Second Wife - 3 in Hindi Women Focused by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | सेकेण्ड वाइफ़ - भाग 3

Featured Books
  • द्वारावती - 73

    73नदी के प्रवाह में बहता हुआ उत्सव किसी अज्ञात स्थल पर पहुँच...

  • जंगल - भाग 10

    बात खत्म नहीं हुई थी। कौन कहता है, ज़िन्दगी कितने नुकिले सिरे...

  • My Devil Hubby Rebirth Love - 53

    अब आगे रूही ने रूद्र को शर्ट उतारते हुए देखा उसने अपनी नजर र...

  • बैरी पिया.... - 56

    अब तक : सीमा " पता नही मैम... । कई बार बेचारे को मारा पीटा भ...

  • साथिया - 127

    नेहा और आनंद के जाने  के बादसांझ तुरंत अपने कमरे में चली गई...

Categories
Share

सेकेण्ड वाइफ़ - भाग 3

भाग-3

प्रदीप श्रीवास्तव

मैं बोलने ही जा रहा था कि अचानक ही उसने अपनी मध्यम हील की गुलाबी सी चप्पल पहनी और बाएँ मुड़ कर गैलरी में आगे बढ़ गई। मैं ग़ौर से उन्हें जाते हुए देखता रह गया। मुझे याद आया कि सहपाठिनी को भी ऐसे ही देखता रह जाता था। मैं एक बार पुनः प्रयास करने के लिए फिर प्रस्थान बिंदु पर खड़ा था।

उनके जाते ही मेरे मन में आया कि मैं भी उसी ओर जाऊँ जिधर वह गई हैं। फिर सोचा उससे पहले मैं लड़के से बात करना शुरू करूँ। लेकिन उसने माँ के जाते ही उनका मोबाइल उठाकर गेम खेलना शुरू कर दिया। ट्रेन अपनी रफ़्तार में चली जा रही थी, मैं भी अपने आप को रोक नहीं पाया। चला गया उसी ओर।

वह मुझे दरवाज़े पर दोनों हैंडिल पकड़े खड़ी मिलीं। यह देख कर मैंने सोचा इतनी स्पीड में चलती ट्रेन के दरवाज़े पर खड़े होकर बाहर देखना तो बहुत बड़ी मूर्खता है। यह ऐसी मूर्खता क्यों कर रही हैं। फोन पर किसने इनसे क्या कह दिया है कि यह अपनी बेचैनी या ग़ुस्सा दूर करने के लिए ऐसा जानलेवा क़दम उठा रही हैं।

वह कभी बाएँ देखतीं, कभी दाहिने। सी-पिन में कसे उनके बाल तेज़ हवा के कारण ढीले हो चुके थे। वह इतनी लापरवाही के साथ खड़ी थीं कि देख कर कोई भी सहम उठता। मैंने बहुत ट्रेन यात्रायें की हैं लेकिन किसी महिला को कभी ऐसी मूर्खता करते नहीं देखा था।

मैंने सोचा इनसे कहूँ कि ऐसा न करें, यह बहुत ख़तरनाक है। जानलेवा है। फिर यह सोच कर रुक गया कि अचानक आवाज़ सुनकर इनका संतुलन बिगड़ सकता है। मैं कुछ देर देखता रहा फिर हल्के से खाँसते हुए टॉयलेट में चला गया कि कहीं श्वेत-सुंदरी यह न समझ लें कि मैं पीछे खड़ा उन्हें देख रहा था। टॉयलेट जाने की ज़रूरत नहीं थी लेकिन मैं दरवाज़े को तेज़ी से बंद करके उसकी आवाज़ से उनका ध्यान अंदर खींचना चाहता था।

मगर दो मिनट बाद जब मैं निकला तब भी वह मुझे वहीं पर, उसी तरह खड़ी मिलीं। मन ही मन सोचा यार इन्होंने तो मूर्खता की हद कर दी है। चलो कह ही देता हूँ कि अंदर आ जाइए। मगर उनकी स्थिति और गाड़ी की स्पीड देखकर किसी अनहोनी होने की आशंका के कारण चुप रहा। फिर सोचा अचानक ही इनका हाथ पकड़ कर झटके से अंदर खींच लूँ। फिर ठहर गया कि ऐसे में यह कोई हमला समझ कर प्रतिक्रिया में पीछे पलट कर नीचे गिर सकती हैं।

