Shakunpankhi - 20 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 20 - ये आँखें

Featured Books
  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

  • मंजिले - भाग 14

     ---------मनहूस " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ कहानी है।...

Categories
Share

शाकुनपाॅंखी - 20 - ये आँखें

28. ये आँखें

जिस इमारत में पृथ्वीराज का कैद किया गया था उस पर सख़्त पहरा था। पृथ्वीराज एक कोठरी में बैठा अपने क्रिया कलापों के बारे में सोचता रहा। कहाँ वह चाहमान नरेश था, आज बन्दी है। कल क्या होगा? उसकी भूख प्यास गायब हो गई। भृत्य आता भोजन के लिए निवेदन करता पर पृथ्वीराज इनकार कर देता। बहुत आवश्यक हुआ तो जल ग्रहण कर लेता। जो सदैव अपने सहयोगियों, कर्मकरों से घिरा रहता था, आज सूनी दीवारें ही उसका हाल चाल पूछतीं ।
उसका परिवार, उसके लोग किन स्थितियों में हैं? प्रजा किन संकटों का सामना कर रही हैं? यह बताने वाला कोई न था । भृत्य जो उसकी देख-भाल के लिए लगे थे, उनसे कुछ पूछना, एक तरह से अपनी कमज़ोरी प्रदर्शित करना था । वे ध्यान में मन लगाते पर कभी कभी अत्यन्त व्यग्र हो उठते । भृत्य से अनौपचारिक चर्चा में यह पता चलता कि चाहमान बैठक में सुल्तान का इजलास लग रहा है। सुल्तान के सिपहसालार जगह जगह लूट खसोट कर रहे हैं। सरस्वती मंदिर गिराने की सूचना उसके मन मस्तिष्क पर बिजली गिरा गई। घंटों वह शून्य में ताकता रहा । सचेत होने पर हाथ मल कर रह गया। दीवार में दो चार मुक्के लगाकर भी मन शान्त नहीं हुआ।
सुल्तान को बताया गया कि चाहमान नरेश भोजन नहीं ले रहे हैं। उसने रसोइए से भोजन की गुणवत्ता के बारे में जानकारी ली। संतुष्ट होने पर उसने सोचा- राजा दुःखी है इसीलिए खाना नहीं खा रहा है। वह राजा से मिलने चल पड़ा। कुतुबुद्दीन, तातार सभी साथ चल पड़े। द्वार खुला। सुल्तान सभी के साथ अन्दर गया । भृत्य ने दौड़कर चाहमान नरेश को सूचित किया। नरेश पर कोई असर नहीं हुआ। 'खाना क्यों नहीं खा रहे ?' सुल्तान ने पूछा। नरेश ने कोई उत्तर नहीं दिया । 'तुम्हारी परीशानी का सबब है?"
नरेश मौन ही रहा जैसे सुना ही न हो।
'तुम्हें कुछ अर्ज़ करना हो तो कर सकते हो।'
नरेश पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। सुल्तान कुछ उत्तेजित होकर सँभल गया । 'गुलामी की तौंक पहन लो तो फिर राजा बन सकते हो।'
राजा को जैसे छौंका लग गया। वह कसमसाते हुए उठा। सुल्तान की ओर आँखें ऐसे तरेरी जैसे उसे खा जाएगा। राजा का आँखें तरेरना सुल्तान को खल गया। वह बाहर निकल आया। कुतुबुद्दीन से कहा, 'राजा की आँखें मुझे वहशी लगती हैं। इसका इलाज करना होगा।' 'ज़रूर करना पड़ेगा, कुतुबुद्दीन ने जोड़ दिया।
