UJALE KI OR in Hindi Motivational Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर----संस्मरण

Featured Books
  • द्वारावती - 73

    73नदी के प्रवाह में बहता हुआ उत्सव किसी अज्ञात स्थल पर पहुँच...

  • जंगल - भाग 10

    बात खत्म नहीं हुई थी। कौन कहता है, ज़िन्दगी कितने नुकिले सिरे...

  • My Devil Hubby Rebirth Love - 53

    अब आगे रूही ने रूद्र को शर्ट उतारते हुए देखा उसने अपनी नजर र...

  • बैरी पिया.... - 56

    अब तक : सीमा " पता नही मैम... । कई बार बेचारे को मारा पीटा भ...

  • साथिया - 127

    नेहा और आनंद के जाने  के बादसांझ तुरंत अपने कमरे में चली गई...

Categories
Share

उजाले की ओर----संस्मरण

स्नेही मित्रों

नमस्कार

इस ज़िंदगी में हम कितनों से मिलते हैं ,कितनों से बिछुड़ते हैं |

कभी -कभी ऐसा लगता है कि ज़िंदगी एक रेल जैसी है और हम उसके एक कंपार्ट्मेंट में बैठे हुए मुसाफिर !

स्टेशन पर गाड़ी रुकती है ,कुछ यात्री उतरते हैं ,कुछ नए चढ़ते हैं और आगे की यात्रा आरंभ हो जाती है |

इसी यात्रा में न जाने कितने अपने बन जाते हैं ,कभी-कभी तो इतने अपने कि लगता है कि हम उनसे और वे हमसे कभी दूर नहीं होंगे |

लेकिन ---जीवन तो यात्रा है ,कभी न कभी उसका अंत होना ही है |

रेलगाड़ी में बैठे हुए यात्रियों की भाँति हम अपने जीवन के सच्चे-झूठे किस्सों से अपना व सहयात्रियों का मन बहलाते रहते हैं |

कभी बेबात खुशी ज़ाहिर करते हैं ,कभी दुख के आँसुओं से भी अपने आपको व्यक्त करते हैं |

एक बार इसी प्रकार रेलगाड़ी में जाते हुए एक मध्यम आयु की लड़की /स्त्री मिली |

बातों बातों में दोस्ती होना कोई बड़ी बात नहीं है | सो,उससे भी दोस्ती हो गई और दो घंटों में ऐसे दोस्त बन बैठे जैसे दाँत-काटी रोटी !

थोड़ी देर में सामने वाली बर्थ की हमउम्र महिला भी हमारे हास-परिहास में सम्मिलित हो गईं |

वह लड़की बहुत हँसती थी ,बात-बात में उसकी खिलखिलाती हँसी से हम व कूपे में बैठे और भी यात्रीगण उसका चेहरा देखकर हँसने लगते |

कभी कोई हमारी बातों को कान लगाकर सुनता तब उसे थोड़ा ख़्याल भी आ जाता कि हँसी का विषय क्या हो सकता है ? लेकिन जब किसीको कुछ पता न चलता

तो वह हमें मूर्ख ही समझता ,उसके चेहरे के हाव-भावों से हमें समझ में आ जाता कि वह हमारे इस प्रकार से दाँत फाड़कर हँसने से नाराज़ हो गया लगता है |

लेकिन अपनी हँसी की गाड़ी तो पटरी पर रुक ही नहीं रही थी ,लगातार किसी न किसी बात पर हम हँसते ही जा रहे थे |

सामने वाली तीसरी सहयात्री भी अपनी कुछ बातें बताकर हमारा ही हिस्सा बन गईं |

बातों-बातों में तीसरी स्त्री ने उसके पति के काम-काज के बारे में पूछा |

उसने बता भी दिया | अब तो याद नहीं किस स्थान पर उसके पति काम करते थे ?

फिर उस तीसरी महिला ने उस हँसोड़ स्त्री से पूछ लिया ;

"कितनी कमाई हो जाती होगी?"तीसरी स्त्री के चेहरे पर कुछ अभिमान सा दिखाई दिया |

वह थोड़ी सकुचाई ,उसकी हँसी में जैसे किसी ने ब्रेक लगा दी थी |

प्रश्न कुछ अजीब सा ही लगा मुझे ,ज़रूरत नहीं थी ऐसे प्रश्न की !

यह बहुत व्यक्तिगत प्रश्न था | हो सकता था उसे अपने आपको कुछ अधिक दिखाने में झूठ ही बोलना पड़े |

"कैसी कमाई ?" उसने अपनी हँसी में कुछ रोक लगाकर पूछा |

अब तीसरी स्त्री बगलें झाँक रहीं थीं |

"आपको पता है ,कमाई सिर्फ़ पैसे की ही नहीं होती ---"

तीसरी स्त्री उसका चेहरा पढ़ने का प्रयास करने लगी | अचानक हँसी में व्यवधान पड़ गया था |

"कमाई की कोई निश्चित परिभाषा होती है क्या ?" उसने पूछा और फिर खिलखिला दी |

"कमाई दोस्ती की होती है ,प्यार की होती है ,विश्वास की होती है ,मुस्कुराहट की होती है , केयर की होती है ,मानसिक स्तर की होती है,आँसू की भी होती है ---

यानि हमें बहुत जगह से कमाई होती है,बहुत साधन व रास्ते हैं कमाई के ---- "

तीसरी स्त्री का चेहरा सपाट पड़ गया था---

"अगर हम केवल पैसों की कमाई की ही बात करें तो गलत है न ,अब आप बताइए मैं आपको किस कमाई के बारे में बताऊँ ?"

और वह एक बार फिर से खिलखिलाकर हँस पड़ी | अब डिब्बे के सब यात्रीगण उसका चेहरा देखकर कुछ सोच में थे लेकिन उसकी मुस्कुराहट

खिखिलाहट में कहीं कोई व्यवधान नहीं था |

"सच ,तुम्हारी कमाई हम सबसे अधिक है ---हम भी तुमसे कमाने के कुछ गुण सीखने की कोशिश करेंगे ,थैंक्स ---"मेरे मुख से निकाल ही तो पड़ा |

उसके चेहरे पर एक कोमल ,मृदु मुस्कुराहट थी |

खिलखिलाते हुए,बातों -बातों में ही उसने जीवन जीने का सही गुर सिखा दिया था |

आगले रविवार को एक नए विचार व संस्मरण के साथ ---

आप सबकी मित्र

डॉ . प्रणव भारती