Circus - 14 in Hindi Moral Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | सर्कस - 14

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सर्कस - 14

 

                                                                                        सर्कस : १४

 

          सुबह हो गई। अपना रोज का काम खतम करने के बाद मैं बाहर आ गया। नहाने के बाद कमरे में बैठना मुश्किल हो जाता था। शुरू-शुरू में बाकी लोगों की ओैर जानवरों की आवाज से बहुत परेशान रहा। नींद ही नही आती थी। घर में मेरे लिए स्वतंत्र कमरा था तो किसी के साथ उसमे भागीदारी करने की कभी नौबत नही आयी, लेकिन धीरे-धीरे दिनभर काम की थकान से झट से नींद आने लगी। व्यक्ती को हर चीज की आदत हो ही जाती है। हम सब साथी नाश्ता खतम कर के कसरत की जगह पहुँच गए। विक्रमभाई साइकिल के कसरत शुरू थे उस जगह ले गए। तीन लडके ओैर चार लडकियाँ साइकिल की प्रॅक्टिस कर रहे थे। वैसे तो चार लडके होते थे लेकिन आज ही उसमें से एक लडका झुले के कसरत में शामिल हो गया था तो उस जगह मुझे लाया गया। उन लडकों में एक नेपाली था। विक्रमभाई ने सब से पहचान कर दी ओैर वहाँ से चले गए।

    “ क्या रे साइकिल चलानी आती है क्या ? या वहाँ से शुरू करे ?” व्यंक्या बडी बेमुर्दवत से बोला ओैर सब हँसने लगे। मैं समझ गया यह खुदको यहाँ का बॉस समझता है। पहिले ही उसको सबक सिखाना जरूरी है नही तो यह सिर पर बैठ जाएगा। आतेही इसे अपना दम दिखाना जरूरी है।

     “ गली में साइकिल चलाने वाले लोगों को जादा दिमाख दिखाना जरूरी नही, मैं स्टेट लेव्हल का साइकिल चॅम्पियन हूँ।” ऐसे आविर्भाव की या जबाब की किसीने अपेक्षा नही की होगी, ओैर मेरी देहयष्टि देखते किसीने मुझसे पंगा लेने की जुर्रत नही की। व्यंका फिर नरमाईसे पेश आया, यह देखकर सब खुश हो गए। व्यंका शायद सबको परेशान करता होगा। विकास सामने आया, शायद वह सबको संभाल लेता था। मैं एक-एक अनुमान लगाने की कोशिश करने लगा। विकास ने एक साइकिल मुझे दी ओैर पहले उसपर दस राऊंड लगाने के लिए कहा। फिर हाथ छोडकर दस राऊंड लगवाए। कॉलनी में हम दोस्त साइकिल चलाते तो यह खेल हमेशा खेलते थे, तो यह आसान था। बाद में साइकिल पर खडे रहकर कैसे चक्कर लगाने है यह विकास बताने लगा लेकिन यह तो मुश्किल था, बहुत प्रॅक्टिस के बाद शायद मैं परफॉम कर पाऊँ। आखरी में सबने साइकिल पर चढकर मनोरा बनाया। मैं तो सिर्फ देखनेवालों में था। इस खेल के लिए बहुत प्रॅक्टिस चाहिए तभी कर पाना संभव था। व्यंक्या मुझपर खुन्नस दिखा रहा था। जहाँ मैं खडा था उसी बाजू से साइकिल ले रहा था, एक-दो बार मैं पीछे भी हो गया फिर ध्यान में आया वह जानबुझ कर ऐसा कर रहा है तो तिसरी बार मैने उसे हुल दे दी ओैर वही पर खडा रहा। ऐसा कुछ होगा यह उसने सोचा ही नही, तो घबराकर गिर गया। बाकी कोई नही हँसे मैं अकेला ही हँसने लगा, अपमान से लाल हुआ व्यंक्या वहाँ से चला गया। कभी ना कभी यह लडका मुझे हानी पहुँचाने की कोशिश जरूर करेगा, इससे सावधानी बरतनी पडेगी यह बात मैं जान गया। प्रॅक्टिस खतम हो गई, भुख के कारण सब रसोईघर जाते दिखाई देने लगे। मेरे पिछे से विकास आया ओैर साथ में चलने लगा। सिधा-साधा बंदा था मुझे अच्छा लगा। उसने भी व्यंक्या के बारे में कुछ नही कहा ओैर मैने भी। ऐसी बाते तो सब जगह होती रहती है, उसमें से ही राह निकालकर चलना पडता है यह बात हम समझे, इतने तो परिपक्व थे। तुम कहाँ से आए, कैसे आए ऐसी बाते करते-करते रसोईघर से दालबाटी ली ओैर अपनी जगह पर जा बैठे। मैंने कभी दालबाटी खायी नही थी तो कैसे खाते है वह विकास समझाने लगा। एक बाटी के तुकडे करते हुए उसमें दाल परोस दी ओैर वह खाने लगा। मैंने भी उसका अनुकरण किया।

      बादलों से घिरी हुई हवाँ में ठंडापन ओैर तुफानी बारिश का अनुमान किया जा रहा था। आज पब्लिक एकदम कम दिखाई देने लगी, इस वजह से सबके उत्साह में कमी हो गई। ‘बट शो मस्ट गो ऑन’, धीरज, मन्या, चिंटू मेरी राह ही देख रहे थे। मन्या एकदम से बोला “ श्रव्या, आज व्यंकया ने तुझसे ठीक से बरताव नही किया ? अब देखता हूँ साले की तरफ।” मन्या एक बार गुस्से में आ गया तो किसी की नही सुनता था।

     “ मन्या, छोड यार मैने भी अच्छा सबक सिखाया उसको। शांती से काम ले। अगर कुछ जादा ही सताने लगा तो मैं तुम्हे बता दुँगा।” यह सुनकर मन्या शांत हो गया ओैर खाना खाने लगा। धीरज ने चिंताभरी नजर से मेरी तरफ देखा तो आँखों से ही उसे सब ठीक है का इशारा कर दिया। पिंटु ने कहा “ आज तुम्हे जानवरों के विभाग के तरफ जाने के लिए कहा है ना ? चल फिर मेरे साथ उनको पानी पिलाना है। अरुणसर ने तुम्हे वहाँ ले जाने के लिए मुझे कहा है। पहला शो खतम होने के बाद खाना खाकर वहा जाएँगे। मैने हाँ कर दी ओैर सब अपने-अपने काम में लग गए।

     मेकप लगाना था। साइकिलस्वार के खेल, शो में पहले ही रहते थे तो जलदी तैयार होना था। खेल खतम होने के बाद सिलाई विभाग में जाने के लिए अरुणसर ने बताकर रखा था। जाते-जाते धीरज ने शरदचाचाजी से पहचान करा दी। पचास के आस-पास उम्र होगी उनकी। सिर पर गंजापन, ऐनक के पीछे से मुस्कुराती आँखे कही अपनापन दिखा रही थी। ये शरदचाचा ओैर यह शरदचाची धीरज ने बताया तो मैं चौंक गया तो सब हँसने लगे। दोनों पती-पत्नी सिलाई का काम करते थे। कभी गोदाक्का को रसोईघर में मदद चाहिये हो तो वह बिना झिझक शरदचाची को बताती थी ओैर वह भी झटसे उनकी मदद कर देती थी। तुम्हारा खेल खतम होने के बाद यहाँ आ जाना ऐसे कहते हुए वह काम पर लग गए।

      मैं भी मेकप रूम में गया, श्वेता के सामने की कुर्सी खाली दिखी तो झटसे वहाँ बैठ गया। टोनिंग करते-करते श्वेता बात करने लगी। यहाँ हर कोई अपनी कहानी बताने के लिए उत्सुक था, सिर्फ सुननेवाले की कमी थी। अपने दिल का बोझ किसी को सुनाकर मन हलका करने की इच्छा शायद सभी को होगी।