सुल्तान के जाने के बाद राजा बड़ी देर तक दीवार में मुक्के मारता रहा । जब गुस्सा कुछ शान्त हुआ बैठकर सोचने लगा अपने परिवार, राज्य, एवं प्रजा के बारे में। उसे स्कन्द का ध्यान आया कहाँ होगा अब ? चुप तो नहीं बैठेगा वह...... और हरिराज ....... क्या दोनों से भेंट हो सकेगी? गोविन्द की क्या स्थिति है? कन्हकुमार....क्या वे सब सुरक्षित हैं? संयुक्ता के बारे में कुछ भी पता नहीं चल सका। वह सोचता रहा जैसे अनन्त में उड़ता हुआ पंछी ।
कैदखाने का दरवाजा खुला एक अधिकारी अन्दर आया । दाढ़ी और बाल करीने से कटे हुए। शरीर गठा, लम्बा, चेहरा आकर्षक। सीधे पृथ्वीराज के सम्मुख पहुँचा। पैरों में बेड़िया पड़ी हैं। कुछ सोचते हुए वे दीवार की ओर देख रहे थे। अधिकारी के आने की आवाज़ उनके कानों तक पहुँची, पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। जब अधिकारी बिल्कुल निकट आ गया, उसके उँगलियों की अंगूठी चमक उठी। पृथ्वीराज की दृष्टि अंगूठी पर पड़ी। उन्होंने आगन्तुक के चेहरे पर दृष्टि टिका दी । उसमें उन्हें स्कन्द का चेहरा दिखा। वे संभल कर बैठे। दोनों की दृष्टि मिली। आगन्तुक ने बड़ी कठिनाई से अश्रुओं को रोकते हुए सख्त लहजे में कहा-
'दुःखी न हो राय पिथौरा । किसी के भी दिन एक से नहीं रहते। सुरंग से भी सूरज की रोशनी आती है। दसवें दिन जुमेरात है। आधी रात में सियार दो बार बोलता है।' अधिकारी ने आस-पास का निरीक्षण किया। एक बार फिर पृथ्वीराज के पास आया, आँखें मिलीं और लौट पड़ा। अधिकारी के जाते ही दरवाज़ा बन्द हुआ। भृत्य से कह गया, 'राय पिथौरा का ख़याल रखना।' अधिकारी की बातें भृत्य ने भी सुनी पर वह कुछ समझ नहीं सका। स्कन्द जिस सन्देश को देना चाहते थे उसे पृथ्वीराज ने समझा । उन्होंने माँ शारदा को स्मरण किया। चोबदार और भृत्यों को कुछ असहज अवश्य लगा पर तुर्क अधिकारी से कोई प्रश्न करना उनके अधिकार क्षेत्र से परे था ।
सुल्तान, हम्जा, कुतुबुद्दीन और तातार जैसे बैठे, ख़बरगीर ने आकर सिर झुकाया । 'कहो कोई ख़ास ख़बर', सुल्तान ने पूछा ।
'हुजूर मुआफी चाहता हूँ। मैं दो दिन लगातार चारों तरफ घूमता रहा। मंदिरों को तोड़ने और राजा को कैद कर लेने से आम लोगों के एक खास तबके में बड़ी बेचैनी है। वे खास तबके के लोग खासे असरदार हैं। हो सकता है चौहान के भाई हरिराज व खास सिपहसालार स्कन्द की नुमाइन्दगी में लोग बग़ावत कर उतर आएँ।' इतना कह कर ख़बरगीर चुप हो गया। 'जाओ, अभी थोड़ी देर आराम करो', सुल्तान ने कहा। खबरगीर ने सिर नवाया और चला गया।
'ख़बर बहुत अहम है', सुल्तान ने कहा ।
'हमें गौर करना होगा कि इस फतह को कामयाब कैसे बनाया जाए? ग़ज़नी से इन रियासतों का बन्दोबस्त करना खासा मुश्किल होगा। ग़ज़नी भी बहुत पुरअम्न नहीं है। वहाँ भी फ़ौज रखना ज़रूरी है। हम्ज़ा रणथम्भौर किले से निगरानी कर रहे हैं पर इससे तो काम नहीं चलेगा।'
'तब', तीनों बोल पड़े।
