Shuny se Shuny tak - 57 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 57

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शून्य से शून्य तक - भाग 57

57===

अगली सुबह फिर वैसी ही थी, रोज़ के जैसी, सबने साथ में नाश्ता किया| आशिमा नाश्ते की मेज़ पर ही आशी के लिए लाए हुए उपहार लेकर आ गई थी| क्या भरोसा, आशी दीदी नाश्ता करके नीचे से ही ऑफ़िस के लिए निकल जाएं, उनका बैग उनके हाथ में था जिसे आशिमा ने देख लिया था| 

उसने दो सुंदर वैस्टर्न ड्रैसेज़ और एक प्लेटिनम का बड़ा नफ़ीस सा नैकलेस आशी को दिया| 

“बहुत सुंदर है, वैरी डैलीकेट !” उसने प्रशंसा की लेकिन फिर बोली;

“तुम जानती हो, मैं कहाँ ये सब पहनती हूँ ? ”कहकर डिब्बा बंद करके आशिमा के हाथ में पकड़ा दिया| 

“पर दी, कभी तो पहनेंगी---”रेशमा ने बड़े प्यार से कहा| 

“नो, नैवर---”एक रूखा सा उत्तर उसके मुँह से निकला| 

सामने नाश्ता करते दीना और मनु का भी मुँह उतर गया| अरे! न पहनती, ले तो सकती ही थी| सबके मन में अलग-अलग तरह से यह बात उमड़ रही थी| 

सबके सामने आशी और मनु के विवाह की बात हो चुकी थी इसलिए दोनों लड़कियाँ बड़े उत्साह में आ गईं थीं किन्तु आशी का रूड उत्तर सुनकर दोनों उदास हो उठीं| आशी के उत्तर ने सबके मुँह पर पैबंद चिपका दिए थे| 

मनु और दीना या और किसी ने भी उससे कल देर से आने के बारे में उससे कोई बात नहीं की| आशी चाहती थी कि उससे इस बारे में बात की जाए और वह अपनी इंपोर्टेन्स दिखा सके लेकिन किसी ने उससे कुछ पूछा ही नहीं| 

“दीदी! कल आपको ढूँढने की कितनी कोशिश की, आपका मोबाईल भी बंद था| ”रेशमा ने अपने भोलेपन में कह दिया| 

“मैं कल बिज़ी थी। बाहर एक मीटिंग रखी हुई थी इसलिए मोबाइल भी बंद कर रखा था| ” वह बिना पूछे ही जैसे अपनी सफ़ाई दे रही थी| चाहती थी कि मनु या पापा उससे कुछ तो पूछें लेकिन वे चुप थे| 

“एक बात कहना चाहती हूँ पापा---”जब कोई कुछ न बोला तब आशी ने ज़बान खोली| 

सबके मुँह उसकी ओर उठ गए, आखिर वह कहना क्या चाहती होगी? 

“शादी की तारीख आप लोग तय कर लीजिएगा लेकिन शादी बिलकुल सादगी से होगी, कोर्ट में---”

जब से आशी ने शादी के लिए हाँ की थी तब से न जाने उसके पिता के मन में कितने लड्डू फूट रहे थे| आशी के ऐसा कहने पर उनके चेहरे पर निराशा छलक आई लेकिन इस लड़की से कुछ भी कहना व्यर्थ था| और---मनु के लिए तो इस शादी का कोई अर्थ ही नहीं था, उसके सामने तो आशी की शर्त जैसे मुँह बाए खड़ी थी जो जीवन भर ऐसी ही बनी रहने वाली थी| उसका मन सोचकर ही भीतर से घुटता रहता था किसी से शेयर करने की तो बात ही नहीं थी| 

सब नाश्ते के बाद चुपचाप उठकर अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए| आशी मन ही मन झूम रही थी जैसे, पता नहीं विधाता ने उसके दिमाग को कैसा बना दिया था कि उसे सबको मानसिक क्लेश देकर सुख की अनुभूति होती| कैसे हो सकता है इंसान इस प्रवृत्ति का? वह अपने आपको विजयी अनुभव करती, वाह ! उसके सामने कोई बोल भी नहीं पाता, क्या बात है !पापा भी नहीं, उन्हें तो बोलना चाहिए भी नहीं, कोई अधिकार नहीं है उन्हें बोलने का!

अपने कमरे में आकर माँ की तस्वीर के सामने खड़ी होकर वह सोच रही थी, ’आप दोनों ने मेरे साथ बड़ी नाइंसाफ़ी की है, अब मैं भी यही सब करूँगी न सबके साथ’मैं तो कोई बच्चा ही पैदा नहीं करूंगी जिससे वह मुझे गालियाँ दे ही नहीं सके’ठीक है, ज़रूरत भी क्या है? ये जो पापा को परिवार की इज़्ज़त का भूत चढ़ा रहता है और सहगल अंकल और आँटी ने जो तय किया था, उसके लिए शादी कर लूँगी लेकिन----इस लेकिन के पीछे न जाने कितना बड़ा बवंडर था!वह मन ही मन न जाने क्या-क्या योजनाएं बनाती रहती| 

दो दिनों बाद एक बार फिर से दीना जी ने बेटी के सामने शादी की चर्चा करने का प्रयत्न किया| 

“बेटा! ठीक है, सादगी से ही करना शादी लेकिन कोर्ट में ही क्यों? हमारे हिन्दु धर्म में तो सात फेरे होते हैं| ज़्यादा ताम झाम नहीं करेंगे, घर में ही सात फेरों से कर लेना| ”उन्होंने बेटी को समझाने की कोशिश की| 

“नहीं पापा, बिलकुल नहीं---”उसने तटस्थता से कहा| 

मनु तो कुछ बोलता ही नहीं था, उसने अपने आपको भाग्य के सहारे छोड़ दिया था| जैसा होगा, देखा जाएगा| उसने दीना अंकल के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें सांत्वना देने का प्रयास करते हुए कहा;

“आप चिंता न करें अंकल, सब ठीक होगा| ”दीनानाथ ने ज़बरदस्ती की मुस्कान अपने चेहरे पर ओढ़ने का प्रयत्न लिया| वे बेचारे एक हारे हुए पिता थे, कर भी क्या सकते थे| उनके लिए आशी का शादी के लिए मान जाना बहुत बड़ा उपकार था जैसे !

भाग्य की बलिहारी लेते हुए एक बेटी के बेचारे से पिता के रूप में दीना न जाने ईश्वर से कितने सवाल करते रहते| ऐसा जीवन क्यों आखिर भगवन्? बेटी को ऐसे ही छोड़कर चला जाऊँगा क्या? न जाने ऐसा क्या किया है मैंने? वे सोचते, साथ ही यह भी कि सोनी इन सब परेशानियों को देखने से बच गई, वह इतनी संवेदनशील थी कि बेटी की ऐसी दशा सह न पाती लेकिन वह होती तो यह सब होता ही नहीं !

मनुष्य का मस्तिष्क कभी खाली नहीं रहता, संवेदनाओं से भरा हुआ न जाने इधर से उधर कहाँ डोलता रहता है !!