Guldasta - 16 in Hindi Poems by Madhavi Marathe books and stories PDF | गुलदस्ता - 16

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गुलदस्ता - 16

       १०१ 

क्या कोई किसीको

समझ सकता है  ?

अपने मनकी बात

किसी को बतला सकता है ?

सबका है रवैंय्या

अपना अपना

दुसरों का जीवन

किसे भाता है ?

सबकी है समस्या बडी बडी

तुम क्या जानो मेरा दर्द

अपना रास्ता नापो भाई

किसे कहाँ है मेरी कद्र

सब आऐंगे केवल पुछने

हल न कोई बताऐंगे

पीठ पीछे अपनेही लोग

दर्द का मजाक बनाएंगे

अरे, दुनियावालो मुझे भी

परवाह नही तुम्हारी

तुम जियो मैं भी जिऊंगा

दुनिया है मतवारी

......................

         १०२

दुर पहाडपर बिजली चमकी

घनघोर अंधेरा पलट गया

क्षणभर के उजाले में

विराट दर्शन निखर गया

आवाज में थी निडरता

कहे, सब कुछ सह लुंगी

पर संभलकर रहना मुझसे

कही तुमपर ना गिर जाउँगी

हो जाओगे क्षण में भस्म

समाज तुम्हे याद करेगा

अभी तो था, मैंने देखा

कहकर फिर भूल जाएगा

मैं ही याद दिलाती रहूंगी

जब आसमान में चमकूंगी

मृत्यू का घाव उनके

डरे हुए आँखों में देखुंगी

..........................

       १०३

आज एक मकान

उजडा पडा है

वहाँ के हवाओं ने

चैन की साँस ली है

किलभरे दिवारों पे

कही तिरछी तस्वीरे पडी है

मुन्नी की गुडियाँ का हाँथ

अपनी मालकीन ढुँढ रही है

कही बिखरे पन्ने अपनी

दास्तान सुना रहे है

कभी उसी पे लिखा करते थे

वो बाबूजी कहाँ गये है

खानाघर से अभी तक

भोजन की खुशबू आ रही है

जाते जाते दिया जलाकर

मालकीन सजल आँखों से गई है

मैं हूँ तो एक मकान

आते जाते रहेंगे लोग

मुझे तो बस देखते रहना है

दुनिया मैं है कैसे कैसे लोग.

..............................

       १०४

आज रात इतनी लंबी

क्यूं लग रही है

एक एक पल

युगों समान बीता जा रहा है

कुछ खोने का डर

मन में डरा रहा है

घबराहट से शरीर पर

पसीना आ रहा है

पर मेरे पास है ही क्या

जो मैं खो जाऊँ

अपनी खाली झोली के

गीत किसे सुनाऊँ

समय एक ही बचा हुवा था

वो भी पल पल करता जाता है

शायद उसेही रोकने के लिये

मेरा मन ललचाता है

मालूम है उसे

कभी रोक ना पाऊँगी

उन जाते हुए लम्हों में

फिर जीती जाऊँगी

अब रात कितनी भी

लंबी क्युं ना हो

बीते हुए जिंदगी के पल

याद भी तो करने है

.....................

       १०५

पानी के लहरोंने

कभी मुडकर देखा है?

कहाँ से आये हम

कहाँ तक जाना है?

बस चली जाती है

अपने ही धुन में

कभी गाँव किनारे

धुपछाँव में लहराती

कभी पहाडों से गिरने

बस वही जगह

आवाज बदलती रहती है

मध्य में तो वह

कलकल बहती रहती है

कभी देख लोगों की मुस्कान

कही घना जंगल

सुबह ओढे सुरज की लालिमा

रात में चाँदनी पायल

बरसात में आए बाढ

गर्मियों में सुखा

जीवन की यह रीत है

भाई, कभी ना गवाँओ मोका

............................

        १०६

संडे सुबह की चाय ने कभी

तुम्हे बतलाया है

आज का दिन

कैसे जानेवाला है

अगर मिल जाए

अद्रकवाली चाय तो समझो

पत्नीजी का मुड अच्छा है

कुछ तो काम है हमसे

जो वो आज निपटाना है

भरे हुए पॉकेट को

शायद खाली करवाना है

इलायचीवाली चाय मिली

तो समझो प्यार का

मौसम चल रहा है

रात की चाँदनी दिनभर

गुनगुनानेवाली है

ठंडी पतली चाय अगर

हाथ आ गई, तो समझो

आज का दिन खतरों से

मंडरा रहे है

इसको हँसी मजाक समझो

ये तो जीवन का खेल है

...........................