Towards the Light – Memoirs in Hindi Motivational Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर –संस्मरण

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उजाले की ओर –संस्मरण

स्नेही मित्रो

नमस्कार

आज का युग तकनीकी युग है, हमें इस तकनीक ने बहुत कुछ दिया है, इसमें कोई संशय नहीं है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हम जितने इसके आदी होते जा रहे हैं उतने ही खुद से दूर होते जा रहे हैं | कम में ख़ुश रहना अब बिलकुल बंद हो गया है | सबको अपनी-अपनी चीज़ें चाहिएँ --चाहे स्कूटर, बाइक, गाड़ी हो, कम्प्यूटर हो, या कमरे ! सब अपने-अपने, हमारा कोई नहीं, कुछ नहीं ---

हमने अपने ज़माने में देखा है कि हमारे रसोईघरों में माएँ अधिकतर बैठकर खाना बनातीं, नीचे बैठकर, कुछ न कुछ लेने के लिए कभी उठतीं फिर उसे उठाकर दुबारा नीचे बैठतीं | सिल-बट्टे पर चटनी पीसी जाती | जिसका स्वाद ही अलग होता | मीलों दूर पैदल चला जाता | बाद में साइकिलें आईं वर्ना मीलों दूर स्कूल-कॉलेज सब उछलते-कूदते चले जाते थे |

मुझे बताया गया था कि एक साइकिल घर में आती थी और उस पर घर के जितने बच्चे होते आँख गड़ाए रहते | जिसका मौका लग गया, वह उसे लेकर उड़ गया | कभी-कभी ऐसा भी होता कि एक भाई (जो अक्सर घर का बड़ा बेटा होता) वह अपना अधिकार समझकर उस साईकिल को ले उड़ता |वैसे भी साईकिल तो उसके नाम से ही आती थी | लेकिन पिता का यह भी ऑर्डर होता था कि भाइयों को लेकर अपने कॉलेज के रास्ते में स्कूल छोड़ते हुए जाने की उसकी ड्यूटी होगी | पर बड़ा भाई ठहरे बड़े भैया ! अगर वह अपना बड़ापन छोटों पर न झाड़े तो कैसे रौब गाँठे ?वह साईकिल लेकर भाग लेता, पीछे पीछे बैग सँभालते छोटे भाई उसके पीछे सड़क पर ! माँ बेचारी खाना बनाते-बनाते गेट पर आतीं और उनके मन में यह रहता, सब्ज़ी न जल जाए | ये सब बातें मेरी सखी संतोष बताती थी जो मेरे साथ कॉलेज में थी | मुझे सुनने में बड़ा मज़ा आता | हम दोनों के बैठने के बाद वहाँ और भी लड़कियाँ आनी शुरू हो जातीं और ख़ासी महफ़िल जम जाती |

छोटे भाई उसकी चिरौरी करते रहते | अगर उस बड़े का मूड होता तो छोटे भाइयों को लिफ़्ट मिल जाती वर्ना कभी-कभी छोटे भाई उस साईकिल के पीछे-पीछे भागते ही नज़र आते कुछ ऐसे चिल्लाते हुए --

"बड़े भैया, हमें बिठा लो न --प्लीज़ ---"

"अच्छा--नहीं बिठाओगे तो हम वो बीना वाली बात घर में बता देंगे --" दूसरा चिल्लाता |

"ओ ! बाबा रे --ये दुष्ट भी ---" बड़ा भाई मन ही मन फुनफ़ुन करता और साईकिल एक ज़ोरदार ब्रेक के बाद रुक जाती | साईकिल के रुकते ही रसोईघर छोड़कर गेट पर आई माँ एक लम्बी साँस लेतीं और अपनी रसोई की ओर भागती नज़र आतीं | सोचते हुए कि चलो अब तीनों एकसाथ साईकिल पर बैठकर चले जाएंगे | उन्हें थोड़े ही पता होता था कि आखिर बड़े ने साइकिल क्यों और कैसे रोकी होगी ?

बड़े भाई का सारा नशा हिरन हो जाता और वह चुपचाप एक को आगे, दूसरे को पीछे लाद लेता | क्या करता और भला ? घर में कुटाई हो जाती अगर दोनों दुष्ट छोटे ज़रा सी भी शिकायत लगा देते |

उम्र तो मेरी बहुत हो गई है लेकिन एकमात्र संतान होने के कारण मुझे यह सब मज़ेदार घटनाएँ देखने का मौका नहीं मिला | जब कॉलेज में खाली पीरियड्स होते और हम क्लासरूम्स की पीछे की सीढ़ियों पर बैठकर सामने के लॉन में खिले रंग-बिरंगे फूलों को देखकर मन बहला रहे होते तब ये सारी बातें होतीं | सहेलियाँ अपने भाईयों की बातें बतातीं और मैं खूब हँसती | इतनी कि मेरी आँखों में पानी भर आता | वैसे तो हम सभी दाँत फाड़ते लेकिन ज़्यादा शैतान होने के कारण मेरे तो हँसते-हँसते पेट में बल ही पड़ जाते | फिर मैं कभी कभी अचानक उदास भी हो जाती | सहेलियाँ पूछतीं;

"ये पता नहीं क्या हो जाता है इसे ? अचानक ही नाक पर मक्खी बैठ जाती है इसकी | अभी तो अच्छी-ख़ासी दाँत फाड़ रही थी | "

"नहीं यार, मेरी नाक पर कोई मक्खी नहीं बैठी, मैं ये सोच रही हूँ कि कितना मज़ा आता होगा | बड़े भैया का साईकिल लेकर भागना उनके पीछे दो छोटे भाइयों का भागना और ऊपर से भैया को ब्लैकमेल करना --वाह --वाह --क्या मज़ा आता होगा ! मेरे सामने तो जैसे कोई फ़िल्म सी चलने लगती है |" मई एक लम्बी आह भरकर कहती |

"अरे, इतना ही थोड़े ही --पता बड़े भैया को क्या करना पड़ता था ?"

"क्या ?" मैं बहुत उत्सुक हो जाती थी |

"बड़े भैया को उनको या तो चाट-पकौड़ी खिलानी पड़ती या फिर चॉकलेट या आइसक्रीम --और भैया का आधा पॉकेटमनी उन छुटकों पर उड़ जाता जो वे बीना को कुछ खिलाने के लिए बचाकर रखते थे | " सहेली कहती और हम वहीं सीढ़ियों पर बैठकर ठहाके लगाकर हँस रहे होते |

सच में खूब मज़ा आता सुनकर लेकिन अब वे सुहाने दिन 'सपने सुहाने लड़कपन के' हो गए हैं |

कैसा मन करता है न मित्रों, वैसे ही दिन एक बार ज़िंदगी में आएँ और हम फिर से खिलखिलाएँ --

आजकल हँसने के लिए भी 'लाफ़िंग क्लब' के दर्शन करने होते हैं |

काश ! हम सब हर दिन आपस में बैठकर, मिलजुलकर हँसें-बोलें तो मेरे विचार में 'वृद्ध आश्रमों ' की भी ज़रुरत न हो !

सब कुछ परिवार का हो, तेरे-मेरे की जगह !

सोचकर देखें और एक बार कल्पना करें कि ऐसा हो तो कितना आनंद आए !!

आप सबकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती