रुक्मणी तो रसोई में चली गई किंतु उसकी कही हुई यह बात कि "हमने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया," वीर प्रताप के दिल को छलनी कर गई। रात को वीर जब बिस्तर पर गया तब उसका दिल और दिमाग भूतकाल की उन गलियों में भटकने लगा जिन्हें वह बेवफाई की चादर ओढ़ा कर भूल चुका था। उन गलियों में वह प्यार की एक ऐसी कहानी छोड़ आया था जो सिर्फ़ कहानी नहीं उसके जीवन की वह सच्चाई थी जिसे उसने अपने दिल के एक छोटे से पिंजरे में कैद कर रखा था। उस पिंजरे की सलाखों पर उसने इतना मोटा ताला लगा दिया था जिसकी चाबी अब शायद उसके पास भी नहीं थी; लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी आज उसका दिल नहीं माना और भूतकाल की भूली बिसरी उन्हीं गलियों के बीच विचरण करने लगा। पिंजरे का ताला तोड़ कर मानो उसका दिल उन्हीं गलियों में कहीं पुनः खो गया था।
आज उसे रागिनी अपनी आँखों के सामने बार-बार दिखाई दे रही थी। बिल्कुल साधारण नैन नक्श, सांवला रंग, मध्यम परिवार की बेटी, जिससे वीर बेपनाह प्यार करता था। रागिनी वीर के प्यार को पूजा समझती थी और वीर के दिल को मंदिर जिसमें वह हमेशा ख़ुद की मूरत देखा करती थी। वीर को अपना भगवान समझने वाली रागिनी आज कहाँ है? कैसी है? वीर नहीं जानता था। रुकमणी से मिलने के बाद रुक्मणी के सौंदर्य और उसकी दौलत के आगे रागिनी का प्यार फीका पड़ गया था। उसकी पूजा जो वह हमेशा एक पुजारिन बनकर करती थी कम पड़ गई थी। वीर प्रताप ने पाँच साल प्यार के बंधन में बंधे रिश्ते को एक पल में ख़त्म कर दिया था। रागिनी को दूध में गिरी मक्खी की तरह वीर ने अपने जीवन से निकाल कर दूर फेंक दिया था।
इन पाँच वर्षों में उन दोनों ने ना जाने कितने हसीन सपने देखे थे। उन सपनों को पूरा करने की और साथ-साथ जीने मरने की कसमें खाई थीं। एक छोटा सा, सुंदर सा सपनों का महल बनाया था। उसमें वे दोनों और उनके छोटे-छोटे बच्चों की किलकारीयों की कल्पना की थी। ऐसे सपने बुनने में उन्होंने पाँच वर्ष लगा दिए पर उन सपनों को तोड़ने में एक पल भी नहीं लगा। वीर के धोखा देने के बाद रागिनी और उसका परिवार टूट गया।
आज रात को भूत काल की गलियों में भटकता वीर का दिल उस जगह जाकर अटक गया जो उनकी मुलाकात का आखिरी दिन था। वीर ने आज रागिनी को मिलने बुलाया था। आते से हर बार की तरह रागिनी वीर के सीने से लग गई और बोली, "वीर अगर मैं एक भी दिन नहीं मिलूँ तो तुम्हें चैन नहीं पड़ता ना। तुमसे कहा था ना कि आज माँ का जन्म दिन है, मैं नहीं आ पाऊँगी पर फिर भी तुम नहीं माने। तुम बहुत ज़िद्दी हो वीर, एक दिन भी मिले बिना नहीं रह सकते। यदि ऐसा ही है तो जल्दी से दूल्हा बनकर आ जाओ और ले जाओ मुझे अपनी बाँहों में भर कर। फिर चौबीसों घंटे तुम्हारी आँखों के सामने ही रहूँगी।"
रागिनी के मुँह से निकले यह शब्द आज वीर को अच्छे नहीं लग रहे थे। रोज की तरह आज उसकी बाँहें भी रागिनी को अपने अंदर समेटने में लाचार लग रही थीं। उसकी दोनों बाँहें हवा में नीचे लटकी हुई थीं। आज वीर के होंठ भी रागिनी के होंठों का स्पर्श करने में डर रहे थे। कुछ ही पलों में रागिनी को इस बात का एहसास हो गया कि वीर आज रोज की तरह नहीं है।
तभी रागिनी ने पूछा, " वीर क्या हुआ आज तुम्हारी बाँहों ने मुझे कैद क्यों नहीं किया? तुम्हारे होंठ क्यों आज प्यासे नहीं हैं वीर? मुझसे यह दूरी क्यों? क्या हुआ वीर, कोई परेशानी है, घर में सब ठीक तो हैं ना?"
वीर ने उसे अपनी बाँहों से अलग करते हुए कहा, "रागिनी मेरे माता-पिता ने मेरा विवाह तय कर दिया है।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः