Ek Ruh ki Aatmkatha - 56 in Hindi Human Science by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | एक रूह की आत्मकथा - 56

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एक रूह की आत्मकथा - 56

स्वतंत्र के एक्सीडेंट की खबर जब उमा को मिली तो वह घबरा गई।नन्दा देवी तो रोने -चीखने ही लगीं।दोनों भागती हुई उस स्थान पर पहुँची,जहाँ स्वतंत्र घायल अवस्था में पड़ा हुआ था।चूँकि वह स्थान उनके घर से ज्यादा दूर नहीं था,इसलिए स्वतंत्र की पहचान आसानी से हो गई थी।उनके पड़ोस का एक लड़का भागता हुआ उनके पास इस बात की सूचना लेकर आ गया था।किसी ने एम्बुलेंस के लिए फोन कर दिया था।उमा के पहुंचते ही एम्बुलेंस आ गई। स्वतंत्र को लेकर उमा सिटी हॉस्पिटल चली।उसने नंदा देवी घर जाने को कह दिया।नन्दा देवी भी साथ जाना चाहती थीं,पर उन्हें इजाज़त नहीं मिली।एम्बुलेंस में मरीज के साथ दो लोग ही जा सकते थे।उमा के साथ पड़ोस का ही एक लड़का उसकी मदद के लिए बैठ गया था।रास्ते में ही उमा ने अमृता को फोन करके घटना की जानकारी दी। उसने राजेश्वरी देवी को भी फोन कर दिया क्योंकि कामिनी से बड़ी बहन माया यानी उसकी बड़ी ननद इन दिनों अपने पति के साथ ससुराल आई हुई थी।उमा स्वतंत्र के साथ सिटी हॉस्पिटल के ट्रामा सेंटर पहुंची ।आनन- फानन में स्वतंत्र को इमरजेंसी वार्ड में ले जाया गया और वहां से ऑपरेशन थियेटर।स्वतंत्र के दिमाग पर गहरी चोट लगी थी।उसका तुरत ऑपरेशन जरूरी था।ऑपरेशन के लिए तत्काल दो लाख रूपए जमा करने की बात सुनकर उमा घबरा गई।उसके पास इतने पैसे नहीं थे।कहीं से इंतजाम करने में वक़्त लग सकता था।तभी समर अमृता के साथ वहाँ आ पहुँचा।अमृता ने निढाल उमा को संभाला और समर ऑपरेशन की सारी फार्मेलिटी पूरा करने चल दिया।
हॉस्पिटल का सारा खर्च समर ने ही उठाया।स्वतंत्र का ऑपरेशन तो हो गया पर उसे होश नहीं आया।एक्सीडेंट के बाद से ही वह कोमा में था। ऑपरेशन के बाद उसे आई सी यू वार्ड में वेंटिलेटर पर रखा गया। मशीन द्वारा ही वह सांस ले रहा था।उसे जिंदा रखने के लिए मशीनें ही जंग लड़ रही थीं ।उसकी हालत देखकर सबको रोना आ रहा था।सब दुःखी थे,पर सबसे अधिक दुःखी उमा थी।न जाने क्यों उसे गिल्टी फील हो रही थी।वह सोच रही थी कि अगर उसने स्वतंत्र की बात मान ली होती तो वह गुस्से में घर से नहीं निकलता और न ही उसका एक्सीडेंट होता।
राजेश्वरी देवी उसकी सास नंदादेवी को सांत्वना दी रही थीं।उन्होंने भी अपना बेटा खोया था,इसलिए वे उनका दर्द समझ रही थीं।माया और अमृता उमा के पास ही बैठी थीं।एकाएक उमा को अपनी बच्चियों का ख्याल आया।उनके स्कूल की छुट्टी हो गई होगी और वे घर आकर उसका इंतज़ार कर रही होंगी।उसने अमृता के कान में कुछ कहा।अमृता तुरत बाहर निकली और अपनी कार से अपने ननिहाल वाले घर पहुंची।सच ही दोनों बच्चियां घर के बाहर इंतजार करती मिलीं। उसने उन्हें कार में बिठाया और सीधे अपने बंगले ले गई।उमा ने जहाँ था कि उन्हें अपने पापा के एक्सीडेंट की खबर न मिले।
"हम यहां क्यों आएं हैं दीदी?"
रूचि ने अमृता से पूछा।
"क्यों,मेरे घर आकर अच्छा नहीं लगा?"अमृता ने मुस्कुराकर कहा।
"बहुत अच्छा लगा दीदी,पर मम्मी कहां हैं?घर पर ताला क्यों लगा है?"