'इसी पर तो गौर करना है। एक बार दिल में आया था कि अगर हमारे हुक्म मानकर चले और सालाना एक अच्छी रकम बतौर नज़राना ग़ज़नी भेजा करे तो पृथ्वीराज को ही बहाल कर दिया जाए। पर आज उसकी आँखों को देखकर मैंने इरादा बदल दिया है। अब पृथ्वीराज को बहाल नहीं करना है और कोई रास्ता सोचो।'
'हुजूर मैं अर्ज करूं, हम्ज़ा ने कहा।
'कहो', सुल्तान ने कहा ।
'अगर हमें किसी को बहाल करना हो तो वह काफी कमज़ोर हो जिसकी नज़र कभी बदले भी तो हम उसे दबोच लें।' हम्ज़ा अपनी दाढ़ी सहलाते हुए कहते रहे ।
'ठीक कहते हो हमज़ा । मेरे दिमाग में एक बात आई है। क्यों न पृथ्वीराज के बेटे को बहाल करके हुकूमत चलाई जाए? इससे दो फायदे होंगे एक तो आम जनता की बगावत का गुब्बारा फूट जाएगा और दूसरे राजा के बेटे के नाम पर हमारे आदमियों की ही हूकूमत चलेगी। वह अभी नाबालिग है, हमारे सिपहसालारों का हुक्म चलेगा। हम हुकूमत भी करेंगे और झंझटो से भी बरी रहेंगे।' सुल्तान के चेहरे पर गम्भीरता उभर आई। 'बिल्कुल ठीक है पर एक बात और मेरे दिमाग़ में आई है। अजमेर और दिल्ली दोनों के लिए अलग-अलग राजा बनाए जाएँ और दोनों नाबालिग हों। कम से कम वे आठ-दस साल बालिग न हो सकें।'
'बहुत खूब हम्जा, तुम्हारे अक्ल की दाद देनी होगी। अजमेर में पृथ्वीराज का बेटा बिठा दिया जाए और दिल्ली के लिए कन्ह देव का बेटा ।'
'आपने बिल्कुल ठीक सोचा हुजूर', हम्ज़ा कह गए।
'दोनों की निगरानी के लिए कुहराम और समाना के किलों में अपनी फौज रखी जाए और कुतुबुद्दीन उसकी देख रेख का काम सँभालें ।
ऐसी हालत में थोड़ी भी चुस्त फौज सब काम सँभाल लेगी। क्यों कुतुबुद्दीन ?” सुल्तान ने कुतुबुद्दीन से पूछ लिया।
'हुजूर की सोच वाजिब है इंशा अल्लाह आगे जैसा होगा देखा जाएगा।' कुतुबुद्दीन ने मत व्यक्त किया।
'पर आप दोनों की ज़िम्मेदारी होगी कि कोई बाग़ी सिर न उठा सके। यह जरखेज़ ज़मीन हाथ से नहीं जानी चाहिए।'
'आपका हुक्म पूरी तरह तामील होगा', कुतुबुद्दीन और हम्ज़ा दोनों बोल उठे ।
'सुनता हूँ चौहान तस्वीर बनाने में माहिर है। ज़रा देखा जाए वह कैसी तस्वीरें बनाता था? अजीब लगता है एक तीरन्दाज़ द्वारा तस्वीर बनाना, क्यों तातार?" 'बिल्कुल ठीक कहते हैं हुजूर। कहाँ मैदाने जंग में तीर चलाना और कहाँ घर में बैठकर तस्वीर पर रंग फेरना।'
“पर चौहान में बहुत खूबियाँ लोग बयाँ करते हैं। सुना गया है कि वह आवाज़ पर तीर मारता है।' कहते हुए शाह उठे ।
'पर अब वह कैदी है। सारी खूबियाँ हवा हो गई।' कहते हुए तातार, कुतुबुद्दीन और हम्ज़ा साथ ही उठ पड़े।
चारों तस्वीर घर की ओर बढ़ गए। सुरक्षा में तैनात प्रहरी झुक कर आदाब करते रहे। प्रताप सिंह को बुलाया गया। चित्रशाला खुली। पांचों तस्वीरें देखने लगे। प्रताप सिंह बताते जाते। विद्योत्तमा का चित्र देखकर सुल्तान रुक गए।
'यह किसकी तस्वीर है? यह लड़की इस समय कहाँ है?" सुल्तान ने पूछा। 'हुजूर हज़ार साल पहले एक शायर हुए हैं कालिदास। उनके बेगम की तस्वीर है यह ।'