     “ तुम्हे पता है श्रवण मैं यहाँ कैसे आ गई ?” उसे मुझसे कोई जबाब भी नही चाहिये था, वह बात करती गई। “ मैं बरहाणपुर की हूँ। कॉलेज में थी तब एक दिन शाम को ट्यूशन खतम कर के घर वापीस आ रही थी। मेरे साथ हमेशा दो-तीन सहेलियाँ रहती थी लेकिन उस दिन बारिश की वजह से कोई ट्यूशन नही आयी तो अकेली घर जा रही थी। इतने में पिछेसे एक कार आयी ओैर मेरे पास रुक गई। उसमें चार लोग बैठे थे, एक औरत भी थी। वह बोली इतनी बारिश में कहाँ अकेली जाती हो हमारे साथ आ जाओ हम छोड देंगे। मेरे हाँ-ना से पहले ही उस औरत ने मुझे गाडी में खिंच लिया। कार में एक औरत है यह सोचकर मैं निश्चिंत थी। घर का रास्ता उनको बताती रही। इतने में मुझे ध्यान में आया कार तो कही ओर जगह ही जा रही है। मैने चिल्लाना शुरू किया, वैसे उस औरत ने मुझे जोरसे थप्पड लगाई ओैर मुँह में कपडा ठुँस दिया। बाकी लोगों ने मेरे हाथ-पैर बाँध दिये। ड्राइव्हर गाडी चलाता रहा। आँखों से मिन्नते करती रही लेकिन किसी ने मेरी तरफ ध्यान भी नही दिया। मेरा अपहरण हुआ था, पेपर में जो पढते थे वह आज मेरे साथ हुआ है यह बात मैं जान गई। घर की याद से असह्य पीडा होने लगी। माँ-पिताजी, भाई-बहन सबको मन ही मन पुकारने लगी। वह ड्राइव्हर लगभग छे घंटे गाडी चलाता रहा। जैसे शहर के बाहर हम आ गए, उस औरत ने मेरे मुँह का कपडा निकाल दिया ओैर चुपचाप रहना वरना जान से मारने की धमकी दी। भगवान की प्रार्थना करते चुपचाप बैठ गई। जहाँ पोलिस चौकी आती वहाँ मेरे पीठ पिछे चक्कू लगाकर रख देती। एक छोटे गाव में गाडी आ गई, गाव के बाहर बहुत पुराना मकान था। शायद कोई वहाँ आता-जाता भी नही होगा। खिंचकर गाडी से बाहर निकाला ओैर एक अंधेरे कमरे में मुझे ढकेल दिया। शुरू में तो कुछ दिखाई ही नही दिया, इतने में किसी का हाँथ लग गया वैसे मैं जोरसे चिल्लायी। धीरे-धीरे अंधेरे में आँखे देख पाने लगी ओैर ध्यान में आया यहाँ मैं अकेली नही हूँ ओैर भी मेरी जैसी लडकिया, औरते है। तीन दिन हम एक-दुसरे को सहारा दे रही थी। बाहर के कमरे में हमारा सौदा किया जा रहा था। आंतरराष्ट्रीय माफिया उसमें शामिल था। हमारे झुठ-मुठ के पासपोर्ट निकाले गए। अब आगे क्या होगा इस कल्पना से भी डर बढने लगा, लेकिन भगवान को हम सब की शायद दया आ गई। कही से तो पुलिस को उस गँग के बारे में पता चला ओैर पुराने मकान पर उन्होने छापा मारा। हमारी रिहाई की ओैर पुनर्वसन केंद्र में सबको भेजा गया। वह चार लोग थे उनको पुलिस पकडकर ले गई। बाद में घर के लोगों को हमारे बारें में इत्तला की गई। इस में से सिर्फ तीन लडकियों के घरवाले उन्हे अपने घर ले गए बाकी लडकियों को वही रहना पडा। मेरी माँ मुझे लेने तो आ गई लेकिन घर जाने के बजाय दूर एक छोटे गाव में किसी रिश्तेदार के यहाँ छोड गई। जिसको जीवन में कभी देखा भी नही था। गुंडों से भगाई लडकी के बारे में समाज कितनी तरह की बाते करेगा, दुसरे भाई-बहन के जीवनपर भी उसका असर होगा इसलिए माँ-पिताजी ने यह नुस्खा निकाला। मैं तो इस में ही सुख मान रही थी की भीषण समस्या से बच गई अन्यथा कैसी नरक जैसी जिंदगी जीनी पडती। जिस रिश्तेदार औरत के यहाँ रखा था वह भली थी। उसने मेरा मनोबल बढाया, फिरसे जिंदगी जीने की मन की ताकत मुझमें पैदा की। अधुरी पढाई पूरी करने के लिए प्रोत्साहित करने लगी। ब्युटी पार्लर का कोर्स लगा दिया। मुझमें भी जीने की हिम्मत आ गई। शरदचाचा, चाची इसी गाव के है, वही पर उनका मकान, खेतीबडी है। सिलाई का मौसम खतम होने के बाद एक महिना छुट्टी लेकर वह गाँव में आते थे तब मौसी ने उनको मेरे बारे में सब कुछ बता दिया। मौसी की उम्र देखकर मेरी जिम्मेदारी शरदचाचा,चाची ने ली। अपने साथ सर्कस में लेके आ गए। अब सुरक्षितता में यहाँ काम भी कर रही हूँ ओैर अपनी पढाई भी।” विकास दौडते हुए मेकपरूम में आया ओैर अपने खेल का समय हो रहा है, जलदी चलने के लिए कहने लगा। श्वेता रुक गई, मेकप तो हो चुका था। उसकी कहानी से मन सुन्न हो गया। उसकी पीठ पर थपथपाते मुक सांत्वना दी उसके लिए वह भी काफी था। अपना दर्द कोई समझ सकता है यही विचार सामनेवाले का मन शांत कर देता है। गनिमत उसे किसी अत्याचार का सामना नही करना पडा।