मैं ऐसी तमाम नकारात्मक बातों से परेशान होकर अपनी सीट की ओर चल दिया। बच्चा गेम खेलने में लगा हुआ था। कुछ सोच कर मैं दूसरे वाले बच्चे की सामने वाली सीट पर जाकर बैठ गया। मेरा मुँह श्वेत-सुंदरी के दरवाज़े की तरफ़ था। मैं यह सोचकर ही ऐसे बैठा था कि जब वह आएँगी तो उनसे यह ज़रूर कहूँगा कि आप बहुत हाई रिस्क के साथ खड़ी हुई थीं। ऐसा करना जानलेवा है।

मुझे अपनी योजना के साथ बैठे हुए दो मिनट ही हुआ होगा कि वह बड़े आराम से आकर अपनी जगह पर बैठ गईं। मैं ठीक से उधर देख भी नहीं सका। उन्होंने बैठते ही बालों से सी-पिन निकाला, कंघी करके फिर लगा लिया। पैर फिर ऊपर करके बैठ गईं। उनका चेहरा बड़े बेटे की खिड़की की तरफ़ था, और पीठ मेरी तरफ़। मैं उन पर एक नज़र डालकर खिड़की से बाहर देखने लगा।

मुझे एक आश्चर्य भी हुआ कि इन माँ-बेटों के बीच बातचीत नहीं होती क्या, जैसे अन्य मासूम बच्चों और माँ के बीच होती रहती है। छोटे वाले ने भी माँ के बैग से एक मोबाइल निकालकर खेलना शुरू कर दिया था। मैं ऊब कर अपनी सीट पर जाने की सोच कर फिर बैठ गया कि इससे ये यह सोच सकती हैं कि मैं इनके पीछे पड़ा हुआ हूँ, इसलिए यहाँ थोड़ा समय बिता दूँ। थोड़ी देर में ट्रेन अगले स्टेशन पर खड़ी हो गई।

मैंने सोचा देखूँ अब ये क्या करती हैं। प्लेटफ़ॉर्म उन्हीं की तरफ़ था। मेरे दिमाग़ में आया कि अपनी जगह पहुँचने का यह सही समय है। मन में यह सोच कर उठा कि चाय वाले को बुलाता हूँ और माँ-बेटों को ऑफ़र करता हूँ, मगर मेरे खड़े होने के साथ ही वह भी खड़ी हो गईं, मैं अपनी सीट की तरफ़ और वह बाहर की तरफ़ निकल गईं। निकलते समय उनका कंधा मेरी बाँहों को छू गया था।

उनके चले जाने से मुझे बड़ी निराशा हुई। अपनी जगह बैठ तो गया लेकिन चाय नहीं ली। एक चाय वाला चाय-चाय करता हुआ खिड़की की बग़ल से निकल गया। वह वापस तब आईं जब ट्रेन चलने लगी थी। जब आईं तब उन्हें देखकर मुझे लगा कि जैसे उनके चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान खिली हुई है। चिढ़ा रही हैं, मुझे ही टारगेट कर रही हैं। मैंने सोचा कि कहीं ये यह तो नहीं समझ रही हैं कि मैं इनसे बात करने के लिए बहुत लालायित हूँ।

दिमाग़ में यह बात आते ही मैं खिड़की से बाहर देखने लगा। मैंने सोचा ये श्वेत-सुंदरी इतनी घमंड में क्यों है? इन्हें अगर अपनी सुंदरता का घमंड है, तो अब मैं इनकी तरफ़ देखूँगा भी नहीं। धनश्री इन कंजई श्वेत-सुंदरी महोदया से कहीं ज़्यादा सुंदर है। लेकिन वो घमंडी नहीं है। हाँ अपनी सुंदरता बार-बार शीशे में देखती रहती है बस।

सारे दोस्त जानबूझकर मेरे सामने उसकी सुंदरता की रिकॉर्ड-तोड़ तारीफ़ करते हैं। एक ने तो तारीफ़ का सहारा लेकर जब अपनी गंदी विकृत भावना प्रकट की, कि काश मिसेज एक्सचेंज करने की परंपरा होती तो मैं भाभी जी को देखते ही बदल लेता।

उसकी इस गंदी भावना पर मैं कोई प्रतिक्रिया देता कि, उससे पहले ही वह प्रचंड देवी सी फूट पड़ी थी। उसे तमाम अपशब्द कहते हुए थप्पड़ मारने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ गई थी। यदि मैंने बीच में ही उसे पकड़ न लिया होता तो उसने उसे थप्पड़ मार ही दिया था।

आख़िर उसने एक तरह से उसे धक्के देते हुए घर से बाहर निकाला था। नाश्ता तक पूरा ख़त्म नहीं होने दिया था। उसके जाने के बाद मुझ पर एकदम से फट पड़ी और कहा कि, ‘फिर कभी अपने किसी भी कमीने दोस्त को घर की तरफ़ भी लेकर मत आना। अंदर आने की तो बात ही नहीं है। मैं ऐसे गंदे इंसानों को देखते ही उनका सिर फोड़ दूँगी। मैं तुमको साफ़-साफ़ बता रही हूँ कि तुम्हारे ये की-स्वैपिंग गेम के प्लेयर फ़्रैंड अगर दोबारा मुझे दिख गए तो मैं इनकी आँखों में चाकू घुसेड़ दूँगी।’

उससे ऑफ़िस वालों की बातें करते समय मैं ही बताता था कि कैसे कुछ लोगों ने एक सीक्रेट क्लब बनाया हुआ है। जिसके सदस्य वाईफ़ स्वैपिंग का खेल खेलते हैं। इनमें से दो-तीन मुझे भी कई बार गेम में शामिल होने के लिए कह चुके हैं।

पहली बार सुनते ही उसने कहा था कि ऐसे लोगों को कभी घर मत लाना। लेकिन मैंने सोचा कि कभी-कभार अगर घर आकर यह लोग, चाय-पानी कर लेते हैं तो उससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। इन सब के जाते ही मिसेज़ बार-बार कहती थी कि, ‘तुम मेरी बात मानते क्यों नहीं। यह सब जितनी देर रहते हैं, उतनी देर घूर-घूर कर मुझे देखते रहते हैं।' वह मेरी बात पर विश्वास नहीं कर पाती थी कि, मैं ऐसे लोगों को बुलाता नहीं, यह लोग ख़ुद ही जब देखो तब, बिना बताए चले आते हैं, ऐसे में घर से भगा तो नहीं सकता न।'

गाड़ी पूरी रफ़्तार में चलती चली जा रही थी और मैं अपनी अतीव सुंदर पत्नी से श्वेत-सुंदरी की तुलना कर रहा था। मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जिन्हें हमेशा दूसरों की पत्नी बहुत सुंदर लगती है और उन्हीं में रुचि लेते हैं।

श्वेत-सुंदरी में भी मैं कोई रुचि नहीं ले रहा था, बस एक उत्सुकता थी कि मैं उनसे बार-बार मिला हूँ। ‘कहाँ?’ यही याद कर रहा था। ‘कहाँ?’ का उत्तर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैंने बरसों से भूली हुई अपनी नथुनी वाली सहपाठिनी को याद कर लिया था। उससे जुड़ी हुई कितनी ही बातें याद आती चली जा रही थीं।

कितने ही भूले-भुलाए लोगों को याद कर लिया। पैसेंजर ट्रेन कभी तेज़, तो कभी कच्छप गति से चलकर रात नौ बजे लखनऊ पहुँच गई। लेकिन मुझे ‘कहाँ?’ का उत्तर नहीं मिला। इसके बावजूद मैं मानने तो क्या, सोचने को भी तैयार नहीं हुआ कि यह मेरा एक भ्रम है कि मैं श्वेत-सुंदरी से कहीं मिला हूँ, कई-कई बार मिला हूँ।

