आमतौर पर जब हम पहली बार घर से दूर रहने जाते है तो एक बार वहाँ मन लगने में थोड़ा समय लगता है। मुझ जैसे अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए तो और भी ज्यादा मुश्किल होती है। लेकिन नोरे(होस्टल) में मेरा मन कब लग गया इसका पता ही नहीं चला। कॉलेज शुरू होने के बाद यह और आसान हो गया। प्रातः जल्दी ही नोरे में से गुरुदेव वही निकर पहने और ऊपर शाखा की ही गणवेश पहने, हाथ में दंड लिए और नोरे के कुछ साथियों के साथ शाखा जाने के लिए तैयार हो जाते। कुछ ही दिनों में मैं भी उनकी टोली का सदस्य हो गया। प्रातः जैसा व्यायाम शाखा में करते थे उसके बाद दिन भर शरीर हल्का और स्फूर्ति भरा रहता।
तभी से गुरुदेव के साथ आना-जाना शुरू हुआ।
जब भी उनके साथ कभी बाजार जाता तो हर दस में से तीन-चार उनके परिचित होते , अभिवादन अधिकतर 'जय श्री राम' से होता और फिर कुछ देर उन सबका हाल-चाल पूछते। मैं तो गाँव की दुकान में भी बिना किसी से बात किए जाकर वापस आ जाता लेकिन इस भीड़ भरी नगरी और व्यस्ततम दिनचर्या में भी इतना मिलना एक दूसरे की खबर लेना मैने गुरुदेव से ही सीखा। हालांकि मैं अभी भी परिचितों से ऐसे हाल-चाल नहीं ले पाता जैसे वो लेते है।
संध्या के समय नोरे में एक हुल्लड़ सा मच जाता था और नोरे में ही पीपल के पेड़ के पास वॉलीबॉल का मैच होता जिसमें पीपल भी कई बार बीच में गेम खेल लेता था ।
खाने के लिए नोरे में मेस सिस्टम था और छह से सात मित्रों की सप्ताह के हर वार के हिसाब से टोलिया बनी हुई थी । इस प्रकार हफ्ते में एक दिन सुबह व शाम का खाना बनाने की सबकी बारी आ जाती थी। खाना खाते समय नोरे के सभी मित्र एक साथ इक्कठा हो जाते थे और टोलियों में साथ बैठकर भोजन करते। गुरुदेव की टोली में अक्सर आठ से दस मित्र साथ बैठ जाते थे क्योंकि खाने के साथ ही उनके हास्य का पान भी हर कोई पाना चाहता था। शुरुआत के दिनों में मेरे मन में जो गुरुदेव की छवि बनी वो थी मस्तमोजी, शरारती, मजाकिया और सभी को हंसाने वाले एक कॉमेडियन जैसी। लेकिन जब उनके साथ सामाजिक कार्यक्रमों और बैठकों में भाग लेने का सौभाग्य मिला तब जाना कि जितने वो हास्य प्रवृत्ति के धनी है उनसे भी अधिक एक सामाजिक और गंभीर प्रवृत्ति के मालिक भी है। समाज के हर कार्य में पूर्ण निष्ठा और समर्पण का भाव जो उनमें देखा वैसा कहीं ओर आज तक नहीं देखा। हर हफ्ते नोरे में सफाई अभियान , किसी मंदिर भंडारे आदि के कार्यक्रम में सेवा, नोरे में बच्चों के अध्ययन के लिए प्रतियोगिताओ का आयोजन हो या विश्वकर्मा जयंती के अवसर पर जागरण और समारोह कार्यक्रम हर कार्य में वो अग्रणी रहते। न केवल वो ही सेवा कर्म में व्यस्त रहते अपितु उनमें बहुत बड़ी खूबी थी कि किसी भी व्यक्ति को सेवा के लिए तत्पर करना। चाहे वो कितना ही निक्कमा क्यों न हो। वो ऐसा जोश ,उत्साह और कुछ गिलु (फेविकोल)लगाते की सामने वाला दौड़-दौड़ कर काम करता और काम से चिपका रहता।
सेवा कर्म के साथ ही उनमें सामाजिक कार्यक्रमो में मंच संचालन और भाषण की विलक्षण योग्यता है। नोरे में होने वाले हर सामाजिक कार्यक्रम के मंच संचालकों में पहला नाम उन्ही का होता था।
आमतौर पर एक मिलनसार व्यक्ति सबसे घुल - मिल कर रहता है और सबसे बड़े प्यार और हास्य भाव से बातचीत करता है। पर उनमें एक बहुत बड़ी खूबी जो मैने देखी वो है कि वह किसी भी आयु वर्ग के किसी भी व्यक्तित्व वाले प्राणी से वैसे ही हो जाते जैसे वो प्राणी खुद है एक गंभीर बच्चे के सामने वो एक गंभीर बच्चा बन जाते, एक नटखट बालक के सामने नटखट। एक रोमांटिक बूढ़े के सामने रोमांटिक बन जाते और शरारती समवयस्क के सामने शरारती। एक बार में ही उनकी नजर पहचान लेती है कि कौन सा व्यक्ति किस स्वभाव का हैं । इसी कारण मेरे से वो ज्यादातर गंभीर चर्चा ही करते क्योंकि मेरा स्वभाव अंतर्मुखी प्रकार का जो है।
बहरहाल बहुत सारी सुनहरी यादें नोरे की उनके साथ जुड़ी है लेकिन उनके अत्यधिक निकट जाने का मौका मुझे अब मिलने वाला था लेकिन उससे पहले ही उनके साथ मेरी एक ऐसी घटना हो गयी जिसके बारे में सोच कर मुझे आज भी आत्मग्लानि सी हो जाती है।