Shuny se Shuny tak - 67 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 67

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शून्य से शून्य तक - भाग 67

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व्यवसाय के प्रति सब ईमानदार थे और काम ठीक चल रहा था| अनन्या ने बखूबी मनु के साथ मिलकर काम संभाल लिया था| उसके काम का और मीठे स्वभाव का जादू सब पर चल गया था| वह कितनी सादी, सरल, सहज और काम के प्रति समर्पित लड़की थी कि सब लोग उसकी प्रशंसा करते हुए नहीं थकते थे| जिसको भी कोई जरूरत होती, वह उसके साथ खड़ी मिलती| आवश्यकता होने पर सबके काम में सहायता कर देती| अपना डिवीज़न तो उसने बखूबी संभाल ही लिया था| 

दीना जी के पास अब न कुछ समझने को था, न कहने को और न ही करने को! केवल पछतावे से भरे रहते वे और माधो उनके स्वास्थ्य के लिए चिंतित रहता, उनकी दवाइयों और खाने-पीने पर लगातार नज़र  रखता| अनन्या को वे जैसे अपनी बेटी ही समझने लगे थे और मन से चाहते थे कि मनु के जीवन का अकेलापन और चुप्पी दूर हो सके| यह अब तब ही संभव था जब वे मनु और अनन्या को एक करवा सकें| यह भी कुछ आसान नहीं था।एक पिता का अपनी बेटी की जगह दूसरी लड़की को देने में हिचकना स्वाभाविक ही था| क्या और कैसे ?यह गंभीर प्रश्न था| किसी पिता के लिए यह स्वाभाविक स्थिति तो नहीं ही थी| 

अनन्या और रेशमा की कितनी पटने लगी थी, कभी-कभी आशिमा भी अनिकेत के साथ आ जाती फिर अगर सबके पास टाइम होता तो तीनों कहीं घूमने भी चले जाते| यह सब रेशमा के लिए बहुत जरूरी था| पहले आशी किसी और को नहीं लेकिन रेशमा के लिए तो न जाने क्यों बड़ी सिन्सियर थी ही| आशिमा से भी वह कोई गलत व्यवहार नहीं करती थी लेकिन मनु से न जाने क्यों इतनी बुरी तरह चिढ़ती कि दीनानाथ सोचने पर मजबूर हो गए थे कि उन्होंने ये कैसा निर्णय लिया था?बहुत स्वार्थी हैं वे!सहगल की याद उन्हें जब तब आती और वे उदास हो जाते | अनन्या ने ने जाने कब और कैसे रेशमा को अपना बना लिया था| और उसे ही क्या, उसने सबको ही अपना बना लिया था। क्या ऑफ़िस में, क्या घर में !

अनन्या के साथ से मनु के चेहरे पर जैसे मुस्कान खिलने लगी थी और उसे खुश होते देखकर दीनानाथ का चेहरा बुझने लगा था| कुछ लोग अनन्या और मनु को खुश देखकर खुश तो होते थे लेकिन कभी न कभी किसी के मुँह से उनके बारे में सुनकर कच्चे कान के हो जाते थे| बात मनु के पास तक भी पहुँचती और माधो तो पूरे ऑफ़िस का एकमात्र ऐसा अधिकारी था कि वह समय आने पर कुछ भी गलत नहीं सुन सकता था| कह ही देता कुछ ऐसा कि सामने वाले का मुँह बंद हो जाता| 

“हर किसी को अपना काम करने दो, तुम अपना काम करो---” दीना अंकल मनु को समझाते| 

जो स्वाभाविक था, वह संबंध मनु और अनन्या के बीच में किन्हीं संवेदनशील क्षणों में बन चुका था, मनु ने भी अब यह सब दिखावा छोड़ दिया था| वह एक दिन भी अपनी पत्नी के साथ नहीं रह सका था | उसका मन और तन दोनों प्यासे थे| दोनों के बीच भावनात्मक संबंध तो पहले से ही था लेकिन मनु शादी हो जाने के कारण अपने आपको कंट्रोल में रखने की कोशिश करता रहा था| वह टूटे हुए मन से प्रतीक्षा करता कि एक बार तो आशी इशारा दे कि वह मनु को मिस करती है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ तब मनु और अनन्या के बीच के फ़ासले मिटने लगे| कब वे दोनों एक-दूसरे के पूरक बन गए, पता भी नहीं चला और एक प्यार का झौंका सा उनके भीतर भरने लगा| उस झौंके की शीतलता से न केवल मनु और अनन्या बल्कि दीना अंकल और बहनें व सभी करीब के लोग भी सुवासित होने लगे| एक दिन ऐसा भी आया कि अनन्या मनु के जीवन का ऐसा भाग बन गई जिसकी समाज इजाज़त नहीं देता था लेकिन तीर कमान से निकल चुका था| 

ऐसी खबरों को आग की तरह फैलते कहाँ देर लगती है?जब दीनानाथ को पता चला, वे कुछ नहीं बोल सके| काम उसी प्रकार चल रहा था, अनन्या सबकी चहेती बन चुकी थी | अधिकतर सब इस बात से परिचित थे कि मनु का विवाह एक मज़ाक के अलावा कुछ भी न था| बेटी के पिता थे दीनानाथ लेकिन मनु को भी उन्होंने बेटे से कम नहीं समझा था| एक ओर वे मनु के लिए खुश थे तो दूसरी ओर आशी के लिए बेहद दुखी ! क्या प्रयत्न नहीं किए थे सबने आशी को समझाने के लिए, उसे रोकने के लिए, उसे उसके जीवन की वास्तविकता याद दिलाने के लिए लेकिन कुछ लाभ नहीं हुआ था| दीनानाथ बेटी की हरकतों से घुले जा रहे थे| आखिर वे एक स्नेही पिता थे जिन्होंने बेटी को माँ-पिता दोनों का प्यार, दुलार हर तरह से देने का प्रयास किया था लेकिन सब ही प्रकार से वे असफ़ल रहे थे| एक डॉ.सहगल ही थे उनके अभिन्न अंग, वे भी अपनी ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर रखकर चल दिए थे| कैसे वे उन जिम्मेदारियों को अनदेखा कर देते या उन्हें बीच रास्ते में ही छोड़ देते?चाहे उन्हें कितनी ही पीड़ा क्यों न झेलनी पड़ रही थी| 

मनु को जब से अनन्या के बारे में पता चला था वह बहुत परेशान दिखाई देने लगा था| अब तो स्थिति ऐसी थी कि वह चाहते हुए भी अनन्या को मझधार में नहीं छोड़ सकता था| दीनानाथ की अनुभवी आँखों ने बिना बताए ही सब कुछ पढ़ लिया था| वे अपने कर्म के फलस्वरूप मन से प्रायश्चित करना चाहते थे| बेशक आशी उनका अपना खून थी लेकिन मनु के जीवन को काली छाया से ढकने का उनको कोई अधिकार नहीं था| 

“मनु बेटा ! तुम अनन्या को घर पर ले आओ---”लंच के समय एक दिन दीना अंकल ने मनु को उदास देखकर   अचानक कह दिया| 

मनु के हाथ के कौर ने मुँह में जाने से जैसे इनकार कर दिया| उसका मुँह खुला रहा गया| क्या कह रहे हैं   अंकल!एक बार उसकी दृष्टि दीना अंकल की दृष्टि से टकराई फिर लज्जा से नीची हो गई| हाय!यह क्या हो गया था ?वह स्वयं पर कंट्रोल क्योँ नहीं कर सका?जब से उसे अनन्या के गर्भ के बारे में पता चला था वह शर्मसार हो रहा था| कैसे दीना अंकल को धोखा दे सका वह ?जिन्होंने माता-पिता के बाद उसके भाई-बहनों के लिए भी  अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था?