Dwaraavati - 16 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 16

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द्वारावती - 16




16

प्रतीक्षा के कुछ ही क्षण व्यतीत होने पर उत्सव विचारों से घिर गया।
‘मैं इस प्रकार रिक्त ही रहा तो मेरे लक्ष्य को में प्राप्त नहीं कर सकता। यदि पूर्ण रूप से रिक्त हो गया तो मैं निर्लेप हो जाऊँगा। मेरी जिज्ञासा समाप्त हो जाएगी। मेरे प्रश्न, मेरे संशय भी नहीं रहेंगे। यह स्थिति तो मोक्ष की है। क्या मुझे मोक्ष चाहिए?’
‘नहीं। मोक्ष तेरा अंतिम लक्ष्य नहीं है। यदि मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य होता तो तुम्हें यहाँ तक प्रवास की आवश्यकता ही नहीं थी। यह तो व्यर्थ उद्यम होगा। मोक्ष तो तुम्हें गंगा के सान्निध्य में, हिमालय की किसी भी कंदरा में, किसी भी साधु के शरण में, किसी ज्ञान की पुस्तक में, किसी गुरु के चरणों में प्राप्त हो जाता। तुम्हारा लक्ष्य क्या है, उसका स्मरण करो। उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तुम्हें गुल के साथ रहना होगा। गुल ही तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर देगी, संशय का समाधान करेगी। तुम्हें गुल में रुचि लेनी होगी। तुम्हें तुम्हारी रिक्तता को छोड़ना होगा।’
‘तो अब मैं क्या करूँ? मैंने तो गुल को, गुल की बातों को…।’
‘दौड़ो, गुल के पास जाओ। उसकी तथा केशव की पूरी गाथा सुनो। इस गाथा में ही तुम्हें उत्तर मिलेगा कि एक मुस्लिम युवति कैसे पंडित गुल बनी। जाओ, भागो। विचार ना करो, कर्म करो।’
उत्सव ने समुद्र की तरफ़ देखा। गुल तरंगों के समीप थी। झुककर समुद्र के पानी को स्पर्श कर रही थी। वह दौडा, दौड़ते दौड़ते पुकारने लगा, “ गुल, गुल, गुल, …।”
समुद्र की ध्वनि में उत्सव के शब्द विलीन हो गए। गुल समुद्र के भीतर जाने लगी। तरंगें उसे भिगो रही थी। वह अधिक भीतर गई। उत्सव किनारे पर आ गया। पुन: पुकारने लगा, “गुल, गुल, गुल, रुको। अधिक भीतर ना जाओ। तुम डूब जाओगी। लौट आओ।”
पुन: उत्सव के शब्द गुल ने नहीं सुने।
‘मुझे गुल को रोकना होगा। कहीं वह स्वयं को समुद्र को समर्पित तो नहीं कर रही?’
उत्सव समुद्र में कूद गया। गुल के समीप आ गया।
गुल ने अपने उपवस्त्र को निकाला, कटी पर बांधा। केश को खुले कर दिए। समुद्र को वंदन किया। समुद्र के भीतर डुबकी लगा दी। बाहर आ गई। गुल के भीगे यौवन को उत्सव देखने लगा। वह उसे ठीक से देख पाता उससे पहले ही गुल ने दो चार डुबकी और लगा दी।
उत्सव गुल की चेष्टा को निहारता रहा। गुल के भीगे खुले केश से समुद्र का नमकीन पानी टपक रहा था। केश बिखरे थे, कंधों पर, पीठ पर, छाती पर, गाल पर, मुख पर, ग्रीवा पर। केश से टपकता पानी गुल के तन की यात्रा करते हुए पुन: समुद्र में समा जाता था। कुछ बूँदों की यात्रा गुल के तन पर ही सम्पन्न हो चुकी थी। वह बूँदें दो पहाड़ियों के ऊपर तथा दोनों के मध्य वाली कन्दरा में स्थिर हो गई थी। उत्सव की दृष्टि भी वहीं स्थिर थी।
‘यह लौकिक आकर्षण मुझे क्यूँ आकृष्ट कर रहा है?’
उत्सव ने उस केंद्र बिंदु से दृष्टि हटा ली। गुल इन सब से अनभिज्ञ थी। उत्सव को विश्वास हो गया कि गुल केवल स्नान करने हेतु ही समुद्र के भीतर गई थी। वह किनारे पर लौट आया। गुल की प्रतीक्षा करने लगा।
“गुल, यह समय स्नान का तो नहीं है?” तट पर लौटी गुल को उत्सव ने पूछा। उत्सव की दृष्टि कहीं दूर समुद्र के भीतर जल पर स्थिर थी।
“समय एक भ्रमणा है, छल है। वैसे यह समय किसी सध्यस्नाता से मिलने का भी तो नहीं है उत्सव।”
