Saddfiya Manzil - 3 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | सदफ़िया मंज़िल - भाग 3

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सदफ़िया मंज़िल - भाग 3

भाग -3

हँसली ने यह कहते हुए दूर से ही ज़किया की बलाएँ लेते हुए अपने दोनों हाथों की उँगलियों को कानों के पास ले जाकर हल्के से दबा दिया। जिससे एक साथ कई पट्ट-पट्ट आवाज़ हुई। 

तभी रफ़िया कुछ सोचती हुई बोली, “मसालेदार क्या, आदमी ख़ाली बैठा रहेगा तो दुनिया भर की बातें तो ज़ेहन में घूमेंगी ही, जब-तक कस्टमर आ रहे थे, तब-तक सब पर यहाँ बैठी निगाह रखती रहीं। मगर अब कुछ नहीं तो जब देखो तब, कोरोना, स्पेनिस फ़्लू, प्लेग, यह, वह। और एक यह है, जबसे हर तरफ़ कोरोना-कोरोना हुआ है, मोबाइल में देख-देख कर कुछ जान लिया है, तब से जब चाय माँगो तो चाय के नाम पर काढ़ा ही देती है।” 

रफ़िया ने ज़किया की तरफ़ देखते हुए बात पूरी की तो हँसली बोली, “अरे वह सही कर रही है, इससे सब बची रहोगी इस बीमारी से। बनाती भी बढ़िया है। गला साफ़ हो गया है। अच्छा इसका फ़साना बता। बात को टाल मत।”

हँसली टाइम पास करने के लिए बातें जारी रखना चाहती थी। उसके आग्रह को रफ़िया टाल नहीं सकी। और बेमन से बोलना शुरू किया, “अब फ़साना क्या, दिल का अस्सी-नब्बे साल पुराना ज़ख़्म है, जिसे इस बीमारी ने खरोंच-खरोंच कर ताज़ा कर दिया है। न जाने कितने सालों बाद इधर हफ़्ते भर में तीन-चार बार आँसू बहा चुकीं हैं। टीवी में जैसे ही लोगों के मरने की बातें सुनती हैं, वैसे ही अपना कोई ना कोई फ़साना बताने लगती हैं। समाचार चैनल ना लगाओ तो ज़िद करके लगवा लेंगी। इसीलिए अब चलाते ही नहीं। ऊपर से तंगी के चलते अब रीचार्ज़ भी नहीं हो पा रहा है। 

“इनको आज भी अपना वह दुख जब याद आता है तो इन्हें गहरी टीस देता है। जो इनके साथ तब हुआ था जब यह सोलह-सत्रह वर्ष की रही होंगी। उसी समय इनका निक़ाह एक फूफीजात भाई से कर दिया गया। यह इनका दूसरा निक़ाह था। पहला शौहर किसी बीमारी से बहुत जल्दी मर गया था। उससे इनके एक बेटी थी। वह भी साल भर की उम्र में हैजा से मर गई थी। 

दूसरा शौहर निक़ाह के कुछ दिन बाद ही इन्हें गाँव से लेकर यहाँ मुंबई (तब बम्बई) चला आया। आठ-दस दिन ख़ूब मौज़-मस्ती की। साथ लेकर ख़ूब घूमा-फ़िरा। यह बहुत ख़ुश हुईं कि अब अपना नसीब बढ़ियाँ हो चला है। 

ख़ूब चाहने, प्यार करने वाला शौहर मिला है। इन्हें तब यह ग़ुमान ही नहीं था कि चंद रोज़ की है यह चाँदनी, काली अँधेरी रात आने ही वाली है। क़हर टूटने ही वाला है। जिसे प्यारा शौहर समझ टूट कर चाह रहीं हैं, वही जीवन-भर के लिए दोज़ख़ में डालने वाला है। 

“उस मरदूद का मन जब इनसे भर गया, पैसे सारे ख़त्म हो गए तो शैतान इन्हें घुमाने के बहाने यहाँ कमाठीपुरा लेकर आया और यहीं किसी ज़हूरन बाई के कोठे पर बेच कर चला गया। 

