Dwaraavati - 20 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 20

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द्वारावती - 20






20

मोहन भूमि को खोदने लगा। उसकी ध्वनि से आकर्षित कुछ बालक वहाँ आ गए, कौतुक द्रष्टि से देखने लगे। केशव भी आ गया।
“रुको, रुको मोहन काका।” मोहन रुक गया।
“मित्रों, यह मोहन काका है। आज से वह इस भूमि पर खेती करेंगे। कुछ वृक्ष उगाएँगे। क्या हम सब उसका साथ देंगे?”
“हां।” अनेक ध्वनि एक साथ गूँज उठी।
“चलो हम भी मोहन काका की सहायता करते हैं।” सब दौड़े।
“रुको। ऐसे नहीं। मोहन काका, सबसे पहले धरती को वंदन करते है। उसकी पूजा करते हैं। धरती से अनुमति माँगते है। उसकी प्रार्थना करते हैं। तत् पश्चात हम कार्य करेंगे।”
“हां, शास्त्र का यही विधान है।” एक बालक ने कहा।”
सभी विद्यार्थी धरती पर आसन लगाकर बैठ गए। पूजा की सामग्री आ गई। मंत्रोचार होने लगे।
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमंडले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभयम पाद स्पर्शम क्षमस्वमे ।।
पूजा अर्चना सम्पन्न हुई। सबने हाथ जोड़े और एक स्वर में प्रार्थना की।
हे भूमि माता। एक बीज से अनेक धान्य देने वाली भूमि, तुम्हें हम प्रणाम करते हैं। हम हमारे परिश्रम से तुम्हारा सिंचन करेंगे। जल भी सिंचित करेंगे। तुम हमें हमारे श्रम का फल देना। तुम्हारी कृपा हम पर सदैव बरसाते रहना।
सभी ने भूमि को दण्डवत वंदन किया। मोहन ने भी।
“काका, अब आप कार्य कर सकते हैं।” एक ने कहा।
“हम सभी आपके साथ काम करेंगे।” दूसरे ने कहा। सबने प्रतिध्वनि से सहमति दी।
“बच्चों, आप सब का धन्यवाद। परंतु आपका काम है अभ्यास करना, पढ़ाई करना। यह काम मेरा है। हम सब को अपने अपने काम स्वयं करने चाहिए।”
सभी विद्यार्थी चले गए। गुल सारे उपक्रम को देखती रही। प्रत्येक बात को समझने का प्रयास करती रही। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। वह बस देखे जा रही थी। मन में उसके अनेक प्रश्न थे, मुख पर विस्मय।
काका काम करते रहे। गुल उसे दिखती रही। विचार करती रही, ‘मैं क्या करूँ यहाँ रहकर? मैं तो घर चली जाऊँगी। कल से यहाँ नहीं आऊँगी।’ दिवस व्यतीत हो गया।
प्रभात होते ही काका गुरुकुल जाने लगे।
“गुल, गुरुकुल चलोगी मेरे साथ?”
“नहीं। मेरा वहाँ कुछ काम नहीं है। मैं तो यहीं रहूँगी।”
काका चले गए। चंचल गुल समुद्र के तट पर चलने लगी। तरंगों से क्रीड़ा करने लगी। जब थक गयी तो तट की कन्दरा पर बैठ गई। समुद्र की ध्वनि सुनने लगी। धीरे धीरे समुद्र की ध्वनि के साथ साथ उसे ओम् का नाद भी सुनाई देने लगा।
‘यह तो वही गीत है जो केशव गाता है। यह केशव ही गा रहा है। कितना अच्छा गाता है वह। मैं चलती हूँ केशव के पास।’
गुल केशव के सम्मुख आ गई। केशव आँख बंध कर वही प्रणव नाद का गान कर रहा था। गुल के आगमन से वह अनभिज्ञ था। गुल ठीक उसके सम्मुख बैठ गई। आँखें बंद करके प्रणव नाद को सुनने लगी।
“ओम्, ओम्, ओम्....”
दोनों अपनी अपनी स्थिति में स्थिर थे, प्रसन्न थे। एक तरफ़ समुद्र की ध्वनि, बहती हवा की ध्वनि, तथा ओम् के नाद की ध्वनि। दूसरी तरफ़ गुल का अविचल, अटल मौन।एक अनूठा क्षण था वह। समय उस क्षण में निहित हो गया। वह अपनी गति भूल गया।
केशव का ओम् नाद सम्पन्न हुआ। उसने आँखें खोली। अपने सम्मुख गुल को पाया। वह अभी भी आँखें बंद कर बैठी थी। वह मौन थी, स्थिर थी। केशव स्वयं से कहने लगा,
‘गुल यहाँ? कब से बैठी होगी? आँखें क्यूँ बंद कर रखी है। स्थिर सी क्यूँ है? गुरुजी कहते हैं कि जब मनुष्य समाधि में होता है तब वह मौन होता है, स्थिर होता है, अविचल होता है। अन्य सभी बातों से अनभिज्ञ होता है। गुल भी ऐसे ही प्रतीत हो रही है। क्या गुल समाधि में है? मुझे गुल को पूछना चाहिए।’
