Ret hote Rishtey - 10 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रेत होते रिश्ते - भाग 10

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रेत होते रिश्ते - भाग 10


आज मेरी छुट्टी थी। शाबान किसी काम से सुबह से ही घर से निकल गया था और कह गया था कि शाम तक ही लौटेगा। आरती को सुबह चाय पीते समय मैंने बताया था कि आज दोपहर को मैं थोड़ी देर के लिए केवल फिल्मसिटी जाऊँगा, बाकी आज मेरी छुट्टी ही है।
लगभग दस बजे नहाने-धोने के बाद वह मेरे पास आयी और बोली—‘‘भैया, यदि आज आपके पास थोड़ा समय हो तो मैं बाजार चलना चाहती हूँ?’’
‘‘चलूँगा।’’ मैंने तुरन्त कहा—‘‘क्या काम है? मेरा मतलब है कि हम लोग कहाँ चलें?’’
‘‘आप देख लीजिये, आजकल तो हर जगह हर चीज़ ही मिल जाती है। विशेष बाजार तो इनी-गिनी चीज़ों के ही रह गये हैं। बम्बई में उपनगरों का विकास वास्तव में ऐसा हो रहा है कि अपने एरिया में हर चीज़ मिल जाती है।’’ आरती ने शायद पड़ोस की लडक़ी से सुने संवाद दोहराये। नीलम के साथ उसकी काफी घनिष्ठता हो गयी थी।’’
‘‘फिर? यही बोरिवली स्टेशन चलें या आगे कहीं?’’
‘‘हम दादर चलेंगे।’’
‘‘ठीक है, तो चलो खाना खाकर ही निकलते हैं।’’ मैंने कहकर अपनी डायरी बन्द कर दी, जिसमें मैं कुछ जरूरी बातें नोट कर रहा था। आरती भी रसोई में चली गयी जहाँ तुकाराम खाने की तैयारी में जुटा हुआ था। आज आरती पास के मार्केट से स्वयं जाकर एक विशेष प्रकार की मछली लायी थी और स्वयं ही तैयार करने वाली थी। तुकाराम उसे बनाते हुए देखकर सीखने की कोशिश में उसके साथ लगा रहा। पड़ोस में रहने वाली उसकी सहेली नीलम को भी शायद उसने बुला लिया था। वह भी रसोई में आरती के नजदीक ही बैठी थी। दोनों की आवाज वहाँ से सुनायी दे रही थी। आरती जिस तरह जल्दी-जल्दी और लगातार बोल रही थी, उससे मुझे यह अनुमान हो रहा था कि पड़ोस में रहने वाली यह लडक़ी शायद आरती के विषय में हम लोगों से भी अधिक जान चुकी थी। हम लोगों के लिए तो आरती का परिचय इतना ही था कि वह विदेश से अरमान के साथ यहाँ आयी थी किन्तु अब इतने दिनों से यहाँ रहते-रहते आरती और मेरे सम्बन्ध बिलकुल भाई-बहन जैसे ही बन गये थे। उसने एक बहन की भाँति ही आकर हम सब लोगों की जिम्मेदारी सँभाल ली थी।
और अब मेरा व आरती का परिचय या रिश्ता अरमान के माध्यम से हुआ परिचय ही नहीं रह गया था। वैसे भी अरमान ने आरती के बारे में अब तक हम लोगों को एक उलझन के ही द्वार पर खड़ा कर दिया था। सब कुछ एक पहेली-सा था। लेकिन फिर भी इसलिए निभ जा रहा था कि हम सभी लोग अपने-अपने घर-परिवार से कटे, एक बेहद बेचारे महानगर में रह रहे थे। बम्बई की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यहाँ हरेक का हरेक से और कोई रिश्ता हो या न हो, कम-से-कम यह रिश्ता जरूर होता है कि हम बम्बईवासी हैं। यहाँ रहने वालों की गन्ध यहाँ रहने वाले दूर से भी सँूघ लेते हैं। यहाँ के रहवासी यहाँ के वाशिन्दों को मज्जा-मज्जा समझने लग जाते हैं। वे एक-दूसरे के प्रति और किसी रस में सराबोर हों या नहीं, हमदर्दी के रस में तो जरूर डूब ही जाते हैं। शायद इन्सानों के रहने की ऐसी जगहें बहुत थोड़ी हैं जहाँ इन्सान इस कदर बेचारा होकर रहता हो। बम्बई भी उन्हीं ठिकानों में अपनी औकात रखती है। बम्बई सागर और जमीन का मिलाप-स्थल भी है, इसी से यहाँ के रहने वालों में जल और थल के उभयचरों के शाप एक साथ आकर बस गये हैं। उन्हें बाहर से मछलियों, घोंघों और कंकड़ों की तरह खामोश रहने की आदत होती है तो भीतर-ही-भीतर से जिनावरों-पखेरूओं की भाँति चीखने-चिल्लाने की। और तो और, अब तो आसमानी अट्टालिकाओं के रहते बम्बईवालों में नभवरों जैसी विरक्ति भी रचने-बसने लगी है। आपाद-मस्तक माया में लिप्त संन्यासियों की नगरी है बम्बई।
