Asamartho ka bal Samarth Rmadas - 16 in Hindi Biography by ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ books and stories PDF | असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 16

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असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 16

━━{ शिष्य परिवार और रामदासी पंथ का प्रसार }━━

सामाजिक क्रांति की नींव
समाज में जागृति लाते हुए समर्थ रामदास ने कई जगहों पर भ्रमण किया। उनके भक्त और शिष्य की मंडली में लगातार बढोतरी होती गई। उनके द्वारा स्थापित हर मठ जन चेतना जागृत करने के कार्य में जुटा रहा। उन्होंने लगभग 1400 युवाओं को दीक्षित किया। उनमें से कुछ गृहस्थ थे तो कुछ ब्रह्मचारी। उनके भक्तों में सईबाई, वेणाबाई की कहानियाँ काफी रोचक हैं।

सईबाई शाहपुर गाँव में रहनेवाली एक झगड़ालू स्त्री थी। 'राम' नाम से उसे बहुत चिढ़ थी क्योंकि उसका मानना था यह नाम सिर्फ किसी की मृत्यु होने पर लिया जाता है। इसलिए उस नामोच्चार को वह अशुभ मानती थी। बड़ी सी हवेली में रहनेवाली सईबाई आते-जाते साधु-संतों को अपमानित करती रहती।

समर्थ रामदास कुछ समय से उसके गाँव में निवास कर रहे थे। वे निरंतर राम का नाम लेते हैं, यह जानकर सईबाई को उनसे भी कष्ट होने लगा। वे जब भिक्षा माँगने सईबाई के द्वार पर जाते तो वह उनके सामने ही प्रभु राम को अपशब्द कहकर उन्हें अपमानित करती।

अब तो हर रोज़ उसके द्वार जाकर, अपमानित होकर वापस आने का समर्थ रामदास ने मानो नियम ही बना लिया था। जैसे ही वह उनके लिए, प्रभु राम के लिए अपशब्द कहती, वे उसे आशीर्वाद देकर वापस चले आते। राम का नाम किसी के लिए विपदा का कारण नहीं है, यह वे उसे सिखाना चाहते थे। सबकी पीड़ा हरनेवाले प्रभु राम के नाम से किसी का अमंगल कैसे हो सकता है! सईबाई के मन का यह भ्रम मिटाना वे प्रभु राम की इच्छा मान रहे थे।

सईबाई के पति सुलतान आदिलशाह के दरबार में सेवारत थे। एक दिन किसी झूठे आरोप में उन्हें और उनके दामाद को सुलतान ने बंदी बना लिया। इससे सईबाई सुन्न हो गई। समर्थ रामदास को जवाब देना उसने बंद कर दिया।

एक सीधे-सादे इंसान को बेवजह बंदी बनाया, यह सुनकर समर्थ रामदास को कष्ट हुआ। वे सईबाई की मदद करने पहुँचे। सईबाई का यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया था कि उसके द्वार पर रोज राम का नाम लिया गया, इसीलिए उसके परिवार पर यह विपदा आई।

लेकिन इतना कोसने के बाद भी समर्थ रामदास उनका भला चाहते हैं, यह सुनकर उसका हृदय थोड़ा पिघल गया। उसने समर्थ रामदास को वचन दिया कि इस आपत्ति से उसके पति और दामाद को उन्होंने सही सलामत छुड़ा लिया तो वह भी राम का गुणगान करना आरंभ करेगी।

प्रभु राम से मिली अंतःप्रेरणा और अपने व्यवहार कौशल्य से समर्थ रामदास ने सईबाई के परिवार को उस संकट से कुछ ही दिनों में मुक्त किया। सईबाई के पति पर लगा आरोप झूठा साबित हुआ और सुलतान आदिलशाह ने उसे कैद से मुक्त कर दिया।