इस बार सुरुचि ने प्रश्न किया।
"मम्मी पापा और दादी किसी काम से बाहर गए हैं।उन्हें आने में देर होगी,इसलिए उन्होंने मुझे तुम लोगों को इस घर लाने को कहा था।"अमृता ने उन्हें बातों से बहलाने की कोशिश की।
"चलो तुम लोग मुंह -हाथ धो लो।मैं नाश्ता रेडी करवाती हूँ।"अमृता ने उनका बैग टेबल पर रखते हुए कहा।
स्वतंत्र की हालत देखकर समर चिंतित था।उसे उसके बचने की उम्मीद कम ही लग रही थी।उसे उमा की भी चिंता हो रही थी।उमा ने अभी तक कामिनी प्राइवेट लिमिटेड को ज्वाइन नहीं किया था और न ही नौकरी के लिए अपनी स्वीकृति ही दी थी,फिर भी कम्पनी स्वतंत्र का सारा मेडिकल खर्च उठा रही थी।
शाम ढल रही थी।स्वतंत्र को ठीक होने तक बेंटिलेटर पर ही रहना था।हॉस्पिटल में बस एक ही आदमी रूक सकता था।इसलिए हॉस्पिटल के कर्मचारियों ने सबको घर जाने को कहा।नंदा देवी ने वहीं रूकने की जिद की तो उमा ने उन्हें समझाया--"आप खुद ब्लडप्रेशर और शुगर की मरीज़ हैं।आप कामिनी दी के बंगले पर चली जाइए।बेटियां भी वही हैं।मैं यहाँ उनके पास रूकती हूँ।।"
उसने माया से कहा-"आप भी कुछ दिन माँ के पास रह लीजिए।उन्हें अकेले परेशानी होगी।"
माया ने राजेश्वरी देवी की ओर देखा ।उनके स्वीकृति में सिर हिलाने पर वह माँ नंदा देवी के पास आ गई।उसने उन्हें चलने को कहा।राजेश्वरी देवी भी फिर आने की बात करके बड़े बेटे के साथ अपने घर चली गईं।समर ने अस्पताल के कर्मचारियों से उमा के लिए बात कर ली कि उसे वहां कोई असुविधा या परेशानी न हो।सारी व्यवस्था करने के बाद ही वह अपने घर गया।रास्ते में ही उसने अमृता को फोन करके बच्चियों के बारे में जानकारी ली।अमृता ने बताया कि नानी नंदा देवी और मासी माया बंगले पर ही हैं।समर निश्चिंत होकर अपने घर चला गया।
उमा को आई सी यू में रुकने की इजाज़त नहीं थी। उसे हॉस्पिटल के वेटिंग रूम में ही बैठना था।वह वहाँ अकेली नहीं थी ।उसके जैसे कई स्त्री पुरूष वहाँ थे।सबका कोई न कोई अज़ीज आई सी यू में जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा था।वेटिंग रूम का हॉल काफी बड़ा था। इसमें परिजनों के बैठने के लिए कुर्सियां पड़ी थीं।लेडीज और जेंट्स दोनों के लिए अलग -अलग बाशरूम आदि की सभी सुविधाएं थीं।हॉल से लगा हुआ एक कैंटिन भी था,जिसमें चाय- कॉफी के सिवाय नाश्ते आदि की चीजें रियायती मूल्य पर मिल जाती थीं। कैंटीन शाम के सात बजे बंद हो जाता था,इसलिए परिजनों को बाहर जाकर खाने आदि की व्यवस्था करनी पड़ती थीं। सिटी हॉस्पिटल का यह ट्रामा सेंटर अभी नया-नया बना था।।इसमें ब्रेन से रिलेटेड मरीज ही रखे जाते थे।विशेषकर एक्सिडेंटल मरीज। उमा को यह देखकर थोड़ा इत्मीनान हुआ कि वह यहाँ अकेली परेशान नहीं है।किसी की बेटी, किसी का बेटा तो किसी का पति या पत्नी सभी सीरियस एक्सीडेंट के शिकार होकर यहां भरती हैं।एक बच्ची तो मात्र आठ साल की है।उसके ब्रेन का भी ऑपरेशन हुआ है।वह अपने घर के तिमंजिले छज्जे से नीचे आ गिरी थी।वह भी कोमा में थी।उसके माता -पिता रो -रोकर बेहाल थे।ईश्वर भी इंसान की जाने कैसी -कैसी परीक्षाएं लेता है।
उमा को इस बात की चिंता थी कि अगर स्वतंत्र को कुछ हो गया तो क्या होगा?ठीक है कि उसे स्वतंत्र से कई सारी शिकायतें हैं,फिर भी वह उसका पति और उसकी बच्चियों का पति है।उसके होने से समाज में उसकी प्रतिष्ठा है।