Dwaraavati - 19 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 19

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द्वारावती - 19




19

“यह हमारे कुलपति हैं।” अब्बू ने दो हाथ जोड़ दिए। गुल कक्ष को देखने लगी।
“केशव ने मुझे सारी घटना बताई है। तुम मांसाहार का त्याग कर रहे हो, मछलियों का व्यापार भी छोड़ रहे हो। यह बात सुनकर प्रसन्नता हुई। किंतु अब काम क्या करोगे? परिवार का पालन कैसे होगा?” कुलपति के शब्दों से अब्बू आशंकित हो गए।
“केशव ने कहा था कि आप मुझे…?” आगे शब्द नहीं सूझे उसे।
“मैं क्या सहायता कर सकता हूँ?”
“मुझे नहीं पता। मैं तो बस केशव के भरोसे आ गया।”
“यदि मैं कोई सहायता ना करूँ तो?”
“तो मुझे उस पर भरोसा है कि जिसने पेट दिया है वह खाना भी देगा।”
“तो क्या तुम वही काम करोगे जो अभी तक करते आए हो? वही मछलियाँ मारना, मांसाहार करना?”
“आपने कुछ राह नहीं दिखायी तो मैं यहाँ से चला जाऊँगा।”
“किंतु काम क्या करोगे? यही…?”
अब्बू कुछ क्षण मौन हो गए। गहन विचार के पश्चात बोले, “नहीं, मैं आज तक जो काम करता आया हूँ वह नहीं करूँगा।”
“तो क्या करोगे? और कोई विकल्प है तुम्हारे पास?”
“अभी तो कोई नहीं। किंतु पाप का काम अब नहीं करूँगा।”
“तब तो तुम्हारा परिवार भूख से मर जाएगा। क्या तब भी तुम वह काम नहीं करोगे?”
“नहीं। एक बार उस पाप के काम को छोड दिया है तो बस छोड़ दिया। अब मैं कभी उस मार्ग पर नहीं जाऊँगा।”
“क्या यह तुम्हारा निश्चय है?”
“कुछ भी हो जाय, मैं वह कार्य नहीं करूँगा।” उसने गुल के माथे पर हाथ रखा, “मेरी बेटी की क़सम। मैं पाप नहीं करूँगा।”
“तुम्हारे इस दृढ़ निश्चय से प्रसन्नता हुई। किंतु वत्स, पुरुष का सबसे पहला कर्तव्य है परिवार का पालन करना। उसके लिए वह जो भी कर्म करता है वह ना तो पाप है ना पुण्य है। बस वह केवल उसका कर्तव्य है। तुमने अपने कर्तव्य को उचित रूप से किया है।”
“मैं कुछ समझा नहीं, कुलपति जी। आप की बात सुनकर मेरा मन भटक रहा है।”
“मैं तुम्हें भटका नहीं रहा हूँ।” कुलपति मौन हो गए।
“मेरे लिए क्या आदेश है?”
“केशव, आज इनके पूरे परिवार के लिए भोजन का प्रबंध गुरुकुल से करना है। दोनों समय के लिए। तुम उसके घर भोजन लेकर जाओगे।”
“किंतु...।”
कुलपति चले गए।
“मैं भोजन लेकर आऊँगा। आपका घर कहाँ है वह मुझे ज्ञात नहीं है। तो हम वही कन्दरा पर मिलेंगे।” केशव भी चला गया। गुल के परिवार ने गुरुकुल से आए भोजन को ग्रहण किया।
प्रभात होते ही गुल के साथ अब्बू गुरुकुल दौड़ आए।
“कुलपति जी, आपने जो भोजन दिया था वह अब हम नहीं लेंगे।”
“क्या वह भोजन पर्याप्त नहीं था? अथवा स्वादिष्ट नहीं था।”
“वह आवश्यकता से अधिक था और अत्यंत स्वादिष्ट भी था।”
“तो कहो क्या समस्या है?”
“गुरु जी, रात्रि भर मैं सो नहीं पाया, मेरी बेगम भी नहीं सो पायी।”
“और गुल?”
“वह तो अभी बालक है।”
“ठीक है। कहो क्या समस्या है?”
“बिना महेनत के भोजन लेना ठीक नहीं है। यह भी तो पाप है।”
“तो क्या करोगे अब? भूख से कैसे बचोगे? कहाँ से होगा भोजन का प्रबंध?”
“मुझे कुछ नहीं सुझ रहा। आप मुझे कहें मैं क्या करूँ?”
“कोई काम ढूँढ लो।”
“मैं कोई भी काम करने को तैयार हूँ। इस गुरुकुल में मेरे लिए कोई काम होगा तो मैं वह भी कर लूँगा।किंतु बिना परिश्रम के, बिना हक्क का कुछ नहीं लूँगा।” अब्बू हाथ जोड़े आँखों में अश्रु लिए, शीश झुकाए कुलपति के सामने खड़े हो गए। गुल को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। वह आश्चर्य से सब देख रही थी। अपने अबोध मन से बातों को समझने का प्रयास कर रही थी किंतु विफल हो रही थी।
“यह गुरुकुल विशाल है। यहाँ अनेक विद्यार्थी रहते हैं। शिक्षा ग्रहण करते हैं। अपना अधिकांश काम स्वयं वही करते हैं। फिर भी करने के लिए भी कई काम है। तुम केशव के साथ पूरे गुरुकुल को देख लो और बताओ कि तुम कौन सा कार्य कर सकते हो?”
वह केशव के साथ पूरा गुरुकुल देखकर लौट आए।