इससे आनंदित होकर सईबाई ने समर्थ रामदास को आदर सहित अपने घर बुलाकर उनके चरण छूए। उनके लिए भोजन का प्रबंध किया। भोजन पश्चात जब सईबाई के पति ने उन्हें दक्षिणा देनी चाही तो उन्होंने दक्षिणा के रूप में उनका पुत्र माँग लिया। तब सईबाई ने कहा, 'एक पुत्र ही क्यों! मेरे पाँचों पुत्र और हमारा पूरा परिवार आज से आपकी सेवा में सदा के लिए तत्पर रहेगा।'

उस पूरे परिवार को रामदासी संप्रदाय की दीक्षा दी गई। उन्होंने अपने ग्यारह वर्ष के पुत्र को समर्थ रामदास के सामने प्रस्तुत किया। वह बालक रामदासी संप्रदाय से जुड़कर, उनके साथ मार्गस्थ होने के लिए उल्हासित था। इस तरह एक-एक शिष्य जोड़ते हुए समर्थ रामदास आगे चलते रहे ।

शिष्योत्तमा वेणाबाई :
कोल्हापुर में उनकी भेंट गोपजीपंत देशपांडे से हुई। वे समर्थ रामदास के अनुयायी थे। उनकी मासूम पुत्री वेणा बालविधवा थी। समर्थ रामदास के सत्संग में उसका मन बहुत रमता था। सादगी और सात्विकता से भरी उस बच्ची के जीवन में कोई लक्ष्य नहीं था। उस समय समाज में विधवाओं की अवस्था बड़ी दयनीय थी। उन्हें मंदिर के अलावा कहीं आने-जाने की अनुमति नहीं थी।

समर्थ रामदास ने वेणा को तत्वचिंतन का ज्ञान देना आरंभ किया। उसमें आत्मापरमात्मा के विषय में जानने की जिज्ञासा पहले से ही थी। समर्थ रामदास की तत्वज्ञान भरी बातों से उसका चित्त शांत होने लगा। लेकिन समाज में कुछ लोगों को वेणा का नियमित रूप से मंदिर जाना, तत्वचिंतन की बातें सुनना अनुचित लगने लगा।

समर्थ रामदास ने उसे समझाया कि वह नित्य उनसे मिलने न आया करे वरना उसे समाज में मानसिक कष्ट भुगतने पड़ेंगे। लेकिन वेणा को अब किसी की परवाह नहीं थी। अपने सद्गुरु समर्थ रामदास से मिले ज्ञान ने उसके अंदर आध्यात्मिक प्यास जगाई थी। उनसे मिले राम नाम मंत्र से उसमें आत्मज्ञान की ज्योत जलने लगी थी।

समाज ने उसे ताने देना शुरू कर दिया। आते-जाते लोग उसे तिरछे कटाक्ष देखने लगे। लेकिन वेणा आत्मज्ञान के रास्ते पर चल पड़ी थी। मीरा की तरह विष का घूँट पीने तक को राज़ी थी।

एक दिन समर्थ रामदास ने उसके सारे कष्ट हर लिए। उसके माता-पिता से भिक्षा में उसे माँग लिया। वेणा का जीवन सार्थक हो गया। माता-पिता को विश्वास था कि समर्थ रामदास के साथ रहकर उनकी पुत्री का उद्धार होगा।

मठ में कई सारे बालक शिष्य, सईबाई और कुछ अन्य स्त्रियों के साथ वेणाबाई भी रहने लगी। समर्थ रामदास से ज्ञान लेते हुए, वेणाबाई उनकी आज्ञा अनुसार कीर्तन करने लगी। उस समय समाज में किसी विधवा स्त्री का कीर्तन करना एक क्रांतिकारी घटना थी।

जब भी किसी ने कुछ क्रांतिकारी कदम उठाया है, उसे समाज के रोष का सामना करना पड़ा। समर्थ रामदास की भी इस वजह से काफी निंदा होने लगी। लेकिन उन्होंने समाज की आवश्यकता को भाँपते हुए स्त्रियों को शास्त्राभ्यास के लिए प्रेरित किया और कुछ जगहों पर तो उन्हें मठाधिपति भी बनाया।