मैंने कई बार सोचा कि आरती से उसके विगत के बारे में बातचीत करूँ, अरमान से उसके रिश्ते की पड़ताल करूँ, उनके भविष्य के प्लानों के बाबत पूछताछ करूँ; पर हर बार यही सोचकर रुक जाता कि कहीं आरती अन्यथा न ले ले। एक बहन कहीं अपने भाई के लिए यह न सोचने लगे कि वह उसे अपने पर बोझ समझ रहा है। इसी से ज्यादा गहराई से कभी कोई बात हो ही नहीं पायी—न मेरी ओर से और न आरती की ओर से।
जिस दिन से मुझे यह पता चला था कि आरती रोज डायरी लिखती है तब एक बार मेरे दिमाग में यह भी आया कि कभी मौका निकालकर आरती की डायरी ही पढऩे की कोशिश करूँ, शायद इससे आरती और अरमान के सम्बन्धों के विषय में कुछ जानने का मुझे अवसर मिले। पर यह मुझे आरती जैसी साफदिल और साफ-जुबाँ लडक़ी के प्रति नाइन्साफी लगती थी कि इस तरह चोरी से उसका आत्म-मन्थन पढ़ा जाये। वह तो उस तरह की लडक़ी थी कि यदि मैं स्वयं भी कभी उससे कहता कि मैं उसकी डायरी पढऩा चाहता हूँ तो शायद वह इनकार न करती। लेकिन मैं आरती को कभी इस धर्मसंकट में डालने का दुस्साहस भी नहीं कर पाया। यद्यपि हो सकता है कि जिस तरह मैं आरती के विषय में जानने को उत्सुक था उसी तरह वह स्वयं भी हम लोगों—मुझे और शाबान—को अपने विषय में बताने में रुचि रखती हो।
एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती थी, वह यह कि यह शाबान आरती और अरमान के रिश्ते को लेकर इतना ठंडा क्यों है? क्या इसे यह जानने की उतावली नहीं है कि अरमान का इस युवती से क्या रिश्ता है? और यदि कोई रिश्ता नहीं है तो इस रहस्यमय साथ के पीछे कौन-सी भावना है? कौन-सी मजबूरी है? शाबान को कभी मैंने आरती के विषय में बात करते हुए नहीं सुना। उसने मुझसे कभी इस बाबत कोई जिक्र नहीं किया। हो सकता था वह अरमान से अपनी उपेक्षा को लेकर अब तक नाराज हो, पर उसके व्यवहार में नाराजगी के कोई चिह्न भी तो नजर नहीं आते थे। वे दोनों आपस में भी जब बात करते थे तब केवल ऊपरी, दुनियादारी की सामान्य बातें। उन्हें गहराई से एक-दूसरे के परिवार के बारे में रस लेते या बातें करते मैंने कभी नहीं सुना। यदि आरती मेरे लिए इस सन्दर्भ में रहस्य थी तो शाबान भी तो एक पहेली से कम नहीं था; जबकि यह वही शाबान था जिसका-मेरा दोस्ताना बचपन से अब तक कायम था। लोग तो ऐसे दोस्त को लंगोटिया यार पुकारते हैं, पर यहाँ वास्तव में मेरा और शाबान का सम्बन्ध दो जिस्म-एक जान जैसा आज से नहीं, बचपन से था। इस विषय में यह बात मुझे खिजाती थी कि हम लोग ज्यादा देर तक बातचीत क्यों नहीं कर पाते हैं? क्यों नहीं शाबान जानने की कोशिश करता कि आखिर आरती के मन में क्या है, अरमान के मन में क्या है? आरती की छवि ऐसी नहीं थी कि उस पर क्रोध किया जा सके। उसे देखकर सारे प्रश्न धुँधले हो जाते थे। ऐसा लगता था कि यह कोई लिखा-गढ़ा अध्याय है जो सफा पलटने के साथ हमारे सामने आना मात्र शेष है।
ग्यारह बजे के आसपास मैं नहा-धोकर जब निकला तो रसोईघर से कुकर की आवाज और एक बहुत ही जायकेदार गंध आ रही थी। आरती और तुकाराम रसोई में ही थे।
तभी कॉलबेल बजी। तुकाराम ने लगभग दौड़ते हुए दरवाजा खोला। आरती भी देखने के लिए दरवाजे के समीप आयी। मैं नहाकर आने के कारण पूरे वस्त्रों में नहीं था, फिर भी भीतर के कमरे में जाते हुए मेरे कान उस आहट पर ही लगे हुए थे जो बाहर से आ रही थी। आवाज सुनकर आरती भी प्रसन्नता से भीतर आ गयी और मैंने भी झाँककर देखा।
अरमान और शाबान एक साथ आ गये थे। शाबान को अरमान के आने की कोई खबर नहीं थी, मगर संयोगवश वे बोरिवली स्टेशन पर मिल गये। शाबान भी घर पर तो यह कहकर गया था कि शाम तक लौटेगा—मगर न जाने क्यों, वह जल्दी ही लौट आया।
‘‘तुमने तो कमाल कर दिया; अरमान! ऐसे गाँव गये कि यहाँ लौटने की कोई फिक्र ही नहीं की?’’ मैंने कहा।
अरमान ने जवाब में आरती को और हम लोगों को बारी-बारी से बड़ी रहस्यमय नजरों से देखा, मानो वह यह आँकने का प्रयास कर रहा हो कि इतने दिनों तक साथ रहते-रहते हम आरती के विषय में कितना जान पाये हैं, और शायद उसने यही अनुमान लगा लिया था कि आपस में घुल-मिल जाने के बावजूद हम लोग आरती के अतीत का पृष्ठ बन्द ही किये बैठे हैं।
