Kanchan Mrug - 19 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 19. पारिजात शर्मा कहाँ नहीं गए?

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कंचन मृग - 19. पारिजात शर्मा कहाँ नहीं गए?

19. पारिजात शर्मा कहाँ नहीं गए?

पारिजात शर्मा कहाँ नहीं गए? नदियों के श्मशान घाट पर महीनों बिताने के बाद भी वे सुमुखी का पता नहीं लगा सके। उनकी दाढ़ी बढ़ गई थी। बाल बढ़कर उलझ गए थे। वस्त्रों से भद्रता का अंश निकल चुका था। कहीं कुछ मिलता तो खा लेते। निरन्तर चिन्ता मग्न चलते रहते। आज वेत्रवती के तीर पहुँचकर वे पूरी तरह थक चुके थे। घाट पर पहुँच, उन्होंने नदी का जल पिया। घाट पर लगे एक अश्वत्थ पेड़ के नीचे बैठते ही, उन्हें नींद आ गई। फिर वही स्वप्न, जिसे वे सैकड़ों बार देख चुके हैं। पर हर बार स्वप्न में ही वे जग जाते और सुमुखी-सुमुखी पुकारते हुए दौड़ पड़ते।
आज जैसे ही वे अश्वत्थ के नीचे बैठे, श्रेष्ठियों का एक दल वेत्रवती पार करने आ गया। उस दल में अयसकार रोहित भी था। व्यावसायिक कार्य से उसे कालप्रिय जाना था। उसने पारिजात को अश्वत्थ के नीचे उढ़के देखा किन्तु पहचान न सका। जैसे ही सुमुखी पुकारते हुए पारिजात दौड़े, रोहित को कारवेल्ल तथा बाद की घटना का स्मरण हो आया। दौड़कर उसने पारिजात को पकड़ा। पं0 पारिजात उससे उलझ गए। रोहित ने परिचय देते हुए उन्हें शांत करने का प्रयत्न किया, पर पारिजात उलझते ही जा रहे थे। कुछ क्षण पश्चात् उन्हें भी ध्यान आ गया और वे एक परिचित को पाकर लिपट गए। दोनों के इस कृत्य को श्रेष्ठिजन उत्सुकता से देख रहे थे। कुछ लोगों ने जिज्ञासा प्रकट की पर रोहित ने केवल इतना बताया कि पुराने मित्र हैं, परिस्थितिवश संकट में पड़ गए हैं।
रोहित पारिजात को लेकर उसी अश्वत्थ के नीचे आ गए। बहुत देर तक दोनों के बीच बातचीत होती रही। पारिजात पर जैसे रह-रहकर सुमुखी का दौरा पड़ जाता । वे चेतना शून्य हो जाते। रोहित को उनकी मनोदशा देखकर अत्यन्त कष्ट हो रहा था, पर उनके पास कोई उपाय नहीं था। पारिजात अब भी उनसे यही कहते कि वे सुमुखी को खोज लेंगे। रोहित ने आज भी महामन्त्री देवधर शर्मा की सहायता लेने के लिए कहा, पर पण्डित पारिजात सहमत नहीं हुए। रोहित ने जानना चाहा कि राजकर्मियों पर उनका विश्वास क्यों नहीं है? पण्डित पारिजात टालना चाहते थे पर रोहित आज रहस्य खोलने के लिए उन्हें निरन्तर उकसाते रहे। शब्द जैसे अन्तर्मन में उठते पर मुख पर आते बुलबुले की भाँति समाप्त हो जाते।
‘मैं भट्ट हूँ, यह तो जानते हो-’, पारिजात ने कहा।
‘हाँ, यह तो आप बता चुके हैं।’
‘मैं बहुत छोटा था , पिता ने एक छोटा सा आश्रम खोल लिया। वे बच्चों को शिक्षा देते और माँ गृहस्थी की देख रेख करतीं। माँ का रूप मनोहारी था, जो भी उन्हें देखता उनके सौदर्य की प्रशंसा करता। एक प्रातः माँ शौच के लिए जंगल की ओर गई। पिताजी प्रतीक्षा करते रहे लेकिन वे लौट न सकीं। पिताजी ने राज सभा में इस प्रकरण को रखा। महामन्त्री और महाराज दोनों ने माँ को खोजने का आश्वासन दिया, पर कुछ हुआ नहीं। पिताजी ने व्यक्तिगत स्तर पर भी अथक प्रयास किया पर सारे प्रयत्न व्यर्थ गए। पिताजी की मित्रता कंचुकी से थी। उन्होंने जब कंचुकी से चर्चा की तो उन्होंने ओठों पर उँगली रख ली। उसी रात पिताजी मुझे लेकर काशी चले आए। मुझे आचार्य प्रवर को सौंप दिया और स्वयं संन्यासी हो गए। जाते-जाते आचार्य से कहते गए इस बालक का गृहस्थाश्रम प्रवेश आप के ही द्वारा होना चाहिए। आचार्य प्रवर मेरा ध्यान रखते। एक पालिता पुत्री से मेरा पाणिग्रहण करा कर उन्होंने मुझे महोत्सव भेजा। मुझे माँ के अपहरण की घटना भूलती नहीं थीं। पिताजी ने बताया कि माँ का अपहरण महाराज ने ही करवा लिया था। मैं छोटा था, मुझे उस स्थान का नाम भी स्मरण नहीं। पिताजी से जानना चाहा लेकिन उन्होंने बताना उचित नहीं समझा। पिताजी चाहते थे कि मैं उस घटना को भूल जाऊँ । उसका मेरे मन पर कोई प्रभाव न पड़े। पर क्या ऐसा हो सका? अभी तक मैं सात राजाओं के अन्तःपुर में प्रवेश कर सुमुखी को खोज चुका हूँ। इसके लिए मुझे अनेक रूप धारण करने पड़े। अब तो मैं वेष विन्यास का विशेषज्ञ बन गया हूँ।’
इतना कह कर पारिजात हँस पड़े, पर वह हँसी कुछ ही क्षण रह सकी।
‘आपने राजाओं, महाराजाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य लोगों का नाम लिया था जहाँ सुमुखी की खोज की जा सकती है।’
‘हाँ, तन्त्र साधक, एवं विदेशी आक्रमण कारी सुरा-सुन्दरी दोनों में रुचि लेते हैं।’ ‘ साधना गृहों में खोजना तो अत्यन्त कठिन है। अन्तःपुर का एक निश्चित रूप है तन्त्र है, पर साधनागृहों का पता लगाना ही दुष्कर कार्य है। मैं खोज करूँगा। सुमुखी का पता लगाकर ही रहूँगा। जब तक सुमुखी नहीं मिलती, मुझे मुक्ति कहाँ?
इतना कहकर पारिजात उठे और वेत्रवती तट पर चलने लगे। रोहित ने रोकना चाहा किन्तु वे रुके नहीं।
‘यदि प्राण रहे तो पुनः भेंट होगी,’ इतना कह कर वे लगभग दौड़ने लगे।