Kanchan Mrug - 2 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 2 जइहँइ वीर जू

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कंचन मृग - 2 जइहँइ वीर जू

2. जइहँइ वीर जू-

बालक उदास था। आँखें भरी हुई थीं। माँ से कहा कि उसे सैन्य बल में नहीं लिया गया। माँ घर की देहरी पर बैठी पत्तल बना रही थी।
‘पतरी तव हइ पेट पालइ का, काहे बिलखत हव’
‘म्वहिं का कुछ करै का है। तैं दिन भर लगी रहति ह्या तबहुन पेट न भरत।
म्वहिं यहइ काम करैं-क है का?
‘हाथ पांव चलइहव तौ रोटी मिलइ ! ये ही मा सुख मिलइ।’ ‘काम मा म्वहिं लाज नाहीं आवइ। घ्वरसवार बनै क मन रहइ। घ्वर सवार कइ कमाई ज्यादा हवै। का त्वार मन नाहीं कि म्वहिं कुछ ज्यादा मिल सकइ।’
‘क्या न चाहइ ? पर घ्वर सवार दुखउ झेलत। कवनौ ठेकाना ना। सिर मौत नाचइ।’
‘मौत से तैं डेराइ रे माई।’
‘तैं नहीं डेराय ?’ माँ ने हँसते हुए कहा।
‘म्वहिंका डेर नाहीं लागत। संकट झ्यालय मां म्वहिंका सुख मिलइ। तरवारि, भाला चलावन सीखेउ हँव। मैं ठीक सों तरवारि, भाला चलायउँ पै जहाँ उन्हइ जानि परेउ कि या रूपन बारी जाति क है, उनकइ भउहँइ तनि गइन। मन्त्री माहिल कहिन कि बारी कबै से तरवारि चलावइ लागे। माई, मैं पतरी न बनइहँव’
‘तव का खइहै? काल्हि त्वहिंका मेहरी लइहँव। वा का खइहइ?’
‘मैं मेहरी न लइहँउ।’
‘का ? मेहरी न लइहइ? मइ घर का ढहत देखिहँउ ?’
बालक दस कोस चलकर महोत्सव गया था। उसे आशा थी कि सैनिक बनने का अवसर मिल जाएगा पर उसका सपना पूरा नहीं हुआ। उसे कोई कष्ट न होता यदि कुशलता के आधार पर चयन होता। कुलीन घरों के लड़के जिन्हें तलवार पकड़ने का भी ठीक से ज्ञान नहीं था, ले लिए गये थे और वह उनसे श्रेष्ठ प्रदर्शन करने पर भी चयन से वंचित हो गया था। वह बारी जाति में पैदा हो गया क्या इसीलिए वह सैनिक होने के योग्य नहीं है ? वह सोचता अवश्य रहा पर किसी से कह नहीं सका।
वह उठा और गाँव के बाहर चला आया। एक सरोवर के किनारे कचनार का एक पेड़ था। उसी के नीचे बैठ गया। थोड़ी देर में भेड़ चराते कुछ और लड़के आ गए। भेड़ें आसपास चरती रहीं। लड़के गुल्ली-डंडा खेलने लगे। खेल में लड़के डंडा गिनने में भूल करते। लड़के बीस तक गिनते। एक चिह्न बनाकर पुनः बीस तक गिनते। गिनने की भूल के कारण कभी-कभी हार जीत में बदल जाती और जीतने वाला हार जाता। गणना की भूल से जीतने वाले को हारते देख वह हँस पड़ा । यही तो उसके साथ हुआ था। वह भी जीतते हुए हार गया था। वह उठा तो एक लड़के ने पूछा ‘रूपन भाई खेलिहँइ नाई?’
‘मन नाई ‘उसने कहा और एक पत्थर उड़ते हुए कबूतर पर मार दिया।
उदयसिंह को एक सैनिक ने बताया कि एक बालक का चयन इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि वह बारी जाति से था। चयन के लिए जो मापदण्ड रखा गया था उसमें वह खरा उतरा था। उदयसिंह तुरन्त बेंदुल पर सवार हुए। उन्होंने चयन कर्ताओं से बात की। ज्ञात हुआ कि मातुल कुलीनों को महत्त्व देने का निर्देश दे गए थे। बारी और ताम्बूलिक इसीलिए नहीं लिए गए। पर क्या इन बच्चों के साथ अन्याय नहीं हुआ? वे मातुल से मिले। सैन्य चयन में कुलीन-अकुलीन का भेद न रखने के लिए कहा। मातुल सहमत होते न दिखे तो उदयसिंह महाराज के पास चले गए।
उदयसिंह महाराज से निवेदन करते रहे। अपना तर्क देते रहे। कुशलता और निष्ठा के महत्त्व दिया जाना चाहिए कुल को ही नहीं, अन्यथा निष्ठावान सैन्यबल का गठन दुष्कर हो जाएगा। माहिल भी महाराज के पास आ गए थे। उन्होंने रक्त और कुल को महत्व देने की बात दुहराई। ‘कुशलता और निष्ठा का क्या होगा ?’ उदयसिंह ने पूछा। माहिल ने उत्तर तो नहीं दिया पर कुलीनता से डिगे नहीं। उदयसिंह ने राजवंशों के इतिहास को उद्धृत करते हुए रक्त सम्बन्धियों को ही षड्यन्त्र का जिम्मेदार ठहराया । महाराज सहमत होते दिखे पर माहिल चिढ़ गए। ‘महाराज विद्याधर ने जो परम्परा डाली थी उससे हम अलग हो रहे हैं। अभी तक निष्ठा और कुशलता को ही हम महत्त्व देते आए है’, उदयसिंह कहते रहे।