मैं उनके पीछे-पीछे ही ट्रेन से नीचे उतरा। दोनों बच्चों के साथ वह बाहर के लिए चलने लगीं। बच्चे उनके आगे-आगे चल रहे थे। तभी मैंने सोचा कि अब बस कुछ ही मिनट का समय बचा है, बात नहीं की तो ‘कहाँ?’ का उत्तर मुझे जीवन में कभी नहीं मिल पाएगा।

मैं तेज़ चलने लगा कि उन तक पहुँच जाऊँ और उनसे कहूँ, मैं पहले भी कहीं आप से मिल चुका हूँ। मुझे याद नहीं आ रहा है, आपको कुछ याद है क्या? आप यहीं लखनऊ की रहने वाली हैं। मैं उनसे बालिश्त भर की दूरी पर रह गया था कि तभी टिकट चेकिंग पॉइंट आ गया। उन्होंने टिकट चेक कराए और आगे बाहर निकल गईं।

मैं जहाँ से शुरू हुआ था अपने को फिर वहीं खड़ा पाया। स्टेशन से बाहर पहुँच कर उन्होंने मोबाइल निकाला और एक कैब बुलाई। मैं उनसे कुछ क़दम पीछे था। कैब मैंने भी बुला ली थी। मैंने सोचा जब-तक कैब आएगी तब-तक दो मिनट बात कर ही लेते हैं, जो होगा देखा जाएगा।

मैं यह सोच ही रहा था कि श्वेत-सुंदरी पलट कर एकदम से मेरे सामने आकर खड़ी हो गईं। मात्र बालिश्त भर की दूरी पर। वह मेरे इतने क़रीब थीं कि उनकी साँसें मेरी ठुड्डी से टकरा रही थीं। वह मेरी आँखों में देख रही थीं। उनकी आँखों, चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान की लहरें हिलोरें मार रही थीं।

उनकी अकस्मात इस हरकत से मैं थोड़ा सकपका गया कि यह मुझे पीछा करने वाला समझकर झाड़ने तो नहीं आई हैं। क़रीब दो सेकेण्ड तक मेरी आँखों में देखने के बाद वह शब्द को एकदम चबाती हुई बोलीं, ‘कायर’ इसके साथ ही उनकी आँखों में क्रोध की ज्वालाएँ सी फूट पड़ीं। मुझे लगा जैसे उनका शरीर क्रोध से काँपने लगा है।

वह आगे भी एक-एक शब्द चबाती हुई बोलीं, 'तुम कायर ना होते तो आज मेरे इन दोनों बच्चों के फ़ादर होते। सालों-साल जिसकी चोटी से खेलते रहे, उसकी नथुनिया पर गाना गाते रहे, जिसके साथ खाते-पीते रहे, पिछले चौदह घंटे से दो फुट की दूरी पर बैठकर भी पहचान नहीं पाए। इतना कन्फ़्यूज़न कि आगे-पीछे, आगे-पीछे होते रहे लेकिन एक बार भी बोलने की हिम्मत नहीं कर सके। स्कूल में भी कहती थी थोड़ा फ़्रैंक बनो, बोल्ड बनो। लेकिन मैं बेवकूफ़ थी, ग़लत थी। एक कायर कभी भी बोल्ड और फ़्रैंक नहीं बन सकता।'

यह सारी बातें उन्होंने बहुत ही फ़्लावरी अंग्रेज़ी में कहीं। मेरा ध्यान उनकी बातों से ज़्यादा इस तरफ़ था कि 'कहाँ?' का उत्तर मुझे मिल गया था। वह वही थीं जो ग्रेजुएशन तक मेरे साथ रहीं। फिर उनका निक़ाह हुआ और उसके बाद कभी नहीं मिलीं।

मैं उनसे बहुत बात करना चाहता था। अपनी बात शुरू ही करने जा रहा था लेकिन वह बीच में ही अपना मोबाइल नंबर देती हुई बोलीं, 'मैं रात एक बजे से तीन बजे के बीच तुम्हारी कॉल का वेट करूँगी। कॉल करोगे तभी कोई बात करूँगी वरना बिल्कुल नहीं। मुझे तो लगता है कि तुम उन्हीं लोगों में से हो, जो अपनी मिसेज़ के पास भी जाने से पहले पूछते हैं कि क्या मैं आ जाऊँ?'