“बोला थोड़ी देर में आता हूँ। लेकिन जब गया तो लौट कर फिर कभी नहीं आया। घंटे भर बाद ही जब इन्हें पता चला तो ख़ूब रोईं-धोईं। चीखीं-चिल्लाईं तो ज़हूरन ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। 

“इतना ही नहीं उसी रात ग्राहकों के सामने डाल दिया। रही-सही कसर दो-तीन ग्राहकों ने पूरी कर दी। यह सुबह तक बेहोश पड़ी रहीं। इतने पर भी जब इन्होंने छुटकारा पाने की कोशिश बंद नहीं की तो ज़हूरन ने इन पर बेइंतिहा ज़ुल्म किया। 

“भूखा रखा, डंडों, चिमटों, चमड़े की बेल्टों से मारा। बिना कपड़ों के रखा। एक अकेली जान, ज़हूरन और उसके दर्जन-भर दल्लों का कैसे मुक़ाबला करती और कब-तक करती, कितना करती। आख़िर इन्होंने अपने को नसीब के हवाले कर दिया।”

चाय पीती हुई अब-तक ध्यान से सुन रही हँसली ने कहा, “अरे रे रे बड़ा हरामी था साला। शौहर नहीं नंबर एक का हरामी दल्ला था, दल्ला। गाँव में ऐसे ही लड़कियों से निक़ाह कर करके उनको यहाँ लाकर बेच देता रहा होगा। 

 ऐसे हरामियों को तो टाँग पर टाँग रखकर चीर देना चाहिए। इस उमर में जब इनकी यह रंगत है तो जवानी में तो यह क़हर बरपाती रही होंगी। कमीने ने बहुत मोटी रक़म लेकर बेचा होगा इन्हें। सच में शौहर होता तो चाहे जो करता, मगर कोठे पर बेचने की बात तो सोचता भी नहीं। पक्का दल्ला ही था। और बता, फिर आगे क्या हुआ?” 

“अब आगे भी जो बातें हैं, वो इतनी हैं कि, कहती जाऊँ तो दिन, महीने साल बीत जाएँगे लेकिन इनके अफ़साने नहीं ख़त्म होंगे। ख़ुद को नसीब के हवाले करने के दो साल बाद एक बार फिर इनको लगा कि इनका नसीब खुलने वाला है। लेकिन तभी फैली महामारी स्पेनिश फ़्लू ने इनके नसीब को हमेशा के लिए बिगाड़ दिया। फिर ये हमेशा के लिए कमाठीपुरा की और कमाठीपुरा इनका हो गया।”

“कैसे भला? पूरा बता न, काहे को टाल रही है।” 

हँसली की इस बात पर रफ़िया ने कहा, “लगता है तू आज पूरी फ़ुर्सत में है।”

यह सुनते ही हँसली दोनों हथेलियों को भरपूर फैला कर एक ताली ठोंकती हुई बोली, “ऐ लो, कैसी बात करती है तू। इस कोरोना ने पूरी दुनिया को ही फ़ुर्सत दे दी है। सब घरों में बैठे ताली ठोंक रहे हैं, काढ़ा पी रहे हैं। तू भी ख़ाली बैठी फ़ुर्र-फ़ुर्र काढ़ा पी रही है कि नहीं। चल बोल न आगे।”

हँसली के ज़्यादा ज़ोर देने पर ज़किया ने रफ़िया से कहा, “आज ये पीछा छोड़ने वाली नहीं, सारा मग़ज़ ख़ाली करके ही मानेगी।” 

इतना सुनते ही हँसली ज़किया को मीठी झिड़की देती हुई बोली, “ए मूई तू चुप कर, ख़ाली काढ़ा पिला के गला जला रही है, ये नहीं कुछ खाने को ले आए। चल जा कुछ ले आ। ए तू चुप क्यों हो गई, चल आगे की सुना न।” 

हँसली फिर रफ़िया की ओर मुख़ातिब हो कर बोली तो रफ़िया ने हँस कर उसके दुपट्टे की ओर इशारा कर कहा, “पहले अपनी दुकान तो ढँक, बताती हूँ आगे क्या हुआ।” 

