is subah ko kya nam dun - Mahesh katare - 4 in Hindi Moral Stories by राज बोहरे books and stories PDF | इस सुबह को नाम क्या दूँ - महेश कटारे - 4 - अंतिम भाग

Featured Books
Categories
Share

इस सुबह को नाम क्या दूँ - महेश कटारे - 4 - अंतिम भाग

महेश कटारे - इस सुबह को नाम क्या दूँ 4

फट-फट फटक, फटक फट फट की दनदनाती आवाज़ के साथ प्रवेश द्वार पर वजनी एन्फील्ड़ मोटर-साईकिल चमकी और मैदान में अपनी भरपूर आवाज़ घोषित करती हुई सीधे कार्यालय के सामने जाकर रूकी। केन्द्र तथा केन्द्राध्यक्ष की सरेआम अवहेलना से रामरज शर्मा रोष से भर उठे, किंतु यह इलाके का थानेदार था जिसे संस्था के मंत्री भी मान देते हैं। कमर में पिस्तौल लटकाए थानेदार के पीछे मार्क थ्री से सज्जित प्रधान आरक्षक था। दोनों को सिंह-ध्वनि के साथ कार्यालय में प्रवेश करते और तुरन्त निकलते देखते रहे शर्मा। थानेदार गलियारे में टहलने लगा। उसकी अजब-सी ऐंठ शर्मा को खल रही थी। बिना केन्द्राध्यक्ष की अनुमति के थानेदार को भीतर घुसने का कोई अधिकार नहीं था, पर अधिकार उसकी कमर सेस लटका था और वही सच था। शर्मा ने ऑंखे बंद कर लीं।

''सर ! अभी तक कुछ नहीं हो पाया....मास्टर साब, प्लीज !'' कोई लड़का शायद गणित शर्मा से कहा रहा था।

'' मैं क्या करूँ ? इनसेस कहो ना-प्रिंसिपल साब से......''

गणित शमा्र की झुँझलाई आवाज़ पर रामरज शर्मा ने ऑंखें खोलीं। गणित शर्मा की बगल में केन्द्र का सुपरिचित चेहरा अर्थात् डिप्टी साहब का पुत्र खड़ा था। केन्द्राध्यक्ष द्वारा घूरकर देखें जाने पर लड़के ने स्वर में थोड़ी विनय भरी-''सर, बहुत टफ पेपर है।''

लड़के के हाथ में प्रश्नपत्र और उत्तरपुस्तिका भी थी जो वह साथ में नहीं ला सकता था। तीन-चार लड़के भी उस कक्ष से बाहर निकल आए थे। आगे घटने वाले दृश्य के प्रति उत्सुकता से भरे शिक्षक दरवाज़ों पर खड़े हो गए थें।

''तो ...? '' शर्मा ने सहजता बनाए रखकर डिप्टी-सुत से पूछा।

''सर ! हमें हेल्प चाहिए। ऐसी ही परीक्षा देनी होती, तो कहीं भी चले जाते, यहाँ धूल क्यों फाँकते।

''क्या यहाँ किसी ने पढ़ने-लिखने से तुम्हें रोका ?'' शर्मा ने पूछा।

''कह दूँ, तो बुरा लगेगा आपको ....साफ है कि आप नहीं चाहते कि हम लोग परीक्षा मेंर् उत्तीण हों और आगे बढ़े। देखिरए सर ! मैं साफ कहे देता हूँ कि आप हमें रोक नहीं सकते। राजी से हो, तो अच्छा....वरना हम -गैर राजी करेंगे। एक बात समझ लीजिए सर ! अगर भम्भड़ शुरू हो गया तो .............? लड़का उत्तेजित हो उठा था-''हमारा क्या है ? हम तो फेल होते रहे हैं.........ओर हो लेगें, पर आपके लिए बहुत मुश्किल हो जाएगी।'' लड़के ने झुंड का प्रतिनिधि बनकर शर्मा के आगे आदि से अंत की चेतावनी टाँग दी।

पल-पल कर समय काटते शर्मा अंदर से सिहर गए-''देखो भाई ! तुम जो सोचते हो गलत है। मैं तुम्हारा या दूसरों का शत्रु नहीं हूँ। मुझे केन्द्र का संचालन करना है। व्यवस्था बनाए रखनी है। उसके कुछ नियम हैं....समझे ?''