“कहो कौन सा काम तुम कर सकोगे?”
“कोई भी काम जो आप कहोही वह मैं करूँगा।”
“वत्स, अपने लिए उचित काम का चयन आप स्वयं करो।”
“किंतु...।”
“ऐसा करने से उस कार्य में तुम्हारी रुचि बनी रहेगी। जिस कार्य में रुचि हो उसे करने में प्रसन्नता मिलती है। क्या तुम प्रसन्न होना नहीं चाहते?”
“ऐसा कौन सा व्यक्ति होगा जो प्रसन्न होना नहीं चाहता?”
“तो कहो वत्स, कौन सा कार्य चुना है तुमने?”
“वैसे तो गुरुकुल के प्रत्येक कार्य को यहाँ पढ़ रहे बालकों ने बाँट लिया है। ऐसे में मेरे लिए कोई काम नहीं बचता। किंतु एक कार्य करने की इच्छा है। क्या उसके लिए आपकी अनुमति प्राप्त होगी?”
“कहो कौन सा ऐसा कार्य है?”
“विद्यार्थियों के अभ्यास कक्ष के पीछे कुछ खुली ज़मीन पड़ी है। उस पर कुछ वृक्ष उगाना चाहता हूँ। आप का क्या विचार है?”
“तुम्हारा विचार तो उत्तम है किंतु तुम जानते ही हो कि यह भूमि समुद्र तट के अत्यंत समीप है। धरती के भीतर समुद्र का खारापन भी होगा। ऐसी धरती पर कोई वृक्ष कैसे उगेगा? और यदि तुम इसके लिए प्रयास करो तो भी वह अधिक श्रम का कार्य है। उपरांत उसकी सफलता अनिश्चित है। ऐसा कठिन कार्य कर सकोगे?”
“कितना भी कठिन क्यूँ ना हो, मैं करूँगा। आपके आशीर्वाद मिलेंगे तो सफलता भी मिलेगी।”
“तो कहो इस भूमि में क्या उग सकता है?”
“यहाँ से कुछ दूरी पर एक गाँव है, वरवाला। वहाँ के किसानों के बगीचे में चीकू, केले, निम्बू, आम आदि के वृक्ष मैंने देखे हैं। यह सब यहाँ भी उग सकते हैं।”
“तुम्हारा विचार उत्तम है। क्या तुम इस श्रम के लिए तैयार हो?”
“आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा है, कुलपति जी।”
“आज्ञा है वत्स। तुम कल से इस काम का प्रारम्भ कर सकते हो।”
“कल से? आज से क्यूँ नहीं?”
“तुम आज से ही कार्य प्रारम्भ कर सकते हो।”
“धन्यवाद।” अब्बू ने दो हाथ जोड़ अभिवादन किया और कक्ष से जाने लगे।
कुलपति जी ने उन्हें पुकारा, “तुमने यही काम क्यों चुना ?”
“यही मेरे पापों का पश्चाताप होगा।”
“वह कैसे?”
“आज तक मैंने जीव हत्या की है। मांसाहार किया है। अनेक अबोल जीव के जीवन को नष्ट किया है। उसका पश्चाताप यही होगा कि मैं संसार के जीवों को जीवन दूँ। मेरे इस कार्य से अनेक वृक्ष उगेंगे। जिसमें अनेक पंखी अपना घर बनाएँगे। उसे छाया मिलेगी। वृक्ष के साथ साथ अनेक जीव को शरण मिलेगी। मैंने जितने जीवों को मारा है उससे अनेक गुना जीव को आश्रय मिलेगा तभी मेरा पाप धुलेगा।”
“जिसे अपने पापों का ज्ञान हो जाय, जो उसका प्रायश्चित कर ले, वह पुण्यात्मा होता है। तुम पुण्यात्मा हो वत्स।”
“यह सभी आपकी कृपा का फल है।”
“क्या नाम है तुम्हारा वत्स।”
“आप मुझे जो भी नाम से पुकारे आज से वही मेरा नाम होगा।”
“नहीं वत्स। तुम अपना नाम कहो।”
“सुना है मोहन नाम भगवान कृष्ण का नाम है।” अब्बू ने मंदिर की तरफ़ मुख किया और दोनों हाथ जोड़ वंदन किया, “क्या आप मुझे मोहन कहकर पुकारोगे?”
“मोहन सुंदर नाम है। किंतु, तुम्हें अपने मूल नाम को छिपाने की आवश्यकता नहीं है। कहो क्या है नाम तुम्हारा?”
“मोहम्मद है नाम मेरा।”
“यह भी सुंदर नाम है।”
“आप मुझे मोहन ही कहो। वाह रे प्रभु। तेरी लीला अपरम्पार है। आज एक पापी मोहम्मद, मोहन बन गया।”
“तुम ज्ञानी भी हो मोहन।”
“जी। किंतु अभी भी एक प्रश्न हो रहा है।”
“कहो क्या है वह?”
“गुरुकुल में आप ने मुझे जो काम करने का आज अवसर दिया वह अवसर आप कल भी दे सकते थे। कल आपने मुझे काम क्यों नहीं दिया?”
“यदि मैं कल ही काम पर रख लेता तो तुम्हारे भीतर जो जागा है वह नहीं जागता। तुम बिना परिश्रम के, बिना अधिकार के किसी भी वस्तु को ग्रहण करना नहीं चाहते हो यह बात की प्रतीति ना तो तुम्हें होती और ना ही मुझे होती। हम दोनों को इस कार्य का मूल्य समज ही नहीं आता। हम दोनों इसे सहज मान लेते। सहज का कोई मूल्य नहीं होता।”
“मैं समाज गया। अब आपकी अनुमति चाहूँगा।”
“तुम्हारा कल्याण हो, मोहन।