Saddfiya Manzil - 4 - Last Part in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | सदफ़िया मंज़िल - भाग 4 (अंतिम भाग)

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सदफ़िया मंज़िल - भाग 4 (अंतिम भाग)

भाग -4

“इसी बीच एक दिन, एक दल्ला, एक ग्राहक रणजीत बख्स सिंह को लेकर इनके पास आया। यह आज भी उसका नाम भूली नहीं हैं। ज़हूरन के जाने के बाद से ही इन्होंने किसी ग्राहक के साथ सोना बंद कर दिया था। कोठे की मालकिन होने के नाते भी किसी ग्राहक के साथ सोती नहीं थीं। जबकि किसी भी कोठे की सबसे कम उम्र की मालकिन थीं। 

“शबाब में कोठे की सारी लड़कियाँ इनके सामने कहीं ठहरती ही नहीं थीं। रणजीत बख्स बजाय किसी और लड़की के इन्हीं पर फ़िदा हो गया। सेना का अधिकारी था। विश्व-युद्ध में न जाने कहाँ-कहाँ लड़ कर लौटा था। 

“वह किसी ज़मींदार का बेटा था। बहुत ही ख़ूबसूरत था। जल्दी ही इनका भी मन उस पर आ गया। वह इनको अपनी बेग़म बनाने की बात करने लगा। लेकिन इनका मन पहले इतना और इतनी बार टूटा था कि इनको उसकी बात पर यक़ीन ही नहीं होता। 

“लेकिन वह भी ज़िद का पक्का था। आख़िरकार इनको उसकी बात पर विश्वास हो गया। यह उसके साथ जाने, शादी करने को तैयार हो गईं। कोठा किसी और को सौंपने, जाने की तैयारी करने लगीं। ज़हूरन की तरह अपनी सबसे भरोसेमंद ख़ास लड़की को कोठे की मालकिन बनाने की तैयारी भी कर डाली। 

“मगर तभी इनकी बदक़िस्मती एक बार फिर जाग उठी। जिस बीमारी को समझा गया कि वह विदा ले चुकी है, वह जाते-जाते इनके नसीब को ऐसा कुचल गई कि यह फिर कभी उबर न सकीं। वह स्पेनिश फ़्लू इनके सपनों के शहज़ादे रणजीत को भी साथ लेते गया।”

अपनी बात पूरी करते ही रफ़िया ने एक गहरी साँस ली। हँसली एक चुप, हज़ार चुप बड़ी ग़मगीन सी उसे देख रही थी। इसी बीच रज़िया एक थाली में ढेर सा लइया, चना, नमक मिला कर ले आई। उसमें चना कहने भर को था। हरी मिर्च की जगह लाल पिसी मिर्च दिख रही थी। 

रज़िया तिपाए पर थाली रख भी न पाई थी कि हँसली ने एक भरपूर मुट्ठी उठा कर मुँह में डाल लिया और जल्दी-जल्दी चबाती हुई बोली, “हाय-हाय, नसीब का इतना ज़ालिमाना मज़ाक। मैं तो समझती रही कि ऊपर वाला सबसे ज़ालिमाना मज़ाक हम जैसों को ऐसा बना कर करता है। हाय रे रे। मैं बेवजह बुढ़िया की खिल्ली उड़ाती रही। बड़ी दुःखियारी है ये तो। अब कभी कुछ न कहूँगी। तौबा मेरी तौबा।”

हँसली ने अपने दोनों कान पकड़ते हुए आगे कहा, “लेकिन ये ऐसी ग़मगीन ज़िन्दगी जीते रहने की काहे ज़िद किए हुए है। और इक्कीस साल में इसे क्या मिल जाएगा।”

इतना कहते हुए उसने मुँह में भरी लइया ख़त्म कर पान-मसाला का पाऊच निकाल लिया। शायद उसे लइया बिलकुल अच्छी नहीं लगी थी। मसाला देखते ही ज़किया टोकती हुई बोली, “अरे नहीं-नहीं, खाओगी तो थूकोगी, इससे कोरोना फैलने का डर है। पुलिस देख लेगी तो जुर्माना अलग है।” ज़किया की आवाज़ में थोड़ी तल्ख़ी थी। 