       दौडते हम स्टेज पहुँच गए। तंबू में चारो ओर कोलाहल भरा था। बॅन्ड बज रहे था, कलाकार स्टेज के द्वार पर अपनी कला दिखाने सज्ज थे। प्रेक्षक सर्कस कब शुरू होगी इसी प्रतिक्षा में बैठे थे। सर्वत्र एक अधीरता का आभास लग रहा था। सर्कस शुरू होने की सुचना हो गई ओैर बॅन्ड की परिचित धुन बजने लगी। प्रेक्षक उत्सुकताभरी नजरों से देखने लगे। छोटू, पिंटु एक-दुसरे की खिंचाई करते स्टेज पर घुमने लगे, उनके पिछे हम आठ लडकों ने साइकिल पर एंट्री ली। प्रेक्षकों को हाथ हिलकर अभिवादन करते हुए गोल चक्कर काटे ओैर फिर अपना करतब दिखाने लगे। अब स्टेज का डर तो खतम हो गया था, अपना काम कैसे अच्छा होगा इसी बात पर मन एकाग्र करने लगा। कही मन में ऐसा भी लग रहा था की व्यंक्या कुछ जानबुझ कर कोई तकलीफ ना खडी कर दे, लेकिन फिर विकास की बात याद आ गई। यहाँ किसी से भी झगडा हो जाए, लेकिन खेल के वक्त सब एक हो जाते है क्युंकी पेट इसी से भरता है उससे गद्दारी नही करते। व्यंक्या भी इसे अपवाद नही था। मेरे पिछे लिना साइकिल पर चढ गई ओैर अपना करतब दिखाने लगी हम दोनों का बॅलन्स संभालते हुए मैं साइकिल चलाता रहा। प्रेक्षकों की तरफ से तालियाँ गुँजने लगी। फिर साइकिल मनोरा शुरू हो गया, मेरा उसमें काम नही था तो वहाँ से निकल कर सिलाई विभाग में चला गया।

      बहुत लोग वहाँ काम करने बैठ गए थे। शरदचाचा अपने टेबल पर कपडे का कटींग करते हुए दिखाई दिए तो मैं वहाँ चला गया। “ अरे आ गया, चल तुम्हे काम बताता हूँ, बहुत काम बाकी है, कभी-कभी टेंशन आता है कैसे खतम होगा, तुम्हे मशिन चलानी आती है ?”