‘नहीं केशव, गुरुजी ने यह भी कहा था कि किसी समाधिस्थ मनुष्य को समाधि से जगाना उचित नहीं है। जब उसकी समाधि स्वयं ही टूटे तभी उससे कोई बात करना चाहो तो कर सकते हो। तब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए।’
‘यही सत्य है। मैं भी गुल की समाधि टूटने तक प्रतीक्षा करूँगा।’
केशव मौन हो गया, शांत हो गया। उसके विचारों का शमन हो गया। वह गुल की समाधि टूटने की प्रतीक्षा करने लगा। गुल को देखता रहा।
गुल की समाधि तूटी, उसने आँखें खोली। ओम् का नाद पूर्ण हो चुका था, केवल जलधि की तरंगों का नाद सुनाई दे रहा था। वह संगीत भी सुंदर था।
“गुल, तुम किस समाधि में चली गई थी?”
“मैं तो कहीं नहीं गई, यहीं हूँ। तुम्हारे सामने बैठी तुम्हारा मधुर गीत सुन रही थी।”
“मैं समाधि की बात कर रहा हूँ।”
“यह समाधि कहाँ है? मैं वहाँ कभी नहीं गई।”
“समाधि कीसी स्थल का नाम नहीं है।”
“केशव अभी तो तुमने कहा था कि मैं समाधि में चली गई थी। अब कहते हो कि समाधि कोई स्थल नहीं। तुम मुझे ....।”
“गुल, तुम समाधि ...।”
“यह समाधि है क्या, केशव?”
“समाधि, यह...।” केशव रुक गया। ‘इसे समाधि के विषय में क्या ज्ञान होगा? अभी तो इसे ओम् का भी ज्ञान नहीं है। ओम् नाद को वह गीत मानती है। अभी उससे समाधि के विषय में बात करनी उचित नहीं है।’
“गुल, तुम्हें मेरा गीत पसंद आता है?”
“हां।”
“मुझे ऐसे अनेक गीत आते हैं।”
“अनेक गीत? यह अनेक कितने होते हैं?”
“अनेक ...अनेक होते हैं। जैसे...जैसे...एक से अधिक होते हैं। दूसरा, तीसरा, चौथा, ऐसे गिनते जाओ। तुम्हें दूसरा गीत सुनाऊँ?”
“कौन सिखाता है यह सब गीत?”
“कल तुम गुरुकुल आइ थी। वहाँ हम यह गीत सीखते हैं।”
“मुझे भी सीखने हैं यह गीत। चलो गुरुकुल चलते हैं।”
“कुछ क्षण के लिए रुक जाओ। मैं सूर्य देव की पूजा कर लूँ।”
केशव ने सूर्य वंदना की, अर्घ्य अर्पण किए।
“चलो, गुल।”
केशव के साथ साथ गुल भी गुरुकुल की तरफ़ चल पड़ी। कुछ ही अंतर चले हि थे कि गुल दौड़ कर जाने लगी।
“गुरुकुल इस दिशा में है, गुल।”
“नहीं केशव, मैं गुरुकुल नहीं जा रही। मैं तो घर जा रही हूँ।” गुल दूर चली गई।
‘तो गुल का घर इस दिशा में है। घर। घर तो मेरा भी है। दूर, कहीं दूर।’
‘कितना दूर होगा?’
‘मुझे नहीं है इसका संज्ञान। तीन वर्ष हो गए मुझे मेरे घर वाले यहाँ छोड गए। तीन वर्ष से मैं घर नहीं गया। यह गुरुकुल ही मेरा घर बन गया। अब तो मुझे मेरे गाँव का नाम भी स्मरण नहीं रहा। कोई सम्बंध भी नहीं है मेरी स्मृति में। वहाँ भी मेरे मित्र थे, एक? नहीं, दो चार? आठ भी होंगे। किंतु अभी उनमें से किसी का भी स्मरण क्यूँ नहीं हो रहा?’
केशव ने प्रयास किया किंतु उसे कुछ भी याद नहीं आया।
‘यह गुरुकुल ही मेरा घर है, कुलपति ही मेरे पिता है, साथी विद्यार्थी ही मेरे मित्र।’
‘केशव, गुल भी तुम्हारी मित्र है।’
‘गुल? नहीं नहीं। वह मेरी मित्र कैसे हो सकती है?’
‘क्यूँ नहीं हो सकती?’
‘क्यूँ कि वह एक कन्या है और मैं एक बालक। किसी बालक की मित्र कोई कन्या कैसे हो सकती है?’
‘तुम ऐसी बातों में ना पड़ो, केशव। तुम उससे मित्रता करो, उसकी मित्रता का स्वीकार करो।’
‘परंतु वह तो मेरी मित्रता का स्वीकार नहीं करेगी।’
‘करेगी, अवश्य करेगी।’
‘कैसे कर सकती है? यदि वह मेरी मित्र होती तो इस प्रकार मेरे साथ गुरुकुल चलने के बदले दौड़कर घर चली न जाती। देखो। वह घर चली गई है। इस रेत को देखो। रेत पर उसके पैरों के चिन्ह अंकित हो गए हैं।’
केशव उन पदचिह्नों को देखता रहा। भीनी रेत पर शीघ्रता से दौड़ रहे छोटे छोटे पदचिन्ह। घर की दिशा में जाते हुए पदचिह्न। केशव उसे निहारता रहा। कुछ ही क्षण में जल की एक तरंग आइ, सभी पदचिह्न को मिटाकर लौट गई।
‘अब यहाँ कोई पदचिह्न नहीं है। तरंग ने उसे मिटा दिया है।’
‘समय की तरंग ने मेरे गाँव के स्मरणों को भी इसी भाँति मिटा दिया है।’
‘यही सत्य है। चलो छोड़ो इन बातों को। गुरुकुल जाना है तुम्हें।’
वह लौट गया।