रफ़िया ने बड़ी देर से उसका दुपट्टा, उसकी गोद में गिर जाने से खुली, उसकी छातिओं की ओर इशारा करते हुए कहा, तो ज़किया खिलखिला कर हँस दी। सदफ़िया को बातें तो कुछ समझ में न आईं थीं, लेकिन सबको हँसता देख कर वह भी अपने पोपले मुँह से हँस दी। इससे खिसियाई हँसली ने एक ज़ोरदार ताली ठोंक कर रफ़िया से कहा, “ए तू मेरी दुकान में क्यों घुसी जा रही है, तेरा इरादा क्या है? तेरे से बहुत बड़ी है मेरी दुकान, खो जाएगी उसी में, हाँ।” 

इसके साथ ही उसने एक बड़ा ही अश्लील इशारा भी किया। उसे देखते ही ज़किया सहित सभी हँसती-हँसती दोहरी हो गईं। 

रफ़िया भी हँसती हुई बोली, “अब ऐसी भी बड़ी दुकान का क्या फ़ायदा जो सँभाले न सँभले। मेरी छोटी दुकान ही अच्छी है, कम से कम सम्भली तो रहती है।”

हँसली आगे कुछ और ऐसी-वैसी बात न बोले, इसलिए रफ़िया बात बदलती हुई बोली, “अब सुन आगे क्या हुआ। फ़साना तो लंबा है। लेकिन बहुत छोटे में बताऊँगी। ऐसा हुआ कि, इन्होंने ख़ुद को ज़हूरन के हवाले करने के बाद अपने काम से उसका विश्वास जीत लिया। 

“इनके ग़ज़ब के हुस्न के चलते दुगने ग्राहक आने लगे। और दूसरी लड़कियों की जगह ज़हूरन इनकी दोगुनी क़ीमत वसूलती। इन्होंने जल्दी ही कोठे पर अपना दबदबा क़ायम कर लिया। ज़हूरन के बाद कोठे पर इन्हीं की चलती। ज़हूरन जल्दी ही एक के बाद एक काम इन्हीं पर डालती चली गई। तभी महामारी फैल गई। लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने लगे। आज की तरह तब दवाई-सवाई तो थी नहीं। 

“जो भी उस बीमारी के चपेट में आया वह बचा नहीं। आज की तरह सरकार की तरफ़ से राशन-पानी का भी कोई इंतज़ाम नहीं किया गया था। ग्राहक नज़र नहीं आते थे। एक महीना दो महीना करते-करते दो साल बीत गए। बीमारी से ज़्यादा लोग तो भूख से मर गए। 

“ये बार-बार यही बताती हैं कि, देखते-देखते कमाठीपुरा वीरान हो गया। कोई कोठा ऐसा नहीं बचा था, जिसकी आधी या फिर बहुत से ऐसे थे जिसमें सभी की सभी लड़कियाँ मर गईं। ऐसे भी कोठे थे जिन पर कोई ताला लगाने वाला भी नहीं बचा था। ख़ौफ़ इतना कि किसी में कुछ छूने की ज़ुर्रत नहीं थी। विरान पड़े कोठे कुत्ते, बिल्लिओं, के डेरे बन गए। 

“इनके कोठे पर ज़हूरन सहित कई और लड़कियों को फ़्लू ने निगल लिया। मेरी तो आज भी यह सुन कर रूह काँप जाती है कि एक साथ कोठे से चार मय्यत निकली थीं कब्रिस्तान के लिए। कंधा देने वाला भी कोई नहीं था। जैसे-तैसे मिट्टी ख़ाक के हवाले कर दी गई। 

“ज़हूरन के जाने के साथ ही यह कोठे की मालकिन बन गईं। सब एक-एक दिन गिनतीं कि अब उनकी बारी, अब उनकी बारी। लेकिन ज़हूरन के बाद इनके कोठे पर किसी और की बारी नहीं आई। 

“देखते-देखते एक साल बीता, दूसरा बीता, बीमारी कभी क़मज़ोर पड़ती, कभी लौट आती। फिर ऐसे ही ख़त्म होने को आ गई। दल्ले फिर से नई-नई लड़कियाँ लाकर कोठे गुलज़ार करने में लग गए। ग्राहक लाने लगे। कमाठीपुरा फिर गुलज़ार होने लगा।