    “ नही चाचाजी।”   

    “ ठीक है, तो फिर जो कपडे तयार हुए है उन्हे टिकली लगा सकेगा ?” इस में से तो मुझे कुछ भी नही आता था। कभी काम ही नही पडा, लेकिन माँ ने यहाँ आते वक्त बटन लगाना ओैर सुई में धागा डालना इतना तो सिखाया था। कपडे कही फट गए तो उन्हे सिलना तो आना ही चाहिए ऐसा उसका मानना था। फिर मैने चाचाजी से कहा “ टिकली कैसे लगानी है वह आप एकबार दिखा दो, मैं सीख लुंगा। टिकली लगाते औरते, लडके, लडकिया बैठ गए थे। चाचाजी ने आवाज दी राघव, इसको कपडे पर कैसे टिकली लगाते है वह सिखाना। मैं वहाँ चला गया। नई जान-पहचान होने लगी। एक-दो टिकली लगाने के बाद कैसे करना है यह मैं समझ गया ओैर हाथ चालू हो गया। धडधड मशिन की आवाजें चल रही थी। कपडे पर सफाई के साथ कैंची चल रही थी। बाकी लोगों के पांच-छे कपडे पर टिकली लगाना हो जाता तब तक मेरा एक कपडा चल रहा था। बीच में एक आदमी अपना नाप देने के लिए चाचाजी के पास आ गया तब उन्होने मुझे आवाज दी ओैर एक नोटबुक में नाप लिखने के लिए कहा। वह नाप लेते ओैर मुझे बताते, मैं नोटबुक में सब लिख लेता। हाथ चालू, गपशप चालू, खेल का वक्त हो गया तब अपना खेल खतम करके फिर यहाँ काम चालू, खाने के समय खाना खतम करके फिर सिलाई का काम चालू ऐसा समय का पहिया घुमता रहा।

      वहाँ धीरे-धीरे नाप लेने का काम सीख गया। जहाँ सीधी लाइन में सिलाई मशिन चलानी थी उतनी अब मैं मार सकता था। मशिन के बॉबिन में धागा लपेटना, सुई टुट गई तो नई लगाना, मशिन के पहिऐ की वादी ढिली हो गई हो तो उसे कस कर बाँधना, मशिन ऑइलिंग ऐसे छोटे-छोटे काम अब करने लगा। बातो-बातों में नई-नई चीजे समझ आ रही थी। बाकी लोगों के जीवन अनुभव से मन कभी अचंबित होता तो कभी रोंगटे खडे हो जाते। शरदचाचा, चाची एक प्यारभरा झरना था। वह अलग तंबू में रहते थे ओैर खाना भी खुद पकाते थे। एक बार शरदचाचाजी ने मुझे खानेपर बुलाया। चाची ने थाली में आचार पापड से लेकर सब कुछ परोसा, वह देखकर मुझे एकदम से घर की, माँ की याद आ गई। गला रुँध गया आँखों से पानी बहने लगा। वह देखकर दोनों समझ गए फिर चाची ने मुझे गले से लगाया ओैर पीठ पर हाथ फेरती रही।