हँसली थोड़ा सकपका गई। रफ़िया ने भी ज़किया की बात दोहरा दी तो हँसली ने पाऊच वापस कुर्ते की जेब में रखते हुए कहा कि, “सच रे तू तो शेरनी है शेरनी। बुढ़िया के बाद तू ही बन यहाँ की महारानी। ले नहीं खाती। हाँ तू आगे बता।”

हँसली ने एक तरह से ज़किया पर व्यंग्य कर अपना ग़ुस्सा ही उतारा था। समझ ज़किया भी गई थी। असल में वह चाहती ही नहीं थी कि वह इन हालात में आए और कोठे पर रुके। 

उसे ग़ुस्सा आ रहा था कि जब सरकार कह रही है घर से बाहर न निकलें, न अपनी और न ही दूसरों की जान को संकट में डालें। संक्रमण फैलाने वाले न बने। यह फिर भी ज़बरदस्ती आकर बैठी हुई है। पुलिस वाले भी मूर्ख ही रहे होंगे जो इसे घूमने दे रहे हैं। इसे पकड़ा नहीं। 

उसने मन ही मन सोचा अगर यह जल्दी ही न गई तो इससे कह दूँगी जाने के लिए। हो जाए ग़ुस्सा मेरे ठेंगे से। रफ़िया भी यही चाहती थी कि वह चली जाए। इसलिए वह बातों को समेटने में लगी रही। 

उसने ज़किया की तरफ़ देखते हुए कहा, “इसके ख़्वाब बहुत ऊँचे हैं। यह इस गंदगी से निकलना चाहती है। मुझे क्या, यहाँ हम-सब को भरोसा है कि यह इस गंदगी से बाहर अपनी साफ़-सुथरी इज़्ज़त से भरी दुनिया बना लेगी। इतना सब के बाद भी इस गंदगी में रह कर भी जैसे-तैसे अपनी पढ़ाई जारी रखी हुई है। फूफी इसकी ज़ेहनियत देख कर ही तो इसे पढ़ाने लगी। 

“बहुत महीना पहले ही कई बार बोल चुकी है कि कमाठीपुरा जल्दी ही ख़त्म होने वाला है। कुकुरमुत्तों से उग आए हैं कमाठीपुरा न जाने कितने होटलों, घरों में। थकी-हारी हिरोइनें, पढ़ने-लिखने वालियाँ, बहुत सी नौकरी वालियाँ पूरा का पूरा चलती-फिरती कमाठीपुरा बन गई हैं। फूफी को तो ख़ैर इतना नहीं मालूम था। 

“यही उनको मोबाइल से सब पढ़कर सुनाती दिखाती रहती है। तभी से तो वह इसके पीछे पड़ी रहती हैं कि हम-लोगों की तो बाक़ी बची ज़िन्दगी कट जाएगी किसी तरह, मगर तेरा तो अभी पूरा जीवन पड़ा है। मगर हालात देखो कि देखते-देखते सब बंद हो गया। 

“रोज़-रोज़ सब समाचार में बताते हैं कि यह बीमारी लंबे समय तक हमारे साथ बनी रहेगी। कोई दवा नहीं है, बचाओ ही इलाज है। तो सब बंद ही समझो। 

“कोई मरने तो कमाठीपुरा आएगा नहीं। अब दुकान करने, सब्ज़ी बेचने के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं है। सरकार भी राशन, पैसा उसे ही दे रही है जिसका राशन कार्ड, बैंक अकाउंट है। पैसा सीधे उसके अकाउंट में जा रहा है। हम लोगों के पास तो कार्ड भी नहीं है।”

अब-तक कुछ गंभीर हो चुकी हँसली ने कहा, “यही रोना तो यहाँ भी है। ना बाप का पता, न महतारी का, ना तो घर का। तो कहाँ से बनेगा राशन कार्ड, वोटर आई डी कार्ड। बाक़ी सब बिना काम-धाम के भी खाएँगे जिएँगे। और हम लोग . . .”

