Dwaraavati - 54 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 54

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द्वारावती - 54

54

गुल गुरुकुल में अध्ययन करने लगी। अनेक दिन व्यतीत हो गए। मुल्लाओं की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आइ। गुल अनेक ग्रंथों का अध्ययन करने लगी। किंतु उसकी अधिक रुचि श्रीमद् भगवद गीता में थी। समुद्र के तट पर बैठकर वह गुरुकुल में सीखे विषयों का पाठ करती, गीता के श्लोकों का पठन करती, उसके अर्थों को समझती। यह सब वह समुद्र को सुनाती।उसे सुनकर समुद्र तरंगित हो जाता तथा गुल के समीप गुल के मुख से श्लोकों को सुनने आ जाता, विशिष्ट गर्जना से संगीत का सर्जन करता। जैसे किसी गायक के गान के साथ कोई संगीतकार अनेक वाद्यों से गान के अनुरूप मधुर संगीत बजा रहा हो।गुल के गान को सुनकर समुद्र प्रसन्न हो जाता तो समुद्र के संगीत को सुनकर गुल प्रसन्न हो जाती।
ऐसे ही किसी दिन संध्या से पूर्व गुल समुद्र के सम्मुख गीता के श्लोकों को पढ़ रही थी। समुद्र अपने परिचित सुमधुर संगीत से गुल का साथ दे रहा था तभी गुल के कानों में समुद्र के संगीत के उपरांत अन्य कोई संगीत के स्वर गूंजने लगे। 
प्रथम तो उसने उस पर ध्यान नहीं दिया किंतु वह स्वर अविरत रूप से गुल के श्लोकों के साथ, समुद्र की संगीतमय ध्वनि के साथ सुर मिलाता हुआ बज रहा था। इस नए सुर से गुल का ध्यान भंग हो गया। उसने गान बंद कर उस ध्वनि पर ध्यान केंद्रित किया। 
‘यह ध्वनि, यह सुर कैसा है? समुद्र की ध्वनि से भिन्न है। यदि समुद्र इस संगीत को सुना रहा है तो आश्चर्य की बात है क्यों कि समुद्र ने आज तक यह सुर कभी नहीं सुनाया।’
‘गुल, ऐसा तो नहीं कि समुद्र ने आज नूतन सुरों का सर्जन किया हो, तुम्हें साथ देने हेतु।’
‘ऐसा सम्भव हो सकता है।’
गुल ने समुद्र की तरंगों से उठते स्वरों को ध्यान से सुना। समुद्र वही सुर, वही धुन, वही संगीत सुना रहा था। कोई नूतन स्वर नहीं लगे थे उसमें। 
‘नहीं। यह ध्वनि समुद्र के संगीत से भिन्न है। उसका सर्जन भी किसी अन्य बिंदु से हो रहा है।’ धीरे धीरे वह ध्वनि गुल के समीप आने लगा। 
‘यह ध्वनि कोई एक बिंदु पर स्थिर नहीं है, मेरे निकट भी आ रहा है। मुझे मुड़कर देखना होगा कि यह कहाँ …।’ 
वह मूडी , ध्वनि बंद हो गया। किंतु वह चकित रह गई। उसके सम्मुख केशव खड़ा था।
“केशव, तुम? कब आए?” प्रसन्नता से गुल विह्वल हो गई।
केशव ने उत्तर में स्मित को अपने ओष्ठों पर धारण कर लिया। उस स्मित को देख गुल विचार में पड गई,
’क्या यह वही स्मित है जो सदैव कृष्ण के होंठों पर रहता है? क्या कहते हैं इस स्मित को? भुवनमोहिनी स्मित।हाँ वही, भुवनमोहिनी स्मित।’ गुल के अधरों पर भी स्मित आ गया।
“गुल, तुम्हारे मुख पर उभरी प्रसन्नता को देख रहा हूँ। कोई विशेष बात है क्या?”
“प्रसन्नता? वह तो …।” गुल को कोई उत्तर नहीं सूझा। 
“गुल, इस क्षण इस तट पर क्या कर रही हो?”