महाराज ने मन्त्रणा के लिए महासचिव देवधर,माहिल,माण्डलिक,राजकुमार ब्रह्मजीत,महारानी मल्हना को आहूत किया। तर्क-वितर्क हुए। अन्ततः उदयसिंह के प्रस्ताव पर सहमति बनी। सैन्य बल में विभिन्न वर्गो-जातियों के प्रवेश का तात्कालिक अवरोध हट गया। पर माहिल ने इसे अपमान समझा। वे मन्त्रणा कक्ष से ही उठकर चले गए।
रूपन की उदासी को पत्ते तोड़ती पुनिका ने देखा। उसका टोला रूपन के टोले से सटा हुआ था। रूपन ने भी पत्ते तोड़ती पुनिका को देखा। पुनिका पेड़ से उतर आई।
‘कउन पहार टूट परा हइ’ उसने रूपन से कहा।
‘पहारै हइ पुन्ने। मैं घ्वरसवार न बन सकेंउ।’
‘मन मारन से काम होई?’
‘नाहीं, पै मन मा हुलास नइ उट्ठइ।
‘उट्ठी’ उसने रूपन की आँखों में झाँका।
‘म्वहिंसे कुट्टी....? कहते हुए रूपन थरथरा उठा।
‘त्वहिंसे कुट्टी....? का हिरदव पाथर होइगौ।’
‘पथरै समझौ पुन्ने।’
‘ना समझी ना करउ। अबै पुन्ने हैइन? पात हँइ,पेड़ हँइ,झाड़ हँइ।’
‘पात से काऽ होइ ? पात से मन उखरिगा।’
‘मन लागी।’ कहते हुए पुनिका रूपन से सट कर बैठ गई। रूपन का दायाँ हाथ उसने अपने हाथों में ले लिया। हाथ की उँगलियाँ चटकानेलगी। गाँव के कुछ ढोर दिखाई पड़े। पुनिका तेजी से उठी और पत्ते बटोरने लगी। उन्हें बाँधा और उठाकर रूपन के बगल रख दिया। रूपन अब भी अपने में खोया था। उसकी असफलता ने उसे झकझोर कर रख दिया था।
‘त्वार उदास मुँह मोहि दुखी बनावइ’
‘मन न हुलसइ।’
‘हुलसी। मनिया देव कइ किरपा होई.....उट्ठौ’, कहकर पुनिका उठ पड़ी और रूपन को भी खींच लिया। पत्तों का गट्ठर सिर पर रखा और चल पड़ी। रूपन भी साथ-साथ इस तरह चलता रहा जैसे उसकी डोर पुनिका के हाथ में हो।
‘मन उदास हइ।’ पुनिका ने पूछा।
‘हाँ’, रूपन ने उत्तर दिया।
‘या तोर असली रूप नइ हाँइ, तैं तो खिलत फूल रहसि’, कहकर उसने उँगलियों से गुदगुदी पैदा कर दी। रूपन को हँसना ही पड़ा। दोनों चलते रहे। पुनिका निरन्तर रूपन को प्रसन्न करने का प्रयास करती रही। कुछ दूर चलने पर गाँव निकट आ गया। दोनों अपने-अपने घर की पगडंडी पकड़ चल पड़े। पुनिका ने पलट कर एक बार रूपन को देखा और मुस्करा पड़ी। रूपन भी मुस्कराया।
घर पहुँच कर रूपन चौंक पड़ा। एक अश्वारोही माँ से हँस-हँस कर बात कर रहा था। वह ठिठक गया पर माँ की दृष्टि पड़ गई। उसने पुकारा ‘रूपन।’
रूपन सामने आ गया। अश्वारोही ने रूपन को देखा।
‘सेना में नियुक्ति के लिए गए थे?’
‘हाँ’, रूपन ने सूखा-सा उत्तर देते हुए प्रणाम किया।
‘चयन नहीं हुआ।’
‘नहीं’,
‘बहुत उदास हो।’
रूपन मौन ही रहा।
‘मैं तुम्हें लेने आया हूँ, चलोगे?’ अश्वारोही ने कहा।
‘दूसरी बार लौटने में मन.....’रूपन उत्तर देते रुक गया।
‘इस बार असफल होने का अवसर नहीं आएगा।’
‘मन में विश्वास नहीं बैठता।’
‘मेरी बात का विश्वास करो। मैं मंत्रिपद पर तो नहीं हूँ किन्तु मेरा नाम उदय सिंह है। विश्वास कर सको तो मेरे साथ चलो।’
इसी बीच पुनिका आ गई। उसने झपट कर कहा ‘जइहइ वीर जू। यहिका उदासी से पिण्ड छूटइ।’
‘पुन्ने ठीक कहति हइ’, माँ ने कहा।
‘तो तैयार हो जाओ’ उदयसिंह ने रूपन से कहा। उनकी दृष्टि पुनिका पर भी पड़ी। पुनिका उठी रूपन के कपड़ों की पोटली ले आई। तलवार को साफ किया। रूपन को पकड़ाते बोल पड़ी, ‘जाओ माई क डेहरी न भूलेउ और...’कहते-कहते उसके नयन कोरक भर उठे। रूपन ने तलवार लेली। कपड़े की पोटली उठाई और चलने के लिए प्रस्तुत हो गया। माँ ने भीगे चने भी पोटली में बाँध दिए। उसने माँ के चरण छुए। उदयसिंह ने भी माँ को प्रणाम किया। उन्हें आशीष देते माँ विह्वल हो उठी । रूपन ने एक दृष्टि पुनिका पर डाली और चल पड़ा । पुरजनों से विदा लेते वह बढ़ने लगा। पुनिका उसे उदयसिंह के साथ जाते देखती रही।