लेकिन अब मौका मिलते ही मैंने अरमान को घेर लिया। दरअसल शाबान का मूड आज न जाने क्यों उखड़ा उखड़ा-सा था। वह इसीलिए जल्दी ही लौट भी आया था। उसने खाना भी ढंग से नहीं खाया और गुमसुम-सा होकर सो गया। आरती और मैंने भी अब बाजार जाने का इरादा मुल्तवी कर दिया था और खाने आदि से निवृत्त होकर आरती पड़ोस में नीलम के यहाँ चली गयी थी। मुझे और अरमान को बात करने का अवसर तुरन्त ही मिल गया।
अरमान ने आरती को लेकर शुरू से आखिर तक का सारा किस्सा बयान कर डाला। उसने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा—‘‘भैया, आप यकीन करो, मैं इस पहेली को आपकी मदद से ही सुलझाना चाहता हूँ, इसलिए आपसे कुछ नहीं छिपाऊँगा। आप सब कुछ सुनकर जो कहेंगे, वही मैं करूँगा।’’
अरमान मुझे इस समय बेहद निरीह-सा लग रहा था, फिर भी उसे खींचने के लिए परिहास का ही सहारा लेकर मैंने कह डाला—‘‘अब और क्या बताओगे मुझे? भारत में अभी भी विदेशी खुलापन आम नहीं हुआ है। यहाँ लडक़े उसी लडक़ी के साथ हमबिस्तर होते हैं, जिसके साथ विवाह का इरादा रखते हैं। इरादा चाहे पूरा हो या न हो, यह अलग बात है।’’
अरमान मेरा मजाक समझकर झेंप गया लेकिन तुरन्त ही गम्भीर भी हो गया। फिर संजीदा होकर बोला—‘‘भैया, आरती के साथ यह बात न तो मैंने कभी सोची और न ही उसे इस तरह का आश्वासन कभी दिया। आप यकीन करें या न करें, मैं आपको साफ शब्दों में बताऊँगा कि आरती का गर्भ मुझसे सम्बन्धित नहीं है। न ही मैंने उसके साथ कभी कुछ किया है; हालाँकि इस बात पर कोई यकीन नहीं करेगा। पर आप मेरे लिए ‘कोई’ नहीं हैं, आप हैं। और मैं और किसी को सफाई दूँगा भी नहीं।’’ अरमान थोड़ा उत्तेजित हो गया था।
‘‘लेकिन अरमान, यह तो और भी गलत है न! विदेश की बात तुम जानो, यहाँ भी तुमने एक साथ एक ही बिस्तर पर होटल में रात काटी है।’’
‘‘छि: भैया, आप कौन-से जमाने की बात करते हैं। यदि आरती का केस सुनेंगे तो आपका भी वही हाल होगा जो मेरा हुआ। आज आप भारत की संस्कृति और रिवाज की दुहाई हमें दे रहे हैं लेकिन इसी भारत में आरती को क्या मिला है, यह सुनेंगे तो दंग रह जायेंगे। आरती के लिए मेरे मन में वही भाव है जो किसी दोस्त का दोस्त के लिए होता है। मैं जैसे आपके साथ एक बिस्तर में सोया हूँ, बस वैसे ही उसके साथ भी। रही आरती की बात, तो आरती के लिए शरीर और रिश्ते की कोई सीमा ही नहीं है। उसने तो जब से जिन्दगी में आँखें खोली हैं, लोगों को कुत्ते की तरह अपना बदन चाटते ही पाया है। स्वयं उसके माता-पिता ने उसकी यही तकदीर लिख दी थी। यह तो आरती ही थी जिसने जीवन-रथ की चाल को अपनी चाल नहीं समझा। संघर्ष किया और कीचड़ और गन्दगी अपने गिर्द से झाड़-बुहारकर फेंकी। हाँ, भैया, आरती देवदासी थी। उसे कर्नाटक में अपने एक मामा के पास भेजकर बाकायदा धर्म के दालान में अपना शरीर बिछाने की ट्रेनिंग दिलवायी गयी थी।’’ अरमान कँपकँपाते स्वर में बोला।
मैं हतप्रभ रह गया। अरमान भी बेहद भावुक और उत्तेजित हो उठा। यह जानकर मुझे गहरा धक्का लगा कि पाँच बहनों में सबसे छोटी होने के कारण आरती को शुरू से ही घर में बोझ समझा गया और समाज की इस तंगदिली पर आरती के वीतरागी मन की प्रतिक्रिया को देवदासी प्रथा की ओर उसके रुझान का पर्याय समझा गया। उसे बचपन से ही माँ-बाप से, सिवा जन्म के, और कुछ न मिला। आरती के मामा ने अपने साथ कर्नाटक ले जाकर उसकी परवरिश की। मामा के यहाँ भी उसे कोई संस्कारयुक्त माहौल न मिला। मामा एक दुकान में छोटी-सी नौकरी करता था। उसकी भी अपनी गृहस्थी थी। रुपये-पैसे की कोई इफरात-सुविधा न थी। यहाँ भी आरती की स्थिति घर में नौकरानी जैसी ही रही और गन्दे माहौल और पास-पड़ोस के बहती गंगा में हाथ धोने वाले शोहदों ने उसे छोटी-सी उम्र से ही ‘शरीर’ बना दिया। गन्दी बस्ती की बदबूदार हवा और पराये घर की गुरबत ने उसे अपने आपको एक मादा से अधिक कुछ सोचने का मौका ही नहीं दिया और ऐसे में ही न जाने कैसे अपनी विलक्षण बुद्धि के बल पर आरती ने थोड़ी-बहुत पढ़ाई कर ली। माँ-बाप ने कभी सुधि ली नहीं। जब-जब मिले भी तो आरती को एक बोझ होने का ही अहसास दिया उन्होंने।
आरती अपने पड़ोस के एक लडक़े के साथ एक बार दिखावे के विवाह-बन्धन में भी बाँधी गयी। लेकिन उम्र के तकाजे तक लडक़े ने देह के नमक का साथ निभाया, बस। और फिर अपनी ही दूर के रिश्ते की एक ननद की मदद से आरती जीवन- नैया में बहते हुए तिनके की तरह एक मन्दिर के चौखट पर देवदासी के रूप में पहुँच गयी। उसके जिस्म के मांस को नर जात के ब्रह्मभोज के लिए रिवाजों के बेड़े पहनाकर मुकर्रर कर दिया गया। माता-पिता भी वेश्या के बदले देवदासी शब्द अपनी जुबान पर ला पाने का सुभीता पा गये। और देवालयों के दालानों में दरिन्दों की थूथनों-जाँघों ने उसे न दीन का छोड़ा, न धरम का।
अरमान ने स्वयं उसकी डायरी में पढ़ा था कि धर्म-कर्म के पाखण्डियों ने अर्चना-पात्रों में दारू पीते हुए उसके साथ कुकर्मों के अनुभव उसे दिये। आरती की डायरी में उसकी एक दिल दहलाने वाली रात के साये ज्यों के त्यों आज भी दर्ज थे।
कर्नाटक के बेलगाँव जिले के एक मेले में वह अपने मन्दिर के दस-पन्द्रह आदमियों के एक दल के साथ लायी गयी थी, जहाँ बाकायदा पुजारीनुमा दलालों ने उसके और उसके साथ की तीन-चार अबला बेसहाराओं के गोश्त की दुकान खोल ली थी। आसमान ताकती निरीह औरत पर सात-सात आदमी कामदेव का अवतार लेकर एक रात में बरसे। बस, आरती के धैर्य की, गन्दगी और जलालत के उसके बरदाश्त की वह पराकाष्ठा थी। आरती उसी मेले से भाग ली। और योग-सुयोग से एक ऐसे विदेशी के हाथ पड़ी, जिसने कम-से-कम इस नरक से तो नाता तुड़वाने में पूरी मदद की ही। यद्यपि मुलाकात उससे भी कोई विशेष भविष्य जगानेवाली न रही, पर जल्दी ही आरती वह सीढ़ी चढ़ गयी जिसने उसे उस देश की सीमाओं से पर फैलाकर उड़ जाने की सहूलियत दे दी जो आज भी किताबों में सीता-सावित्री का देश कहलाता है पर बीसवीं सदी की ढलती बेला आरती ने जहाँ आदिमानवों की तरह जी।
आरती गोआ चली गयी। जीवन में नये सिरे से जीने का माद्दा जगाया और थोड़ा बहुत फायदा मिला अपने लिख-पढ़ जाने का। एक सैलानी, जो गोआ में सक पर घूमती आरती को केवल अपनी शाम को बहलाने के लिए पणजी के एक सिनेमाघर में ले गया, उसका ऐसा मददगार साबित हुआ कि अपने साथ सऊदी अरब उसे ले जाने और एक अस्पताल में छोटी-सी नौकरी दिलवाने तक का काम उसने अन्जाम दे दिया। आरती एक अकेला और पवित्र जीवन फिर पा गयी। कम-से-कम उसे वेश्या या कुल्टा या अधम मानकर हमेशा के लिए उसे त्याज्य बनाने वाला समाज उससे छूट गया। सैलानी ने आरती की मदद अवश्य की, लेकिन आरती की अपनी जिजीविषा ने भी कोई कम भूमिका नहीं निभायी। सैलानी उसे वहाँ बसा जाने के बाद ज्यादा समय वहाँ नहीं रहा—शायद और किसी देश में चला गया और वहीं बस गया। मुमकिन है कि वह जीवित भी न हो क्योंकि उसकी आरती को कोई खबर नहीं मिली। लेकिन आरती की डायरी में यह भी दर्ज है कि उस व्यक्ति ने शाम को अपने साथ सिनेमा में ले जाने और खाना खिलाने के अलावा और कोई लरिकसलोरी उसके साथ नहीं की।
यहीं आरती अरमान को मिली। परिचय हुआ। एक आत्मीय-सा सम्बन्ध भी बन गया। मित्रता कायम हो गयी। और एक बार आरती की डायरी पढ़ लेने के बाद भी जब अरमान ने आरती से उसी तरह मिलना-जुलना जारी रखा तो आरती का हौसला भी बढ़ा। आत्मीयता और तरल होती गयी। जल्दी ही आरती का यह भ्रम भी टूट गया कि विदेश में अकेला रह रहा यह युवा, सलोना या युवक उससे देह-गाथा के दो-चार सफे लिखने के लिए ही पींग बढ़ा रहा है। अरमान ने आरती को शरीर- साथी बनाने के बारे में कभी नहीं सोचा बल्कि एक ही देश के होने के कारण एक सहज आत्मीयता और दोस्ताना रिश्तों तक ही वे लोग सीमित रहे।
इधर आरती के जीवन में एक मोड़ और आया। उसने व्यवस्थित और आत्मनिर्भर हो जाने के बाद अपने शरीर के स्वाभाविक माँ बनने के सपने को पोसना शुरू किया। उसने यह सोचा कि विवाह हो या न हो, वह एक जीवन जरूर पाले-पोसे। और यह बात आरती ने अपनी डायरी में लिखी थी कि केवल यही एक राज़ उसकी डायरी में भी एकमात्र राज़ रहेगा कि यह बन्दोबस्त उसने कैसे किया। अरमान भी नहीं जानता था कि उसके पेट में गर्भ किसका है किन्तु इतना अवश्य है कि यह नाजायज हर्गिज नहीं था। आरती ने कभी बेइन्तिहा शरीर भोगे थे, मगर यहाँ बाते ही उसने पिछला सब कुछ घिनौने स्वप्न की तरह बिसरा-दुरदुराकर नया जीवन अख्तियार किया था। वह छिनाल नहीं थी। लेकिन उसने माँ बनने की ख्वाहिश पाली। यह गर्भ कृत्रिम गर्भाधान से था या उसने परदेश में किराये का पितृत्व हासिल किया था, यह वह राज ही रखना चाहती थी। वह गर्व से इसका जिक्र करती थी पर यह आग्रह करती थी कि इस राज की बाबत कभी उससे कोई कुछ न पूछे। यहाँ तक कि स्वयं भी इसे अपने आप से कभी न पूछने की कसम उसने ली थी कि उसके शरीर से नया शरीर या जीवन उगाने वाला कौन है। कौन-सा अधिकार उसे दिया गया है, कौन-सी क्रिया-विधि उसने अख्तियार की है, सब नितान्त राज रहेगा।
आरती ने अपनी खूबसूरत डायरी में बेबाकी से सब लिखा था और इसी में एक पृष्ठ पर थोड़ी-सी जगह खाली छोड़कर नीचे लिखा था कि जीवन में उसका कोई भी शुभचिन्तक, मित्र या जीवनसाथी भी, यह जानने की कोशिश न करे कि इन खाली पंक्तियों के हर्फ क्या हैं। यद्यपि उसने पूरी पाकीजगी से यह कसम भी दर्ज की है कि उसके होने वाले बच्चे के जनक का नाम या अस्तित्व कभी भी, कहीं भी, किसी के भी सामने उजागर नहीं होगा। और यह भी कि भविष्य में कोई भी दोगलापन, मिलावट या चारित्रिक पतन की स्थिति वह जीते-जी इस बच्चे के लिए नहीं आने देगी। उसे और उसकी सन्तान को जिन्दगी की एक इकाई मानकर स्वीकार करने की गुजारिश उसने उन सब अदृश्य जिन्दगियों से की थी जो कभी भी, किसी भी हैसियत से उसके जीवन में आयें।
यह सब अद्भुत था, अलौकिक था, अविश्वसनीय था। लेकिन था।
यदि हम या कोई और इस पर अविश्वास या शंका का कोई निशान टाँगें तो टाँगें, आरती ने तो कभी किसी से यह नहीं कहा कि उसके अस्तित्व के सारे दाग-धब्बे, रंग, नूर स्वीकार या अस्वीकार किये जायें। उसने कभी किसी से भी, किसी बात पर टिप्पणी करने या टिप्पणी सोचने की अपेक्षा नहीं की।
अरमान के साथ इस बातचीत के बाद आरती के प्रति श्रद्धा में इजाफा हुआ या नहीं, नहीं कहा जा सकता। क्योंकि हर व्यक्ति, हर दौर पर, हर शै के बारे में कह भी कहाँ पाता है। बहुत सारी चीज़ें तो हर वक्त के कतरे को ऐसे भी साथ में लेकर जीनी पड़ती ही हैं, जिन पर वक्त का व्याकरण नहीं फबता।
मैं और अरमान जाने कब तक इसी तरह बातों में खोये रहते यदि रसोई चाय के बरतनों की खनखनाहट और नीलम के घर से आरती के लौट आने की आहट सुनायी न दे जाती। आरती आ गयी और अब चाय का बन्दोबस्त कर रहीं थी। दोपहर ढलने को थी।
शाबान सोकर नहीं उठा था। उसे जगाया गया।
थोड़ी ही देर में हम सभी आमने-सामने बैठकर चाय पी रहे थे। शाबान की नींद पूरी हो जाने से चेहरे पर थोड़ी ताजगी जरूर आ गयी थी लेकिन अब भी थोड़ा तनाव और खिंचाव-सा दिखायी दे रहा था। वह अब भी चुप था और बातचीत में किसी किस्म की दिलचस्पी नहीं ले रहा था। ऐसा भी कोई चिह्न उसके व्यवहार में नहीं था कि वह नाराज या परेशान है। लेकिन वह सभी बातों को लेकर बेहद ठंडा रुख पाले हुए था।
शाम को आरती को नहाने की आदत तो थी ही, अरमान भी शायद इसी आदत का आदी था। शाम घिरते ही वे लोग व्यस्त हो गये। इस समय शाबान के निकट जाने की कोशिश करने का अवसर मुझे मिला। मैं छत पर चलने के लिए कहकर बाहर निकल लिया। शाम को काफी देर तक हम लोग छत पर बैठे बातें करते रहे। इधर-उधर की बातें, उसके काम-काज की बातें और गाँव की बातें।
शाबान ने बताया था कि गाँव में उसके पिता जो मकान बनवा रहे थे, उसका काम लगभग पूरा होने पर आ गया था। उसके पिता ने हाल ही में लिखे एक पत्र में मुझे भी दो-चार दिन के लिए शाबान और अरमान के साथ वहाँ आ जाने के लिए लिखा था।
शाबान ने बताया कि बनारस वाली उस लडक़ी का रिश्ता भी अस्वीकार कर दिया गया है और उन्हें इस बाबत सूचना भी दे दी गयी है। मैं निस्पृह होकर इस इकतरफा सूचनात्मक बातचीत को सुनता भर रहा। इसमें बातचीत की गुंजाइश भी नहीं थी। शाबान ने क्यों रिश्ता अस्वीकार कर दिया, क्यों उन लोगों को अस्वीकृति की इत्तिला दे दी गयी, यह सब स्पष्ट ही था। निश्चय ही शाबान आरती को ही अरमान की भावी पत्नी मान बैठा था। और उसके हिसाब से तो अरमान की औलाद भी आरती के गर्भ में आ गयी थी। शायद शाबान के उखड़े-उखड़े और बेचैन करने वाले व्यवहार के पीछे यही कारण हो कि जिस भाई को वह पिछले बीस साल से अपने ही शरीर की भाँति जानने का दम भरता था; वह आज दुनियादारी में काफी आगे निकल गया प्रतीत होता था। जिन भाइयों के कपड़ों में चड्डियाँ तक अलग-अलग नहीं होती थीं उनके दिलों में इतना फासला आ गया था कि जिन्दगी के अहम सवालों पर वे एक-दूसरे से बेखबर थे।
लेकिन भावुक होने के साथ-साथ शाबान जिस तरह ‘ब्रदर-फिक्सेशन’ का शिकार था, शायद अरमान नहीं था। यद्यपि आज दोपहर को अरमान के साथ मेरी जो खुली बातचीत हुई थी, उसके बाद यह मानना कठिन था कि अरमान भावुक नहीं है। अरमान ने भी अपनी गहरी और अलग जीवन-दृष्टि का परिचय आज मुझे दिया था। दोनों ही भाइयों की संजीदगी एक-दूसरे की मिसाल थी। फिर भी अरमान को मैं ज्यादा व्यावहारिक और दुनियादार पाता था।
रात को फिर वही हुआ। आरती ने बड़े मन-जतन से खाना बनाया, लेकिन शाबान खाकर अपने उसी दिनभर वाले मूड में रहा; बल्कि जल्दी ही वह अकेला दूसरे कमरे में जाकर सोने का उपक्रम भी करने लगा। मुझे ताज्जुब था कि इस तरह लगातार अकेले होते चले जाने के पीछे शाबान के मन में आखिर क्या था? शाबान को सोने की तैयारी करते देख आरती भी मायूस-सी होकर अपने कमरे में चली गयी।
मैं और अरमान बाहर घूमने के इरादे से फिर घर से बाहर निकल गये। चलते-चलते नजदीक के ही एक पार्क में हम लोग जा बैठे और काफी देर तक बातें करते रहे।
दोपहर की भावुकता और हतप्रभता पर हम दोनों ही नियन्त्रण पा चुके थे। हमदर्दी के उस तात्कालिक आलम से भी हम निजात पा चुके थे, जो दोपहर में आरती के प्रति हमारे दिलों में घर कर गया था। अब हम व्यावहारिक होकर सोच रहे थे।
‘‘लेकिन अरमान, आखिर तुमने सोचा क्या है आरती के बारे में?’’
‘‘आप बताइये, भैया!’’
‘‘तुम्हारी उससे इस बारे में कभी कोई बात तो हुई होगी?’’
‘‘एक बात कहूँ, आप बुरा तो नहीं मानेंगे!’’
‘‘मैं भला क्यों बुरा मानँूगा। न ही मुझे तुमसे या आरती से कोई परेशानी है। वह केवल मित्र की भाँति भी तुम्हारे साथ है तो चाहे जब तक यहाँ रहे।’’
‘‘यह बात नहीं है, भैया।’’
‘‘फिर..?’’
‘‘मैं चाहता हूँ कि आरती से शाबान भाई की शादी हो जाये।’’
‘‘मैं भौंचक्का रह गया। बोला—‘‘यह तुम क्या कह रहे हो?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘हाँ, इस ‘‘क्यों’ का तो मेरे पास भी कोई जवाब नहीं है। पर तुम दोनों ने आखिर एक-दूसरे को समझा क्या है? उसके लिए हफ्तों से एक रिश्ता आया पड़ा है जिसके लिए वह लडक़ी का फोटो यह कहकर साथ में लिये घूम रहा है कि इसकी शादी तुमसे करवायेगा। तुम परदेस से अपनी मित्र को उठा लाये हो कि इससे शाबान भाई शादी कर लें। मैं थोड़ा तल्ख हो गया। अपनी हैरत तल्खी में मुझे इस बात का अहसास भी नहीं रहा कि मैं अरमान से आरती के विषय में अशिष्ट तरीके से बोल गया।
अरमान एक पल को निरुत्तर हो गया। शायद उसे भी मेरा इस तरह बोलना अटपटा लगा हो। लेकिन तुरन्त ही वह संयत हो गया और उसी तरह सन्तुलित और संजीदा लहजे में बोला—
‘‘भैया, मुझे समझने की कोशिश कीजिये। आप बचपन से ही शाबान भाई को जानते हैं। कभी आपके दिल में इस बात का कोई उत्तर आया कि शाबान भाई हमेशा शादी से क्यों इनकार करते हैं? आप तो उन्हें अच्छी तरह जानते हैं। देखते भी रहते हैं। उनके लिए आने वाले हर रिश्ते को मेरी ओर बढ़ा देने के पीछे भला क्या मकसद है? क्यों शाबान भाई शादी और यहाँ तक लड़कियों से भी दूर भागते हैं? आखिर क्या कमी है उनमें?’’
अरमान इस तरह खुले तौर पर अपने दिल की बात जाहिर कर देगा इसके लिए मैं तैयार नहीं था। मुझे पलभर लगा सारी बात समझने में। फिर मैंने शाबान के विषय में अरमान द्वारा जाहिर की गयी शंका को हल्के-फुल्के ढंग से टालने की गरज से उसे समझाना शुरू किया।
‘‘देखो अरमान, जैसा तुम सोच रहे हो, वैसा कुछ नहीं है। असल में शाबान बहुत ही भावुक लडक़ा है। वह एक खास कॅरियर को लेकर बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी भी है। यह भी मैं जानता हूँ, जब इन्सान गहराई से इन बातों पर सोचता है तो वह कई साधारण या छोटी बातों से बेपरवाह हो जाता है, बल्कि मैं तो कहूँगा कि ऊपर उठ जाता है। जिस तरह एक आम लडक़ा युवा होते ही लड़कियों की ओर आकर्षित होता है और आर्थिक रूप से सक्षम होते ही शादी व गृहस्थी के लिए लालायित हो जाता है, वैसा शाबान के साथ नहीं है। वह बहुत संवेदनशील है। जीवन की शादी-गृहस्थी से भी ज्यादा अहम बातों पर सोचता है, उनमें जुड़ता है और साथ ही वह अभिनय को कॅरियर बनाना चाहता है जिसमें शादी एक बाधा ही बन सकती है, फिलहाल सहायक तो नहीं ही हो सकती।’’
अरमान ध्यान से मेरी बातें सुन तो रहा था, पर उसके चेहरे से स्पष्ट था कि वह मुझसे सहमत नहीं है। मैंने कहना जारी रखा—
‘‘फिर एक बात और है। वह तुम्हारे साथ भी एक खास किस्म के लगाव का शिकार है। इसे मेडिकल साइन्स ‘ब्रदर-फिक्सेशन’ नामक विकार मानती है। पर मैं तो इसे विकार या विकृति नहीं कहूँगा। यदि यह नैसर्गिक है तो इसमें हर्ज क्या है? इसमें ऐसा होता है कि हम किसी भी व्यक्ति से बहुत ही अन्तरंग किस्म का लगाव महसूस करते हैं। हम वस्तुत: दूसरे व्यक्ति के खाँचे में भी स्वयं अपने को ही देखते हैं। ऐसा माँ-बाप-भाई-बहन पुत्र आदि किसी भी मामले में हो सकता है। हम इसमें दूसरे व्यक्ति से इस हद तक जुड़ जाते हैं कि अवचेतन में उससे सम्बन्धित फैसले भी स्वयं करने लग जाते हैं और बदले में जब हमें वैसा ही व्यवहार अपने प्रति सामने वाले का नहीं मिलता तो हम क्षणिक रूप से आहत होने पर भी बदले या ईष्र्या जैसी कोई भावना उस व्यक्ति के प्रति मन में नहीं ला पाते जिसके लिए हम इस अतिरेकी लगाव के शिकार होते हैं। परिणामस्वरूप हमारा अपना व्यक्तित्व विलीन होता जाता है। और हम जाने-अनजाने उस व्यक्तित्व को ही ग्रहण करने की ओर बढ़ते जाते हैं। यह सम्मोहन कभी-कभी हमें सामान्य नहीं रहने देता और तब दु:खदायी भी हो जाता है जब जिन्दगी में ऐसे फैसले लेने का वक्त आता है कि जिन्दगी की धारा ही बदल जाती होती है। अर्थात् जीवन में किसी अन्य व्यक्ति का प्रवेश, प्यार या विवाह सम्बन्ध, ऐसे लोग विवश-से अवश्य हो जाते हैं पर उन्हें विकारी क्यों कहा जाये?’’
बोलते-बोलते मैं भूल गया कि इन दलीलों को कहीं अरमान, शाबान के पक्ष में, मेरी जिरह न समझे। अरमान ने मेरे रुकते ही फिर से वही बात दोहराई—‘‘आप मानें या न मानें, और सब कुछ ठीक है पर शाबान भाई में कोई-न-कोई शारीरिक कमजोरी भी है।’’
‘‘तुम कैसे कह सकते हो?’’
‘‘मैं इसका सबूत आपको दूँगा।’’
मैं स्तब्ध रह गया। अरमान जो कुछ कह रहा था, उसका गम्भीर अर्थ था। यद्यपि मेरा मानना यही था कि शाबान की मानसिकता एक खास किस्म की मानसिकता है और उसे आम नजर से नहीं आँका जा सकता। पर अरमान फिलहाल जो बात कह रहा था वह मानसिकता से नहीं बल्कि शारीरिकता से सम्बन्धित थी। यह भी तो हो सकता था कि शारीरिक दोष या विकार भी मानसिकता के बनने में प्रभावी कारक की भूमिका का निर्वाह करें। इस बात को इस तरह देखे जाने की भी पूरी गुंजाइश मौजूद थी कि जीवन में कोई सामान्य-सी कमी भी व्यक्ति को किसी हासिल के प्रति बेहद संजीदा और प्रयत्नशील बना देती है। कभी-कभी जीवनभर की महत्त्वाकांक्षा अपनी जिन्दगी के किसी खाली कोण को भरने के लिए ही होती है।
‘‘अरमान, यदि वास्तव में कोई ऐसा वाकया या अनुभव ऐसा है जिसे तुम ‘सबूत’ कह रहे हो तो उसकी जानकारी मुझे दो। क्या कभी कोई ऐसी बात हुई है कि जिसकी बिना पर हम शाबान के लिए यह सब सोचें? और वास्तव में ऐसा कुछ है भी तो क्या तुम्हें यह हक पहुँचता है कि तुम आरती की डोर शाबान से बाँधने के लिए प्रयत्नशील हो जाओ?’’
‘‘शाबान भाई बहुत खुले विचारों के हैं। वह आरती की कहानी पर उतना ही पसीजेंगे जितना आप या मैं। वह उसे बदचलन या बदनसीब नहीं कहेंगे।’’ अरमान ने गम्भीरता से कहा।
‘‘आरती की कहानी पर पसीजकर भी क्या तुम उससे विवाह के लिए तैयार हो? तुम पर आरती ने भरोसा किया है। तुमसे उसने दोस्ती की है। तुम्हारे साथ वह निर्भीक होकर एक बिस्तर में सोयी है। उसने अपनी डायरी तुम्हें दिखायी, पढऩे के लिए दी। तुम दोनों हिल-मिल चुके हो। एक-दूसरे को पहचान चुके हो। फिर तुम क्यों नहीं आरती से शादी का प्रस्ताव करते?’’