प्रताप सिंह ने समझाया ।
'इतनी खूबसूरत बेग़म शायर की', सुल्तान चौंक पड़ा। 'वह शायर भी बहुत अज़ीम था हुजूर, प्रताप बताने लगा । 'कहते हैं इसी बेगम की वजह से कालिदास इतना बड़ा शायर बना ।'
'अच्छा', सुल्तान आगे बढ़ गया । 'चौहान तस्वीरें बहुत अच्छी बनाता है।' 'हाँ हुजूर', प्रताप सिंह ने हुँकारी भरी। सभी तस्वीरें देखते आगे बढ़ते गए। दीवार पर बनी एक बड़ी तस्वीर में दिखाया गया था कि चौहानों ने तुरुष्कों को कत्ल कर दिया है और उनके मांस को श्वान खा रहे हैं। सुल्तान को कुछ आभास हो गया था पर उसने प्रताप सिंह से पूछ लिया, 'यह किन लोगों की तस्वीर हैं जिन्हें कुत्ते खा रहे हैं?"
'क्यों रुक गए प्रताप सिंह?" सुल्तान कुछ चिढ़ते हुए बोल पड़े।
'यह उसी की बनाई हुई तस्वीर है?"
'हुजूर', कह कर प्रताप सिंह रुक गए। वाणी नहीं निकल सकी। 'हुजूर', कहकर प्रताप सिंह फिर रुक गए, कुछ कह नहीं सके। 'समझ गया। तुम नहीं बताओगे । पर दिमागी तौर पर इतना कमज़ोर नहीं हूँ। मेरी समझ में आ गया है। यह चौहान इतना बदमिजाज़ है। इसकी सज़ा उसे मिलेगी ।' कहते हुए सुल्तान आपे से बाहर हो गए। उनका अंग अंग सुलग उठा । 'मज़ा चखा दूँगा उसे', सुल्तान उबल पड़ा।
'हाँ हुजूर', प्रताप सिंह ने कहा । तमतमाए चेहरे से आग बरस रही थी । सुल्तान बैठक में आ गया। खान को बुलवाया।
'चौहान की आँखें मेरे सामने हाज़िर करो।'
'हुजूर!' ख़ान के मुख से निकला।
"कुछ नहीं, हुक्म पर अमल करो', सुल्तान का पारा चढ़ता ही गया। किसी से कुछ कहा नहीं गया।
बन्दीगृह का कपाट खुला। खान के नेतृत्व में ग्यारह पहलवान जिनके चेहरे को देखकर भय लगता था पृथ्वीराज के कक्ष में दाखिल हुए। दो के पास तीर कमान थे शेष के पास अन्य औजार।
'कौन ?' उठते हुए पृथ्वीराज ने पूछा। किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। सभी पृथ्वीराज को घेर कर खड़े हो गए। उसके पैरों में बेड़िया पड़ी थीं। एक ने पीछे से अपनी कमान पृथ्वीराज के गले में डाल दी और सभी ने हाथ पैर पकड़कर उसे धरती पर गिरा लिया। दो लोग सीने पर बैठ गए। चार लोगों ने हाथ पैर थाम लिया। दो लोगों ने चिमटियों से आँखें निकाल ली। पृथ्वीराज तड़फड़ा उठा। आँखों से रक्त की धार बह चली। वह वेदना से कराह उठा । वहाँ उसकी वेदना केवल दीवारें सुन सकती थीं। आँखों में औषधि डाल दी गई, सभी लोग पृथ्वीराज के शरीर को छोड़कर अलग हो गए। कमान उसके गले से निकाल ली।
वह क्रोध से पागल हो गया। इधर-उधर हाथ पैर मारने लगा कि कोई मिल जाए तो उसे मसल दें। सभी पहलवान बाहर निकले। कपाट बन्द हो गया। खान ने प्रहरी से कहा, 'राजा पानी माँगे तो दे देना।'
'आँखें सुल्तान के सामने रखी गईं। 'इन्हें अच्छी तरह संभाल कर रख लो । ग़ज़नी ले चलना है। ये आँखें मुझे बहुत तकलीफ दे चुकी हैं।'