियों को रखने की हमारी परम्परा के पीछे भी यही अवधारणा है। कारा में हम अपने मन की काराओं से मुक्ति पाते हैं।
उस दंगे के बाबत भी गौरांबर को शंभूसिंह से ही पता चला। अलीपाड़ा में आज जबरदस्त झगड़ा हो गया था। दो दुकानदारों की मारपीट से बात बढ़ गयी और देखते-देखते सारे बाजार में कोहराम-सा मच गया। दरअसल, आखेट महल प्रोजेक्ट के रेस्ट हाउस का नाम फिर एक स्थानीय अखबार में आ गया था। अखबार में खबर छपी थी कि रेस्ट हाउस के कर्मचारियों ने एक मुस्लिम युवक को रात भर बंदी बनाकर रखा और उसके साथ मारपीट की। बताया गया कि बात उस समय और भी बिगड़ गयी, जब सुबह के आलम में पन्द्रह-बीस आदमियों ने रेस्ट हाउस के पिछवाड़े आकर इमारत पर जबरदस्त पथराव किया। पत्थर फेंक कर युवकों की टोली तो भाग गयी, पर रेस्ट हाउस को बंद कर दिया गया और वहाँ से कर्मचारियों को हटाकर दूसरी जगह भेज दिया गया।
अखबार में इसी खबर को पढ़कर, और उस पर बहस करते हुए अलीपाड़ा में झगड़े की शुरुआत हो गयी। अखबार में छपी खबर में यह भी लिखा था कि एक मुस्लिम युवक द्वारा हिन्दुओं के दाह-संस्कार की विधि की सार्वजनिक रूप से खिल्ली उड़ाये जाने पर दंगा भड़का।
अगले तीन-चार दिन तक शहर में तनाव रहा। चौबीस घण्टे बाद कर्फ्यू हटा दिया गया और अखबार में हालत सामान्य होने के समाचार आ गये। किन्तु शंभूसिंह ने गौरांबर को बताया कि हालात सामान्य नहीं हैं। तनाव अब भी है और आखेट महल प्रोजेक्ट की सभी साइटों पर पुलिस तैनात की गयी है।
''यदि दो बच्चे आपस में लड़कर अपने माँ-बाप के पास एक-दूसरे की शिकायत लेकर पहुँचें तो वो घड़ी माँ-बाप के इम्तिहान की होती है। हमारे माँ-बाप हमें दुनिया की व्याख्या कैसे करके बताते हैं, इस पर यह तो निर्भर करता ही है कि हम दुनिया को कैसा समझें, यह भी निर्भर करता है कि हम माँ-बाप को कैसा समझें। और राष्ट्र के माँ-बाप उसके धर्मग्रन्थ होते हैं।''
''नहीं काका.. इंसानियत के माँ-बाप धर्मग्रन्थ होते हैं। राष्ट्रों के धर्मग्रन्थ भी, और उनके माँ-बाप भी उनके संविधान होते हैं। उनके शासकों के धरम-करम होते हैं।''
बात अधूरी रह गयी, क्योंकि रेशम देवी शंभूसिंह और गौरांबर दोनों के लिए दूध के गिलास हाथों में लिए छत पर आयी थीं। वे भी दूध पकड़ाकर थोड़ी देर वहीं बैठ गयीं। चाँदनी रात थी। बड़ा भला-भला सा लग रहा था छोटा-सा परिवार अपने में ही खोया चाँद के साम्राज्य का लुत्फ उठा रहा था। सारा गाँव चाँदनी रात में बहुत सुहाना लग रहा था। रास्तों पर फैली हुई मिट्टी रात में बिछी हुई चाँदी के समान लग रही थी।
अगली सुबह नाश्ता करते समय शंभूसिंह ने रेशम देवी को बताया कि आज उन्हें लौटने में देर होगी।
''दफ्तर में आजकल ऑडिट चल रहा है। मुझे बाद में ऑडिट के काम के सिलसिले में ही साहब के घर जाना पड़ेगा।''
गौरांबर ने भी सुनी यह बात। और खाना खाने के बाद वह रेशम देवी से बोला, ''आज काका, भी शाम को देर से आयेंगे। आप कहो तो जरा मैं भी बाहर घूम आऊँ।''
रेशम देवी को भला क्या आपत्ति होती। गौरांबर अब कोई बच्चा तो था नहीं।
और आज गौरांबर में थोड़ी देर के लिए पुराना वाला गौरांबर जाग गया। नहाने के बाद उसने तेल डालकर बालों को तरतीब से बनाया। काका की जिस पुरानी धोती को वह तहमद की भाँति दिन भर लपेटे घूमता था, उसे आज के लिए उसने तिलांजलि दे दी। अभिमन्यु के कपड़ों में से एक रंगीन कमीज और चुस्त-सी पैंट पहनकर वह घूमने के लिए तैयार हुआ।
घर से निकलकर बाहर गली में आया तो उसे बड़ा भला-भला सा लगा। तेज कदमों से गाँव के बाहर वाले रास्ते से चलता हुआ खेतों में आ गया। दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर यहाँ से एक सड़क गुजरती थी जो नजदीक के एक कस्बे से आती थी और दूसरे सिरे की ओर बाहर चली जाती थी। इस सड़क पर वाहनों की आवाजाही बहुत कम ही होती थी, मगर गौरांबर को सड़क पर आते ही एक ट्रेक्टर मिल गया जिस पर वह सवार होकर चल दिया।
वह बिलकुल निरुद्देश्य ही घर से निकला था। उसके मन में कहीं जाने की कोई योजना न थी। आज इतने दिनों बाद उसे खुले रास्तों पर इस तरह निकलना बेहद अच्छा लग रहा था। ट्रेक्टर का मालिक एक चौराहे के पास बने छोटे-से पेट्रोल पम्प पर रुका, तो गौरांबर ने भी उतरकर पान की दुकान से एक सिगरेट जला ली और बड़े-बड़े कश लेकर धुआँ छोड़ने लगा।
लगभग सवा घंटे की यात्रा के बाद गौरांबर शहर के उसी स्टेशन के सामने था, जहाँ अपने मुसीबत के दिनों की शुरुआत होते ही वह आया था। उसे वह सीढ़ियाँ भी दिखायी दीं, जिन पर बैठकर कभी उसने अपने हाथ की कलाई घड़ी का सौदा कर दिया था। गौरांबर ट्रेक्टर वाले को शुक्रिया कहकर स्टेशन के भीतर चला आया, और यहाँ-वहाँ चक्कर लगाकर घूमने लगा।
सामने एक गाड़ी खड़ी देखकर गौरांबर का जी अजीब-सा हो आया। ऐसी ही किसी गाड़ी से कभी गौरांबर अपना गाँव छोड़कर यहाँ चला आया था। प्लेटफॉर्म पर चलता-चलता गौरांबर आगे बढ़ा जा रहा था। बिलकुल एक सिरे पर पहुँच कर लोगों की भीड़-भाड़ बहुत कम हो गयी थी।