      चाचाजी ने कहा “ श्रवण, तुम्हे पता है दुनिया में कितने बच्चे अनाथ है ? हम अनाथ बच्चों के लिए काम करनेवाले संस्था से निगडीत है। घर के जुलूम से भागे हुए कितने लडके मिल जाते है, वह घर जाना ही नही चाहते फिर कभी-कभी किसी बच्चे चुरानेवाले गँग के हाथ लग जाते है। उनसे गलत काम करवाए जाते है। पुलिस पकडकर ले जाती है ओैर पुनर्वसन केंद्र में दाखिल कर देते है। कोई बच्चे इतने छोटे होते है की वह अपना नाम तक बता नही सकते। कुछ छोटे बच्चों को उनकी माँ अनाथाश्रम में छोडकर चली जाती है। कुछ बच्चे बाजार की भीड में बिछडे हुए होते है, कुछ रेल्वे स्टेशन, बस स्टँड पर गुम हुए होते है। ऐसे बच्चों का पुनर्वसन यह एक बडी समस्या होती जा रही है। उन बच्चों को गोद लेने वाले परिवार को ढुँढना, पढाई का खर्चा उठाना, अगर बडे बच्चे है तो उनको काम सिखाना, टेक्निकल काम का ट्रेनिंग देना, समुपदेशन करना ऐसे अनेक काम वह सामाजिक कार्यकर्ता करते रहते है। उनमें बहुत लोग एसे भी है जो इस काम के पैसे भी नही लेते। लोगों के लिए काम करते रहते है। सरकार की तरफ से कोई बक्षिसी भी इन लोगों को मिलेगीही यह भी जरूरी नही। हर संस्था को ग्रँट भी नही मिलती तो वह आश्रम चलाने के लिए निधी जमा करना पडता है। हमारी लडकी सविता जब छोटी थी तब एक मेले में गुम हो गई थी, तीन दिन के बाद मिली। वह तीन दिन का अनुभव इतना वेदनादायी था की पुछ मत। तब से हम दोनों इस संस्था से जुडे हुए है। लडकी अब बडी हो गई, शादी होकर अमेरिका में रहती है। मैं रिटायर्ड हो गया, घर में बहुत पैसा है, जमिन-जुमला है लेकिन जीवन जीने के लिए कोई उद्दिष्ट चाहिये। एक बार अरुणसर से मुलाकात हो गई उन्होने हमारे जीवन उद्दिष्ट के बारे में सुना तो सर्कस में शामिल होने का नेवता दिया, इससे गाव-गाव घुमना, गुम हुए बच्चों के परिवार को ढुंढने में सहायता हो जाएगी। सर्कस में भी ऐसे बच्चे आते है उनका समुपदेशन कर सकते है यह बात समझा दी तो हमे भी पसंद आ गई। चाची सिलाई में एक्स्पर्ट थी तो यही विभाग हमने चुना। धीरे-धीरे मुझे भी उसने सिलाई में एक्स्पर्ट किया। अब तक हमने १८०० गुम हुए बच्चे उनके माता-पिता तक पहुँचा दिए है। २००० बच्चे अच्छे परिवार में गोद लिए गए। १२०० बडे लडकों को रोजगार दिलवा दिया है। अरुण का भी इसमें बहोत बडा योगदान रहा है।” यह सब सुनकर तो मैं हैरान रह गया। उनके काम को सलाम। उन्होने मुझे यह सब क्युं बताया यह बात भी ध्यान में आ गई। मेरे पास माता-पिता, एक अच्छा परिवार था। कभी भी मैं उनसे मिलने जा सकता था, कुछ लोगों को अपना परिवार ही नही होता यह बात चाचाजी मुझे बताना चाहते थे। सर्कस में जो भी थे उन सब की कथा अरुणसर के यहाँ थम जाती थी। मैंने उठकर सीधे शरदचाचाजी को गले लगा लिया। मेरी यह भावनाशील कृती उनके मन को भा गई, फिर बातो-बातों में हमने खाना खाया। आज सर्कस में काम करनेवाले लोगों के बारे में एक नयी दिशा मिल गई।

