Asamartho ka bal Samarth Rmadas - 17 in Hindi Biography by ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ books and stories PDF | असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 17

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असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 17

चाफल में राम मंदिर का निर्माण

सातारा ज़िले में स्थित चाफल (चाफळ) ग्राम, उस वक्त मुगल शासकों के कब्जे में था। उस समय नए मंदिरों का निर्माण लगभग बंद हो चुका था। लोग किसी पत्थर को सिंदूर से लेपकर उसे गाँव की सरहद पर रख देते और आते-जाते उसी को नमन करते। उसे ही अपने कुल का देवता मान लेते। मुगल शासन में हिंदुओं के लिए अपने धर्म और संस्कृति का पालन करना बड़े साहस का काम था।

समर्थ रामदास के रूप में चाफल ग्रामवासियों को एक साहसी धर्मोपदेशक मिला था। उनकी राह पर चलने के लिए चाफल के युवाओं में काफी उत्साह था। समर्थ रामदास वहाँ के युवाओं में लोकप्रिय बनते जा रहे थे ।

एक दिन सारे ग्रामवासियों ने समर्थ रामदास के साथ मिलकर तय किया कि गाँव में भव्य राम मंदिर का निर्माण हो। कुछ लोगों की थोड़ी आनाकानी के बाद सिंदूर लिपे सारे देवताओं को जल समाधि दी गई और ग्रामवासियों के श्रमदान एवं धनदान द्वारा जल्द ही राम मंदिर साकार हुआ।

अब सबके सामने प्रश्न था कि मंदिर में स्थापित करने के लिए मूर्तियाँ कहाँ से आएँगी! इससे पहले दूसरे शहर में भी एक मंदिर के लिए मूर्तिकार से मूर्तियाँ बनवाईं गई थीं। समर्थ रामदास ने उसी मूर्तिकार से यहाँ के लिए मूर्तियाँ बनवाने का सुझाव दिया लेकिन थोड़ी धनराशि की कमी थी।

समर्थ रामदास का विश्वास था कि जब मंदिर प्रभु राम की इच्छा से बना है तो वे स्वयं ही आकर विराजमान भी होंगे। तभी किसी वृद्ध ने सुझाव दिया कि बिना धनराशि खर्च किए भी मूर्तियाँ मिल सकती हैं। बस किसी को जोखिम उठाना होगा।

वहाँ पास ही कृष्णा नदी के कुंड में मुगलों ने तोड़े हुए मंदिर की मूर्तियाँ लाकर पानी में डुबो दी थीं। उन्हें पानी से बाहर निकालने के लिए किसी साहसी वीर की ज़रूरत थी क्योंकि पानी काफी गहरा था और पानी में बड़े-बड़े भँवर भी थे। जान का जोखिम उठाकर पानी में जाने पर भी वहाँ मूर्तियाँ मिलने की संभावना कम ही थी और हो भी तो पत्थर से बनी मूर्तियों को गहरे पानी से बाहर लाने के लिए बड़ी ताकत की आवश्यकता थी।

यह जानकर समर्थ रामदास ने स्वयं पानी में उतरने का निश्चय किया। अगले ही दिन वे और कुछ साहसी युवक नदी के तट पर जा पहुँचे। पानी की गहराई देखकर कुछ युवाओं का साहस टूट गया। लेकिन समर्थ रामदास का निश्चय अटल था।

‘जय जय रघुवीर समर्थ’ का नारा लगाकर वे गहरे पानी में कूद पड़े। सुनी-सुनाई बातों के आधार पर उन्होंने बहुत बड़ी जोखिम उठाई थी। काफी देर तक उनका कोई अता-पता नहीं था। तट पर खड़े युवाओं में खलबली मची कि कहीं वे भँवर में तो नहीं फँसे!

काफी समय बीतने के बाद समर्थ रामदास कंधों पर एक देवी की मूर्ति उठा लाए। उसे तट पर रखकर उन्होंने दोबारा पानी में छलाँग लगाई और थोड़ी ही देर में प्रभु राम की मनोहारी मूर्ति लेकर पानी से बाहर आए।

चाफल के युवा उत्साहित हो गए। रघुवीर समर्थ के नारे लगने लगे। मंदिर के लिए मूर्तियाँ मिल गईं, यह उनके लिए बड़े हर्ष का कारण था। लेकिन थोड़ी ही देर में उनका उत्साह भंग हुआ क्योंकि पासवाले अंगापुर से ग्रामवासियों ने आकर मूर्तियों पर अपना हक बता दिया क्योंकि वे मूर्तियाँ उनके ग्राम की सीमा में मिली थीं।

इसे भी प्रभु राम की इच्छा मानकर समर्थ रामदास मूर्तियाँ वहीं छोड़कर वहाँ से चाफल चले आए। चाफल ग्रामवासियों में गुस्से की लहर दौड़ पड़ी। वे अंगापुर से उन मूर्तियों को बलपूर्वक लाना चाहते थे लेकिन समर्थ रामदास ने मना किया। अगर प्रभु राम की इच्छा होगी तो वे यहाँ जरूर पधारेंगे, ऐसा समझाकर उन्होंने युवकों को शांत किया।

अगले दिन प्रातः समर्थ रामदास जब स्नान करके लौट रहे थे तब उन्हें अपनी तरफ आती हुई भीड़ दिखाई दी। वे अंगापुर के ग्रामवासी थे। समर्थ रामदास को देखते ही उन्होंने उनके चरण पकड़ लिए और मूर्तियों को लेकर उनके द्वारा जो दुर्व्यवहार चाफल वासियों के साथ हुआ था, उसके लिए क्षमा माँगने लगे।

सारी हकीकत जानने के बाद पता चला कि चाफल वासियों के निराश होकर लौटने के बाद जब उन्होंने वे मूर्तियाँ अपने गाँव ले जाने की कोशिश की तो मूर्तियाँ अपनी जगह से तिलमात्र भी नहीं हिलीं। पूरा ज़ोर लगाकर कोशिश करने पर भी मूर्तियाँ अपना हठ ठाने वहीं की वहीं खड़ी रहीं। ग्रामवासी समझ गए कि प्रभु श्रीराम चाफल निवासी ही बनना चाहते हैं। इसलिए वे मूर्तियाँ वहाँ से चाफल ले जाने की विनती करने अंगापुर ग्रामवासी वहाँ आए थे।

चाफल में यह सुनकर आनंद और उल्लास भर गया। समर्थ रामदास के पीछेपीछे दोनों ग्राम के वासी नदी की ओर चल दिए। वहाँ समर्थ रामदास ने मूर्तियों का वंदन कर, एक क्षण में ही उन्हें अपने कंधों पर उठा लिया।

प्रभु श्रीराम का नामघोष करते हुए मूर्तियाँ चाफल में पधारीं और शुभ मुहुर्त के साथ प्रभु राम मंदिर में विराजमान हो गए। पास ही हनुमान मंदिर भी बनाया गया। उस वक्त चाफल मानो रामदासी संप्रदाइयों की राजधानी बन गई थी। आज भी ये दोनों मंदिर समर्थ रामदास की भक्ति और शक्ति के प्रतीक बनकर, इतिहास की गवाही देते हैं।

'तुम्हें जो लगे अच्छा वही मेरी इच्छा' यह विचार ईश्वर के प्रति सबसे बड़ा समर्पण है।
ईश्वर इच्छा के प्रति जो समर्पित होता है, वह ईश्वर के महान कार्य के लिए निमित्त बनता है।


करी वृत्ती जो संत तो संत जाणा। दुराशागुणें जो नव्हे दैन्यवाणा।
उपाधि देहेबुद्धी ते वाढविते। परी सज्जना केवि बांधू शके ते॥168॥

अर्थ - जो अपनी वृत्तियों को शांत करता है वह संत । दुराशा, दुष्ट कामनाओं की वजह से जिसकी दुर्गति नहीं होती वह संत । उपाधि यानी पद देहबुद्धि को बढ़ावा देता है। लेकिन संत सज्जन पर इसका कोई परिणाम नहीं होता।

अर्क - पद, प्रतिष्ठा से आसक्ति बंधन का कारण है। पद, प्रतिष्ठा सँभालने के प्रयास में इंसान अपनी वृत्तियों में ही उलझा रहता है। जीवनभर खुद को शरीर मानकर ही व्यवहार करता है। जो इस पद-प्रतिष्ठा की आसक्ति से ऊपर उठा है एवं इनसे जुड़ी दुष्ट कामनाएँ जिसे भटका नहीं सकतीं, वह संत है, ऐसा समर्थ रामदास कहते हैं।

असे सार साचार ते चोरलेसे। इही लोचनी पाहता दृश्य भासे॥
निराभास निर्गुण ते आकळेना। अहंतागुणे कल्पिताही कळेना॥171॥

अर्थ - दृष्टि को जो सृष्टि दिखाई देती है, वह असल में आभास है। ब्रह्मांड को व्यापनेवाला परम सत्य गुप्त रूप में है, जो पूरे विश्व का सार है। अपने अहंकार की वजह से इंसान उस निर्गुण निराकार को कभी जान नहीं पाता।

अर्क- अहंकार, सच्चाई का दर्शन होने में सबसे बड़ी बाधा है। खुद को शरीर मानकर इंसान आभासी दुनिया को ही सच मान लेता है और उसी विश्वास में पूरा जीवन बिताता है। निर्गुण निराकार परमसत्य को अव्यक्त रखा गया है। लेकिन जो देहबुद्धि का त्याग कर, अहंकार से परे उस परम सत्य की खोज करता है, उसे कण-कण में सत्य की ही अनुभूति होती है। मगर जब तक मन में अहंकार है, उस परमसत्य की अनुभूति की कल्पना भी नहीं की जा सकती, ऐसा समर्थ रामदास कहते हैं।