ऐसा कहा जाता है कि जब समर्थ रामदास चाफल में थे तब रामनवमी उत्सव की तैयारी करने के लिए वे सारे शिष्यों को साथ लेकर आस-पास के गाँव में भिक्षा माँगने गए। तब उत्सव की सारी तैयारी करने की ज़िम्मेदारी उन्होंने वेणाबाई को सौंपी थी। लेकिन उत्सव से कुछ ही दिन पहले वेणाबाई को तेज़ बुखार हो गया। चलना फिरना भी उनके लिए मुश्किल हो गया। अब उत्सव की तैयारी कैसे होगी, इस चिंता से वे प्रभु राम की मूर्ति के सामने खड़ी होकर उनसे मदद की गुहार लगाने लगी।

जिस तरह विट्ठल ने अलग-अलग रूप लेकर संत जनाबाई, संत एकनाथ की सेवा की, प्रभु राम भी 'रामबाई' के रूप में चाफल पधारे और वेणाबाई से कहा कि समर्थ रामदास ने उन्हें पासवाले गाँव से उनकी मदद के लिए भेजा है।

उत्सव की सारी तैयारियाँ पूर्ण करके रामबाई चली गई। जब समर्थ रामदास चाफल लौटे तब वेणाबाई को पता चला कि उन्होंने ऐसी कोई स्त्री नहीं भेजी थी। तब सभी को यह अनुभूति हुई कि समर्थ रामदास के सान्निध में रहकर उनके भक्तों का भी उद्धार हो रहा था और समाज का भी।

साहस महापुरुषों का गुण है। योग्य दिशा में किया गया साहस और साहस के साथ अपने निर्णय पर टिके रहना रूपांतरण का मूल मंत्र है।


देह्यादिक प्रपंच हा चिंतीयेला। परी अंतरी लोभ निश्चित ठेला।
हरी चिंतने मुक्ती कांता वरावी। सदा संगती सज्जनाची धरावी ॥165॥

अर्थ - इंसान हर पल संसार के बारे में सोचता है इसलिए संसार के प्रति लोभ, आसक्ति उत्पन्न होती है। हरि का चिंतन करते मुक्ति को अपनी संगिनी बनाओ और इसके लिए हमेशा सज्जन की संगत में रहो।

अर्क - जिस चीज़ के बारे में हम लगातार सोचते हैं, उसके प्रति मन में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है। जिस चीज़ से आसक्ति है इंसान उसी को पाने की कामना करता है। इसलिए समर्थ रामदास मुक्ति को ही अपना जीवनसाथी बनाने का उपदेश देते हैं ताकि आप सदा मुक्ति के बारे में ही सोचो और इसके लिए सदा सज्जनों की संगत में रहो।

अहंकार विस्तारला या देह्याचा। स्त्रिया पुत्र मित्रादिके मोह त्यांचा।
बळे भ्रांति हे जन्म चिंता हरावी। सदा संगती सज्जनाची धरावी ॥ 166 ॥

अर्थ- देहभाव और अहंकार की वजह से संसार के प्रति मोह उत्पन्न होता है और मन स्त्री, पुत्र, मित्र, रिश्तेदार इनमें उलझ जाता है। प्रयास पूर्वक निश्चय के साथ देहबुद्धि को दूर कर जन्म की चिंता दूर करें। इसके लिए हमेशा सज्जनों की संगत में रहें।

अर्क - खुद को शरीर मानने की वजह से संसार के प्रति जो आसक्ति उत्पन्न होती है, वह बंधन का कारण बनती है। संसार में रहते हुए कुछ इच्छाएँ अपूर्ण रह जाती हैं। शास्त्रों के अनुसार इस वजह से इंसान जन्म-मृत्यु के फेरे में अटका रहता है। जब ‘मैं शरीर नहीं हूँ' की समझ जगती है तब रिश्तों के प्रति आसक्ति स्वतः ही समाप्त हो जाती है। यह समझ जागे इसके लिए समर्थ रामदास सज्जनों की संगत में रहने का उपदेश देते हैं।