     सिलाई, खेल इस के बीच में एक अनोखे जगत से भी मुलाकात हो रही थी, ओैर वह थी प्राणी जगत। अभी वहाँ बंड्या पानी देने का काम कर रहा था, वैसे तो मैं चिंटू के साथ जानेवाला था लेकिन उसे कही ओर काम के लिए भेज दिया तो उसने बंड्या के साथ जानवरों के यहां भेज दिया। दस-बारा साल का वह छोटा लडका बहुत ही लाघवी ओैर बातुनी था। सर्कस के लोग इसी के परिवार वाले थे। सबका चहेता। जानवरों को पानी पिलाने का समय हो गया की वह सिलाई विभाग में आता था। पहले शरदचाची से लाडप्यार कराके फिर हम दोनों निकल जाते । उस बाजू में एक नल की व्यवस्था भी थी, तो वही से पानी भरके पिंजरे में रखे बरतन में डाल देता। बंड्या जब पानी उनके कटोरी में भरता तब जानवरों से बाते करता रहता था। बंदरों के पिंजरे में जब वह जाता तब सब बंदर उसके पास आकर किचकीच करते बतियाते थे। बंड्या अपनी भाषा में उनसे बात कर रहा है ओैर बंदर उनकी भाषा में, बहुत ही मजेदार लेकिन भावपूर्ण दृश्य था। आगे का पिंजरा भालू का था। कितना भी पानी उसके कटोरी में डालो वह जहाँ है वही बैठा रहता, मैं तुम्हे पहचनता नही ऐसा उसका रवैय्या था। कोई उससे बात कर रहा है उसकी कुछ फिकीर उसे नही थी। बंड्या ने कहा यह नया आया है ओैर जलदी किसी से दोस्ती नही करता, अभी किसी को जादा पहचनता भी नही। उसे खेल सिखना, दिखाना भी पसंद नही, लेकिन रिंगमास्टर कटोरी भर शहद की लालच देकर उससे काम करवा रहा है। हम आगे की ओर बढ गए, वहाँ खाली जगह पर एक खंबा गाड रखा था, उसे दो हाँथी शृँखला से बाँधकर रखे थे। बाजू में हाथी का एक छोटा बच्चा भी था। बंड्या को देखते ही एक हाँथी ने जोरसे आवाज किया उसे सूनते ही बंड्या चिल्लाया आता हूँ ओैर हाँथी सामने जो हौदा था वहाँ का नल शुरू किया। उसके पास जाकर सुँड को थपथपाने लगा ओैर मुझे कहा, ये देख राजा नाम है इसका। राजा ने अपनी सुँड से बंड्या को आलिंगन दिया। कुछ क्षण के लिए दोनो एक-दुसरे से लिपटे रहे। दोनों का प्यार देखकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, मैने भी राजा को हाँथ लगाने के इरादे से आगे बढने की कोशिश की तभी बंड्या वहाँ से चिल्लाया “ आगे मत आना  अभी तुम्हारी उससे पहचान नही हुई है। सुँड में पकडकर वह तुम्हे फेंक देगा। खाना-पानी देने वालों से जानवर जलदी दोस्ती करते है। कुछ दिन मेरे साथ उन्हे खाना-पानी देने लगोगे तब वह तुम्हे पहचानने लगेंगे ओैर दोस्ती करेंगे। हाँथी की धारणा शक्ती बहोत अच्छी रहती है, सामनेवाले के भाव को तुरंत पहचान जाते है। प्यार से खाना देनेवाले से वह झटसे आकर्षित हो जाते है ओैर जो सिर्फ यह काम है इस भावना से खाना खिलाते है उनसे वह कभी दोस्ती नही करते। अपने सर्कस में कितने लोग है लेकिन जानवरों से दोस्ती बहुत कम लोगों से है। हाथी हौदा भर गया तो हम आगे निकले। यह हाथी क्रिकेट खेलना, दो पैर स्टूल पर रखकर खडे होना, गणेशजी की आरती करना ऐसे खेल स्टेज पर दिखाते थे। अब हम तोते की पिंजरे की ओर बढे। तोते छोटी तोप उडाना, रिंग के सहारे गोल-गोल घुमना, प्रेक्षकों के भविष्य के कार्ड खोलना यह खेल दिखाते थे। उसमें एक पंचरंगी तोता, काकाकुआ, हरे तोते थे। बंड्या ने उनके कटोरे में पानी डाला, उसमें से एक तोता पिंजरे के पास आकर बंड्या बंड्या आवाज देने लगा। हम दोनों हँसने लगे। खिसे में से कुछ हरी मिर्च बंड्या ने निकाली तो झटसे बाकी तोते भी उसके पास आ गए। जो बोलने के लिए सिखाओ तोते वैसा बोलना सीख जाते है ऐसा लोग बोलते है लेकिन मुझे तो वैसा कुछ लगा नही केवल शब्दों की लयकारी लगती है। वहाँ से हम बाघ की पिंजरे की ओर गए। इतना बडा जानवर, जंगल की शान ओैर एक छोटे पिंजरे में देख कुछ अजीब सा महसुस हुआ। फिर भी उसका रुबाब छुप नही रहा था। हमारी ओर एक कटाक्ष डालते हुए अपनी दुनिया में फिर मगन हो गया। रिंगमास्टर विजयानंद बाघ ओैर शेर के खेल करते थे। जलते रिंग से कुदना, ओैर भी कुछ करतब दिखाते थे। उसके टब में पानी डालकर ओैर आगे गए। वहाँ शेर, जंगल का राजा अपने पिंजरे में चक्कर काट रहा था। बंड्या को देखतेही वह तुरंत जाली के पास आ गया। बंड्याने भी उसके बालों में हाथ फेरा ओैर उससे कुछ बाते करता रहा। शेर भी लाड-प्यार से गुर्राता रहा। ऐसा लग रहा था उन दोनों का जनम-जनम का कोई नाता रहा होगा। “ ये है रानी, छे महिने की थी तब से यहाँ है। शिकार, जंगल वह जानती भी नही। कोई भी उसके साथ मैत्री कर सकता है, लेकिन बाघ, शेर के नजदिक कोई जाता भी नही।” मुझे लगा वह चाहती है मैं भी उसपे हाथ फेरु, कुछ बाते करूं लेकिन अभी मेरी हिम्मत नही बढी थी। विजयानंद उसके मुँह में अपना सिर रखने का खेल दिखाते थे। यहाँ का सब काम खतम करते हुए हम चाय पीने गए। बंड्या इतना छोटा बच्चा लेकिन कितना घुल-मिल गया था जानवरों से, मुझे अचरज हो रहा था।

