Dwaraavati - 17 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 17

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द्वारावती - 17



17

किसी ने एकांत में बैठे, समुद्र के ऊपर किसी बिंदु को स्थिर दृष्टि से निहारते उत्सव को कहा।
“उत्सव, तुम जिस शिला पर बैठे हो उसी शिला पर ही वह बैठा था। गुल को उसका नाम तब ज्ञात नहीं था। तब वह एक अबोध कन्या थी। आयु होगी आठ नौ वर्ष की। वह और उसके पिता इस कन्दरा के मार्ग से समुद्र के भीतर थे। उसके पिता मछलियाँ पकड़ रहे थे। गुल समुद्र को देख रही थी। समुद्र की ध्वनि के साथ साथ उसके कानों पर एक और ध्वनि भी पड रहा था। एक नाद था वह। उत्सव, तुम्हें इन समुद्र तरंगों की ध्वनि सुनाई दे रही है?”
“जी अवश्य।” उत्सव ने उत्तर तो दे दिया किंतु शीघ्र ही जागृत हो गया।
‘कौन है जो मुझे कुछ कह रहा है? मैं किसे उत्तर दे रहा हूँ?’
“उत्सव, कुछ ना सोचो। जिस बिंदु पर तुम्हारा ध्यान है उसे देखते रहो। वहाँ तुम्हें कुछ दिखाई देगा। कुछ सुनाई देगा। उसे देखो, उसे सुनो।”
“किंतु आप?”
“समुद्र की उस ध्वनि के साथ साथ एक और ध्वनि भी सुनाई दे रही है। ध्यान से सुनो। एक मंद मंद आती ध्वनि, सुनो, ध्यान से सुनो। अब ध्वनि स्पष्ट हो रही है। अधिक स्पष्ट।”
‘ओम्, ओम्, ओम्’
“उत्सव, तुमने सुनी इस ध्वनि को? यह ध्वनि कितनी स्पष्ट है, हैं ना? ओम्, ओम्, ओम् …।”
उत्सव भी उस ध्वनि में खो गया। अनायास ही वह भी प्रणवनाद करने लगा।
“ओम्, ओम्, ओम्, ओम् ….।”
कन्या गूलरेझ के कानों ने समुद्र की ध्वनि तथा ओम् के नाद के अंतर को जान लिया। वह नाद उसे आकृष्ट करने लगा। उसने सभी दिशाओं पर ध्यान केंद्रित किया। वह नाद की दिशा को ढूँढने लगी। वह समुद्र से दूर जाने लगी। कंदरा की तरफ़ जाने लगी। ध्वनि की दिशा उसे अपनी तरफ़ खींचने लगी। ध्वनि स्पष्ट मार्गदर्शन कर रही थी। गूलरेझ ध्वनि के उद्गम तक पहुँच गई।
समुद्र की एक कन्दरा पर स्थित एक शिला पर बैठा एक बालक दिखाई दिया। उसकी पीठ समुद्र की तरफ़ थी, दृष्टि पूर्व दिशा में सूर्योदय को निहार रही थी। खुली पीठ के नीचे पीताम्बर था। प्रणवनाद का उद्गम बिंदु वही बालक था।
ओम् के नाद को गूलरेझ ने पहले कभी नहीं सुना था। वह अत्यंत कर्ण प्रिय था। उस नाद ने उसे सम्मोहित कर दिया। वह उसे सुनती रही, बिना व्यवधान डाले।
ओम् का नाद एक अंतराल तक चलता रहा। सूर्य पूर्ण रूप से उदय हो गया। बालक ने सूर्य को प्रणाम किया, शिला से उठा और समुद्र की तरफ़ मुड़ा।
“तुम ने उस गीत को गाना बंध क्यूँ किया? तुम गाते रहो। सुनने में मधुर लगता है।” गुल ने बालक से सहज स्मित के साथ कहा।
“तुम कौन हो? यहाँ क्या कर रही हो? तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।”
“मेरा नाम गूलरेझ है। मैं तुम्हारा यह गीत सुन रही थी। तुम्हारा नाम क्या है?”
“मेरा नाम केशव है।”
“तुम जो गीत गा रहे थे उसे गाओ ना।” स्मित जो गूलरेझ के अधरों पर था, वह मोहक था।
“गुल, गूलरे, क्या नाम कहा तूमने?”
“गूलरेझ नाम है मेरा, तुम मुझे गुल कह सकते हो। मेरे अब्बा मुझे गुल ही कहते हैं।”
“यह ठीक रहेगा, गुल। गुल, मैं जो गा रहा था वह गीत नहीं था, ओमकार था। ओम्, ओम्।”
“यही, यही गीत गाओ। मीठा लगता है।”
“तुम्हें मीठा लगता है तो मैं अवश्य गाऊँगा। किंतु यह बताओ कि तुम यहाँ कैसे आयी? यहाँ क्या कर रही हो?”
“वहाँ देखो, वह जो पानी के भीतर है वह मेरे अब्बू है। वह मछली पकड़ते हैं। मैं उनके साथ आइ हूँ। अब तो गीत गा दो।”
केशव ने आँखें बंध की और ओम् का नाद करने लगा।
“ओम्, ओम्, ओम्।”
केशव नाद करता रहा, गुल सुनती रही।
“गुल, क्या कर रही हो? कहाँ हो?” गुल के अब्बा ने पुकारा।
गुल का ध्यान भंग हो गया।
“केशव, मैं जा रही हूँ। अब्बा बुलाते हैं। कल आऊँगी। कल मुझे यह गीत सुनाओगे?”
गुल के शब्दों ने केशव का ध्यान भंग किया, आँखें खोली। गुल दूर जा रही थी। वह उसे जाते हुए देखता रहा।
केशव ने समुद्र से अंजलि भरी, सूर्य को अर्घ्य दिया और लौट गया।
‘गुल। यह लड़की कल पुन: आएगी, ओम् का मेरा जाप सुनेगी। मैं उसे सुनाऊँगा। अवश्य सुनाऊँगा। ओम् के अतिरिक्त मुझे कुछ मंत्र भी आते हैं। मैं उसे मंत्र भी सुनाऊँगा। उसे अवश्य पसंद आएगा।’
‘किंतु वह उसे गीत कहती है जो प्रणव नाद है। तुमने उसे क्यों कहा नहीं कि यह गीत नहीं है?’
‘उससे क्या अंतर पड़ेगा? यदि उसे गीत के रूप में भी ओम् का नाद प्रसन्नता दे रहा है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।’