‘‘आप गलत समझ रहे हैं। मुझे भला क्या ऐतराज हो सकता है। मैं तो स्वयं इस मामले में खुले विचार रखता हूँ। लेकिन तब शाबान भाई किसी से भी शादी नहीं करेंगे। आप यह क्यों नहीं सोच पा रहे कि आरती और शाबान भाई दोनों एक-दूसरे के लिए योग्य-पात्र हो सकते हैं।’’
‘‘अरमान, शादी क्या शरीर के दो स्विचों में करेण्ट का बहना मात्र है? एक-दूसरे के विचार, व्यक्तित्व क्या कोई अहमियत नहीं रखते?’’
‘‘हमारे यहाँ जो सिस्टम है उसमें विचार-व्यक्तित्व के लिए कोई जगह ही कहाँ है, यह सब तो भाग्य का नाम देकर बाद में ही लाया जाता है। आरम्भ में तो दो विपरीत ध्रुव ही ढूँढ़कर मिलाने का काम होता है।’’ अरमान ने कहा।
अरमान बड़ा हो गया था। अरमान समझदार हो गया था, यह मुझे आज भली-भाँति महसूस हो रहा था। मैंने कहा—
‘‘तुम्हें यकीन है कि शाबान और आरती इस रूप में एक-दूसरे को पसन्द करेंगे?’’
‘‘एक बार देखने में हर्ज भी क्या है। हम ठीक उसी तरह विचार करें, जिस तरह शाबान भाई के लिए बाकी रिश्ते आ रहे हैं। उन्हें भी तो फोटो और लडक़ी के रंग-रूप की बिना पर ही देखा जा रहा है। व्यक्तित्व-विचार तो बाद ही में पता चलेंगे। बस, हम लोग इसी तरह एक बार आरती का रिश्ता भी शाबान भाई के लिए उनके सामने लायें। आरती को भी मेरा कोई कमिटमेंट या आश्वासन तो है नहीं, वह तो दोस्ताने में मेरे साथ भारत आयी है। वह गर्भवती है। कुछ महीनों में बच्चे को जन्म देगी। हम लोग इस बात का पूरा फायदा उठा सकते हैं कि हम सभी अपने-अपने घर से काफी दूर हैं। वहाँ वही बात जायेगी जो हम ले जायेंगे। उसी तरह जायेगी, जिस तरह हम चाहेंगे।’’ अरमान बोला।
अरमान के सन्तुलित सोच और तर्क पर मैं अचम्भित था। मुझे वास्तव में यकीन नहीं हो रहा था कि ऊपर से मस्तमौला दिखने वाला यह भोला-सा लडक़ा इतना गहरा और संजीदा है। कुछ ही सालों ने अरमान में बड़े परिवर्तन ला दिये थे। मैंने अरमान के कन्धे पर हाथ रख दिया।
‘चलें’, मैंने कहा तो वह भी कलाई पर बँधी घड़ी में समय देखने लगा। हम सोच उठ लिये। पार्क भी अब काफी वीरान हो गया था। काफी कम लोग वहाँ पर थे, यद्यपि कुछ लोग अभी भी लॉन में यहाँ-वहाँ बैठे थे। नजदीक ही पार्क के सामने वाली सड़क पर कुछ लडक़े तेज लाइट के बल्ब लगाकर बैडमिण्टन खेल रहे थे। वहीं से कुछ आवाजें आ रही थीं। आस-पास की दुकानें तो सभी बन्द हो चुकी थीं मगर कुछ खोमचेवाले अब भी यहाँ-वहाँ घूम रहे थे। उनकी बिक्री अब भी जारी थी। सड़क की स्ट्रीट लाइटें रात गहरा जाने के बाद और भी मुस्तैद होकर जल रही प्रतीत हो रही थीं।
हम लोग घर पहुँचे तो आरती को प्रतीक्षा में जागते हुए ही पाया। वह बाहर ही टहल रही थी। दरबाजे की आहट और पड़ोस के फ्लैट की हलचल से ही ऐसा लग रहा था कि शायद नीलम अभी कुछ ही देर पहले आरती के पास से वापस गयी होगी।
शाबान बिस्तर पर लेटा हुआ कोई किताब पढ़ रहा था। वह सोया नहीं था। या सम्भवत: कुछ देर सोकर उठ गया हो। इस बात के कोई चिह्न नहीं थे कि शाबान और आरती में कुछ बातचीत हुई हो। दोनों एक-दूसरे से बेखबर-से ही लग रहे थे। हाँ, तुकाराम भी अब तक सोया नहीं था और शाबान के पास बैठा हुआ उसके पैर दबा रहा था। शाबान ने हम लोगों को देखते ही किताब बन्द करके रख दी।
‘‘क्या पैर बहुत दर्द कर रहे हैं? आज वैसे भी तुम काफी थके-थके-से लग रहे हो।’’ मैंने शाबान से कहा। मैं दिनभर की उसकी चुप्पी और सुस्ती की टोह भी पाना चाहता था।
‘‘नहीं, दर्द-वर्द कुछ नहीं है। यह तुकाराम खुद ही आकर बोला, आपके पैर दबा दूँ। थोड़ी मालिश भी कर दी पैरों की।’’
‘अच्छा’, अब मैं तुकाराम से मुखातिब हुआ, ‘‘आज तुझे अब तक नींद कैसे नहीं आयी?’’ जब मैंने उससे कहा तो वह चुपचाप बाहर की ओर निकल गया। आरती ने बताया कि आज यह भी दोपहर को काफी देर सो लिया है। तुकाराम ने लाकर सभी को पानी पिलाया और फिर खुद ही कॉफी बनाने के लिए किचन में चला गया।
हम चारों एक साथ बैठकर ताश खेलने लगे। यह ताश बहुत कीमती थे। आरती ने मुझे दिये थे।