      दिन जलदी-जलदी गुजरते जा रहे थे। पढाई, खेल, काम, नई पहचान, दोस्तों की दोस्ती, किसी के जीवन के बारे में सूनना इन सब में कैसे दिन निकल गए पता ही नही चला। बारिश का मौसम खत्म होकर सर्कस के अच्छे दिन शुरू हो गए। बीच में सर्कस का बहुत नुकसान हुआ, उस समय गोदाक्का के रसोई में कुछ कमी दिखाई देने लगी थी लेकिन अरुणसर, नेनेचाचाजी, शरदचाचाजी अपनी जमा-पुंजी लगाकर सबका पेट पालते थे। फिर दिन पलटे, अच्छी-खासी रकम सर्कस के तिजोरी में जमा होने लगी। अभी ओैर एक महिना सर्कस के खेल यही चलने वाले थे, फिर दुसरे गाँव जानेवाली थी। तब तक बच्चों के इम्तहान भी खतम हो जाएँगे। नेनेचाचाजी ने सब बच्चों की अच्छे से पढाई करवा ली थी। मेरे भी इम्तहान नजदिक आने लगे, अल्मोडा जाने के दिन नजदिक आने लगे, वैसे मेरे अंतरंग में खुषी के फवाँरे उठने लगे। सबसे मिलने के लिए मन बेताब हो गया। वापीस आते वक्त मैं दिल्ली में कुछ दिन रुककर आने वाला था, तब वहाँ राधा भी आएगी ऐसा तय हुआ था। कल अरुणसर से मिलकर परसों गाव जाने के लिए रवाना ऐसे आनंद में, मैं डूब गया। जबलपूर के फेमस संगेमरमर की कलाकारी की हुई वस्तुए पहले से ही बाजार से लाकर रख दी थी। मेरी कमाई की भेटवस्तू मैं सबको देना चाहता था। अब नजर मेरे रिश्तों के भावविश्व पर लगी हुई थी।

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