“मैं? मैं तो, वह मैं अभी नहीं बताऊँगी। प्रथम तुम कहो कि तुम बिना सूचना के यहाँ कैसे? तुम्हारा अध्ययन कैसे चल रहा है? तुम…।”
“सब कुछ कुशल है। अब अन्य कोई प्रश्न नहीं।अब मेरे प्रश्न का उत्तर दो।”
“मैं इस तट पर गीताजी के श्लोकों का पठन कर समुद्र को सुना रही थी। मेरी अल्पमति अनुसार श्लोकों का अर्थ, मर्म, तात्पर्य आदि समुद्र को सुना रही थी।”
“वाह गुल। यह तो अनूठी बात है।”
“सो तो है। मैं तो यह प्रतिदिन करती हूँ, इसी समय, इसी स्थान पर।”
“ऐसा करने का विचार तुम्हें कैसे आता है? कौन प्रेरित करता है तुम्हें यह सब करने को?”
“मेरी प्रेरणा सदैव महादेव ही रहे हैं। किंतु जब मैं गीताजी के श्लोकों को पढ़ती हूँ तो स्वयं कृष्ण मुझे प्रेरित करते हैं।”
“अद्भुत कार्य कर रही हो तुम।”
“मैं कहाँ कुछ करती हूँ? मेरे माध्यम से कोई यह कर रहा है। मैं तो केवल साधन मात्र हूँ।”
“कौन है वह?”
“कृष्ण के अतिरिक्त ऐसा कौन कर सकता है? सर्व कर्म तो उसके अधीन हैं।”
“अर्थात् तुमने भगवद गीता को आत्मसात् कर लिया है।”
“वह मैं नहीं जानती। मैं तो बस मेरी प्रसन्नता हेतु जो उचित लगे वह कर रही हूँ।”
“गुल, तुमने कहा कि तुम यह सब समुद्र को सुनाती हो।”
“हाँ। क्यों?”
“तो क्या वह सुनता भी है?”
“ऐसा संदेह क्यों?”
“समुद्र तो सदैव अविरत रूप से अपनी ही ध्वनि, नहीं, कोलाहल करता रहता है। जो स्वयं कोलाहल करता रहता हो, सदा चंचल हो वह तुम्हारी वाणी को कैसे सुनेगा? क्यों सुनेगा?”
“तुम्हारे इस क्यों का उत्तर मेरे पास नहीं है। किंतु समुद्र मेरी बात अवश्य सुनता है। मैं बस इतना जानती हूँ।”
“अच्छा?” केशव के इस शब्द में कटाक्ष था।
“तुम्हें विश्वास नहीं है ना केशव?”
“मुझे विश्वास है, पूर्ण विश्वास है।”
“तो संदेह क्यों कर रहे हो?”
“अरे, तुम तो रूठ गई। चलो मैं मेरा संदेह स्वयं निरस्त कर देता हूँ।”
गुल हंस पड़ी। 
“गुल, तुम जब समुद्र को यह सब सुनाती हो तब समुद्र का वर्तन, समुद्र का व्यवहार कैसा रहता है?”
केशव के इस प्रश्न से गुल दुविधा में पड गई।
’उस समय समुद्र कैसा व्यवहार करता होगा? उस समय वह तो सुमधुर संगीत के स्वरों का सर्जन करता है किंतु उसका व्यवहार?’
“केशव, समुद्र का व्यवहार? यह कैसा विचित्र प्रश्न है? वह समुद्र है मनुष्य नहीं कि जिनके मुख पर भाव प्रकट हो और हम उससे उसका व्यवहार जान सकें।”
“तो क्या? माना कि वह मनुष्य नहीं है, उसका मुख नहीं है। तथापि हम जान सकते हैं कि उसका व्यवहार कैसा है।”
“वह कैसे?”
“तुम पुन: तुम्हारी बात समुद्र को सुनाओ, इसी क्षण। हम देख लेंगें कि वह कैसी प्रतिक्रिया देता है।”
“इस क्षण? पुन:?”
“कोई समस्या है?”