तभी उनकी कैब आ गई और वह बिजली सी उसमें बैठ कर चली गईं। पैकिंग पेपर पर लिखे उनके नंबर को मैंने एक बार देखा और जेब में रख लिया। मेरी भी कैब आ गई थी।

रास्ते भर मेरे दिमाग़ में उनका यह सेंटेंस गूँजता रहा कि, 'यदि तुम कायर नहीं होते, तो मेरे इन दोनों बच्चों के फ़ादर होते।'

मुझे उनकी यह बात बहुत बुरी लगी कि मैं कायर हूँ। मैंने सोचा यदि मैं कायर था तो आपने कौन सी बड़ी बहादुरी दिखायी थी। जब-तक मिलीं एक बार भी खुलकर यह प्रकट नहीं किया कि मुझसे शादी करना चाहती हैं।

जिस तरह से मिलती, बोलती थीं उसमें किसी क्लोज़ फ़्रेंड से ज़्यादा कोई और बात झलकती ही नहीं थी। मेरे मन में भी कुछ चाहत नाइंथ में पहुँचते-पहुँचते पैदा हुई थी, लेकिन यह इतनी गहरी नहीं थी कि शादी की सोचता।

देर रात में ही बात हो सकती है उनकी यह शर्त भी मेरे लिए अबूझ पहेली बन गई। घर पहुँच कर मैंने पत्नी बच्चों से ख़ूब बातचीत की। खाना-पीना सब कुछ हुआ। लेकिन पत्नी को लापरवाही के लिए डाँटना है यह भूल गया।

याद रहा तो बस इतना कि, देर रात उनसे बात करनी है। यह बात तब भी दिमाग़ में घूमती रही जब पत्नी कई दिनों बाद मिलने के कारण बहुत आंतरिक क्षणों को जीने के लिए पास आई। वह क्षण जीते हुए भी उनकी बातें दिमाग़ में बनी रहीं।

पत्नी के सो जाने के बाद उनकी बातें ज़्यादा बेचैन करने लगीं। जल्दी एक बजे इसकी प्रतीक्षा करने लगा। साढ़े बारह बज गए थे। मैं थका हुआ भी बहुत था। आँखों में नींद भी बहुत थी, लेकिन मैं उनसे बात किये बिना सोना नहीं चाहता था। क्योंकि मैं उनसे यह जानना चाहता था कि जब वह मुझ से शादी करना चाहती थीं तो सही समय पर अपनी इच्छा ज़ाहिर क्यों नहीं की।

मैंने तो यह नहीं सोचा था। तुम्हारे मन में यह बात थी तो तुम्हें आगे आकर यह बताना चाहिए था। मैं यदि तब भी आगे नहीं आता, तब तुम मुझे कायर कह सकती थीं। लेकिन संयोग से आज बीस वर्ष बाद मिलने पर कह रही हो। यह जानते हुए भी कि अब इन बातों का कोई मतलब नहीं रह गया है।

मेरे मन में बहुत सी बातें उठ रही थीं। मैं उनसे एक बार बात करके यह जान लेना चाहता था कि उन्होंने समय पर अपनी बात क्यों नहीं कही। अब कहने के पीछे उद्देश्य क्या है? हस्बैंड के रहते ऐसी बात कहने का उनका मतलब क्या है? मन में संशय यह भी उठा कि कहीं इनके हस्बैंड ने हमारी बातें सुन लीं तो इनका दाम्पत्य जीवन डिस्टर्ब हो सकता है।