यह कहती हुई हँसली ने तीन चार तालियाँ ठोंक दीं। 

यह देख रफ़िया, ज़किया, रज़िया तीनों ने सोचा चलो बात ख़त्म हुई। अब यह यहाँ से जल्दी जाए। लेकिन तभी सदफ़िया ने फिर कुछ कह दिया। जिसे समझते ही रफ़िया ने मन ही मन कहा अरे बूढ़ा चुप क्यों नहीं रहती। टलती बला को फिर रोक लिया। 

उसकी आशंका सही निकली। इस बार हँसली ने सदफ़िया की बात समझ ली। छूटते ही बोली, “तेरा दिमाग़ भी बूढ़ा गया है। हिल गया है। अरे देखना सब चलेगा, यह कमाठीपुरा भी चलेगा। अरे जब तू इक्कीस साल और जीने के लिए खूँटा गाड़े बैठी है, तो कमाठीपुरा और आगे काहे नहीं बढ़ेगा। तेरे को कुछ याद भी है। 

“जब एड्स आया तब भी ऐसे ही हा-हा कार मचा था, कि सब ख़त्म हो जाएगा, कोई कमाठीपुरा बचेगा ही नहीं। इसकी कोई दवा नहीं है। आदमी औरत मिले नहीं कि मरे। लेकिन देख ना, ऐसा कुछ हुआ, सब-कुछ तो वैसे ही चलते चला आ रहा है। 

“कुछ दिन धंधा मंदा ज़रूर पड़ा। लेकिन फिर सारा धंधा वैसे ही चल निकला कि नहीं। सब गुब्बारे लेकर फिर से दौड़ते-भागते कमाठीपुरा आने लगे। दुनिया-भर के सारे कमाठीपुरों की रौनक़ फिर से लौटने लगी। बल्कि गुब्बारों के साथ तो धंधा और भी चल निकला। दवाई कंपनियों का भी। 

“ख़ाली यह गुब्बारा ही बेच-बेच कर अपना ख़ज़ाना भर रही हैं। और बेवकूफ़ गुब्बारा ख़रीद-ख़रीद कर लुटा रहे हैं अपना ख़ज़ाना। अब तू ही बता बंद हुआ कुछ। देखना इस कोरोना वायरस वग़ैरह से भी कुछ नहीं होगा। यह सब हारेंगे। 

“अरे आदमी से बड़ा वायरस कोई हुआ है क्या आज-तक। देखना ई दवा कंपनियाँ मुँह का भी कोई गुब्बारा ले आएँगी। गुब्बारा ही बेच-बेच कर अपना ख़ज़ाना भरेंगी। उनका मुनाफ़ा कई गुना बढ़ जाएगा। वह भी मज़े में रहेंगे, वायरस भी मज़े में रहेगा। ग्राहकों की भी चाँदी रहेगी। सारे कमाठीपुरा फिर से सोना ही सोना काटेंगे। चाँदी नहीं। समझी बूढ़ा, सब चलेंगे नहीं दौड़ेंगे।” 

रफ़िया ने देखा कि ज़किया हँसली की बातों, फूफी को बार-बार बूढ़ा कहने से बहुत उबल रही है। बात कहीं बिगड़े ना तो फ़ौरन ही इस बात को ख़त्म करने की सोच कर बोली, “अरे बंद करो फ़ालतू की बातें। कमाठीपुरा चलेगा तो तो चलेगा, नहीं चलेगा तो भी कुछ करके चलाएँगे ही जीवन।”

इसी समय हँसली का फ़ोन बज उठा। कॉल रिसीव करके बात करती हुई वह उठ खड़ी हुई। कुछ ही सेकेण्ड में अपनी बात ख़त्म करके बोली, “अब मैं चली, मुओं ने कहीं से दारू का जुगाड़ कर लिया है। जल्दी नहीं पहुँची तो सब अकेले ही उड़ेल लेंगे।”

हँसली ने बात पूरी करने से पहले ही एक कान में लटके मास्क को मुँह पर चढ़ाया और भागती हुई निकल गई। उसके जाते ही ज़किया बोली, “चलो बला टली। लेकिन मेरा काम बढ़ा गई। सारा घर धोना पड़ेगा। आज, अभी लिखकर दरवाज़े पर चिपका देती हूँ कि कोरोना काल में ‘सदफ़िया मंज़िल’ के अंदर आना सख़्त मना है। अब इसको तो कभी नहीं घुसने दूँगी।”

रफ़िया बोली, “अब चुप भी हो जा। इतना ग़ुस्सा ना किया कर।”

“क्यों ना किया करूँ। बार-बार धोना तो मुझे पड़ता है।”

अपनी बात कहते-कहते ज़किया धुलाई के लिए भीतर से सिरका, नमक, पानी का घोल लेने चली गई . . . 

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