“गीता गान में तो कोई समस्या नहीं है किंतु मैं जब गीता गान करती हूँ तब मेरी आँखें बंद रखती हूँ।बंद आँखों से मैं समुद्र को कैसे देख पाऊँगी?”
“कोई बात नहीं। तुम आँखें बंद रखना और मैं खुली आँख से देखता रहूँगा। तुम बंद आँखों से समुद्र की ध्वनि सुनती रहना।”
“समुद्र मेरे गान के अनुरूप अपनी नियमित ध्वनि के उपरांत संगीत की ध्वनि का सर्जन करता है। मैं उसे नियमित रूप से सुनती हूँ।”
“मुझे वही संगीत सुनना है, गुल।”
“किंतु आ… ज..।”
“क्या हुआ ? क्या उसने आज संगीत सर्जन नहीं किया?”
“आज समुद्र के संगीत के साथ साथ कुछ अन्य सुर भी मुझे सुनाई दिए।”
“कैसे सुर?”
“बांसुरी के सुर हो जैसे।सुमधुर, सुंदर, मोहक सुर। समुद्र के संगीत के साथ मिश्र हो गए थे वह सुर। जैसे समुद्र के संगीत की अपूर्णता को पूर्ण कर रहे हो। उन सुरों ने मेरे मन को भटका दिया है।”
“सुर सुंदर थे तो मन भटक कैसे गया, गुल?”
“मोह। मोह ही है मन के भटकने का कारण। उन सुरों की मोहकता ने ही मन को भटका दिया। मैं आँखें खोल बैठी। उन सुरों को खोजने के लिए मुड़कर देखा तो तुम्हें मेरे समक्ष पाया। जैसे मैंने आँखें खोली वैसे ही वह स्वर, वह सुर बंद हो गए। जैसे कहीं विलीन हो गए, लुप्त हो गए। समुद्र का संगीत भी छूट गया। यह सब क्या है केशव? यह कैसा मोह है? यह कैसा भ्रम है?”
“तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे।”
“कैसे? केशव कैसे?”
“जहां से प्रश्न उठे हैं वही से उनके उत्तर भी जन्म लेंगें।”
“कब?”
“तुम बस आँखें बंद कर नित्य क्रमानुसार गीता का पठन करो, उसके मर्म को कहो। समुद्र सुनेगा, समुद्र ही उत्तर देगा।”
“किंतु अब मुझसे यह नहीं हो पाएगा। क्यों की मेरे मन में अब यह जागृति भी प्रकट हो चुकी है कि समुद्र के उपरांत भी कोई यहाँ उपस्थित है जो मेरे गान को, मेरे शब्दों को सुनेगा। यह जागृति ही मन को अस्थिर बना देगी, भटका देगी।”
“अर्थात् तुम्हें मेरी उपस्थिति का विचार विचलित कर देगा।”
“हाँ केशव।”
“तो लो मैं चला जाता हूँ। तुम बिना भटके समुद्र को सुनाओ जो कुछ तुम सुनाना चाहती हो।”
केशव जाने लगा। गुल चाहते हुए भी उसे रोक नहीं सकी। केशव चला गया। 
गुल मन ही मन स्वयं को दोष देने लगी।
‘कितने लम्बे अंतराल के पश्चात केशव आया था, मुझे मिलने आया था। मैं हूँ कि उसे चले जाने पर विवश कर बैठी। वह तो चला गया। कितनी बातें करनी थी मुझे उससे। कितनी बातें उसे भी तो करनी होगी मुझसे। ना जाने कितनी बातें रह गई अनकही सी।वह चला गया, मेरे कारण। कुछ भी ना हो सका, मेरे कारण।मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।आज मन इतना विचलित क्यों हो गया? मैं ही दोषी हूँ इसके लिए।’
गुल का मन विलाप करने लगा। उसने स्वस्थ होने का प्रयास किया।अन्तत: वह शांत हो गई। विचारों को विराम दे दिया। आँखें बंद कर जाप करने लगी।
“हरे कृष्ण, हरे कृष्ण।”