“समय एक भ्रमणा है, छल है, गुल।” उत्सव के उत्तर से दोनों हंस पड़े।
“गुल, तुम जल से भीगी हो, जाओ घर जाकर वस्त्र बदल लो।”
गुल कन्दरा पर स्थित एक शिला पर बैठ गई।
“उत्सव तुम भी बैठो ना। इस कन्दरा पर अन्य कई शिलाएं है। तुम किसी पर भी बैठ सकते हो।”
“तुमने मेरी बात नहीं सुनी। जाओ वस्त्र बदल लो।”
“नहीं उत्सव। आज मैं इसे भीगा ही रहने दूँगी। कुछ समय पश्चात यह वस्त्र स्वयं ही सुख जाएँगे। किंतु मेरे भीगे वस्त्रों से तुम्हें क्या आपत्ति है? प्रवासी, इस भीगे तन को देखकर कहीं तुम विचलित तो नहीं हो रहे हो? कहीं तुम्हारी रिक्तता ….।”
“गुल, मेरी रिक्तता ने मुझे ज्ञान दिया है कि मुझे मोक्ष मिल जाएगा। किंतु मैं मोक्ष की लालसा नहीं रखता, ना ही वह मेरा लक्ष्य है। मेरी रिक्तता मेरे लक्ष्य में अवरोध है। मैं उसे भरना चाहता हूँ। पूर्ण रिक्तता होना अभिशाप होगा मेरे लिए। तुम्हारे भीगे वस्त्र अथवा तुम्हारा भीगा तन मुझे विचलित नहीं कर सकता।” उत्सव दूसरी शिला पर बैठ गया।
“विचलित तो मैं हो गई हूँ उत्सव। तुम्हारी भाँति मैं स्थितप्रज्ञ नहीं रह सकती।”
“तो रिक्त हो जाओ। कह दो समुद्र को सारी बातें। मैं भी सुनना चाहूँगा तुम्हारी तथा केशव की गाथा। क्या मुझे इस बात की अनुमति है?”
“तुम्हारी यह जिज्ञासा मुझे प्रसन्न कर रही है, उत्सव। मैं तो कई दिवसों से तुम्हें यह कथा सुनाना चाहती थी। तुम भी तो गूलरेज से पंडित गुल तक की यात्रा को सुनना चाहते थे।”
“किंतु तुमने मुझे रिक्त कर दिया और इन सभी दून्वयि बातों से मेरा आकर्षण समाप्त हो गया। मेरी रुचि चली गई। किंतु इन दिवसों ने, इस अवस्था ने मुझे ज्ञान दिया कि मेरा लक्ष्य ऐसी रिक्तता से प्राप्त नहीं होगा। यही कारण है कि मैं तुम्हारी गाथा में, तुम में, केशव में रुचि ले रहा हूँ। तुम्हारी कथा सुनने को उत्सुक हूँ।”
“अर्थात् तुम मुझे छोड़ कर नहीं जाओगे। मुझे सदैव यह भय रहता था कि मेरी कथा सुनने के पश्चात तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे।”
“ऐसा भय क्यूँ था?”
“एक तो मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती। केशव के जाने के पश्चात ग्यारह वर्ष तक मैं निश्चल रही किंतु जब तुम मेरा नाम लेकर मेरे पास आए थे तब मुझे केशव का स्मरण होने लगा। तुम में मैं केशव को देखने लगी।”
गुल मौन हो कर दूर समुद्र में कहीं खो गई।
“और दूसरा कारण क्या था?”
“केशव के साथ मेरे सम्बन्धों की कथा सुनाने से तुम्हें केशव से ईर्ष्या होने लगेगी। इसी ईर्ष्या में तुम मुझे छोड़कर चले जा सकते हो।”
“तो क्या अब इन दोनों भय से तुम मुक्त हो?”
“दोनों भय अभी भी है किंतु अब भय के भय से मैं निर्भय हो चुकी हूँ।”
“यह तो अच्छी बात है। चलो तुम समुद्र को तुम्हारी कहानी सुनाओ, मैं भी सुन लूँगा।”
“अब मैंने विचार बदल दिया है।”
“तो क्या मैं तुम्हारी कथा से वंचित रह जाऊँगा?”
“नहीं। समुद्र तो मेरी पूरी कथा का साक्षी रहा है। अब मैं मेरी कथा समुद्र को नहीं तुम्हें सुनाऊँगी। हां समुद्र भी साथ साथ सुन सकता है।” गुल ने समुद्र से हटाकर मुख उत्सव की तरफ़ किया।
“मेरी कथा के ताप को सह सकोगे?”
“गुल, मैं उत्सुक हूँ।”
गुल कुछ समय मौन हो गई। जैसे वह काल के वर्तमान प्रवाह को भेदकर काल के अन्य प्रवाह में विलीन होना चाहती हो। किंतु वह ऐसा नहीं कर पाई। वह वर्तमान में लौट आइ। घर लौट गई। किंतु काल के प्रवाह में गति करती समय की क्षण वह उस बिंदु पर रुक गई जहां कथा के प्रथम क्षण ने जन्म लिया था।