''हम नियम तोड़ने की कब कह रहे हैं ? थोड़ा सहयोग चाहते हैं ....जरा-सी छूट।'' वह अड़ गया था।

''छूट की तो कोई सीमा नहीं होती। आगे वह मनमानी हो जाती है।''

शर्मा द्वारा समझाने के लिए प्रयोग किए जा रहे इस समय में छात्रों व शिक्षकों का एक छोटा-मोटा झुंड आसपास सिमट आया था। आतुर व अनजान लड़के जरा-से उकसावे पर हमला बोल सकते थे। शर्मा ने चिंतामग्न हो अपना माथा रगड़कर कहा, ''इतनी छूट तो तुम्हें दे ही रखी है कि बना हो-हल्ला, जो करना है, करो।''

''इतने से काम नहीं चल रहा है। हमें तो सिरे से हल किया हुआ चाहिए।'' कोई भीड़ से बोला।

शर्मा ने झुंड पर निगाह फेंकी। शायद सब वही चाहते थे कि चाहे जैसेस हो, बिना श्रम किए तुरत परिणाम मिले।

''चलो, यही मान लिया जाए, तो हमारे पास इतने लोग कहाँ हैं कि सबके हिस्से में हल पहुँच सके ? अकेले ये शर्मा जी हैं....पैसे और दादागिरीवाले इन्हें कब्जे में लेकर लाभ उठा लेंगे। आप लोगों में गरीब और कमजोर भी तो हैं, जो ऊधम नहीं मचा सकते, लड़-भिड़ नहीं सकते। मगर मैं तुम्हें रोकूँगा नहीं.............क्योंकि तुम मानने वाले नहीं इस समय। ये हैं गणित वाले...इनसे जो चाहे, जैसे चाहो, करवा लो। अगर कुछ हो जाए, तो मैं जिम्मेदार नहीं....ध्यान रहे कि यहाँ से बाहर भी इस केन्द्र को देखने-परखने वाले हैं, और उनके हाथों में हम सबको बनाने-बिगाड़ने की शक्ति है.....''कहकर शर्मा मैदान से उठ भीतर की ओर चले गए।

उनके जाते ही गणित शर्मा की खींचातानी होने लगी। पहले लाभ उठाने के लिए लड़क उन्हें अपने-अपने कक्ष की ओर खींचने लगे। गणित शर्मा कोई सुझाव देने की कोशिश कर रहा थां पर ''लूट सके, तो लूट' के हल्ले में गणित शर्मा द्वारा दी जा रही व्यवस्था की भी कोई सुनवाई न थी। व्यक्तिगत लाभ,र् ईष्या तथा मनभावन बातों के माध्यम से लोकप्रिय बनकर इच्छाएँ सुलगाने में उसका भी हाथ था और इस समय वह अपने ही द्वारा हवा दी गई लपटों से घिर गया था। खींचातानी बेहूदगी में बदलने से परेशान गणित शर्मा गला फाड़कर चिल्लाया-''अगर तुम लोग मेरी बात नहीं सुनते, तो मैं किसी का कोई प्रश्न हल नहीं कर पाऊँगा....नहीं करूँगा।''

लड़के अचानक झम्म हो गए। अंदर डरे-दुबे से रामरज शर्मा सुन रहे थे कि परीक्षा-कक्षों का हल्ला बीच मैदान में पहुँच गया है। बाबू ने सूचना दी कि स्थिति खराब हो गई है।

''दरोगा कहाँ है ?'' शर्मा ने पूंछा।

''वह गार्डरूम में चाय पी रहा है।'' कहकर बाबू खिड़की से बाहर झाँकते हुए ऑंखों-देखा हाल सुनाने लगा-''सर, गणित शर्मा का हाल बेहाल है। जो लड़के अभी तक शांत से भीतर थे, वे भी भम्भड़बाजों में शामिल हो रहे हैं.....कुछ हैं, जो दूर ऊँचे-नीचे स्थानों से तमाशा देख रहे हैं....प्रश्नपत्र, काँपियाँ फाड़कर उछाली जाने लगी हैं।, सर !''

अब रामरज शर्मा को न रोक सके और कुर्सी से उठ, तेजी से बाहर की ओर लपके कि बाबू ने बाजू से थाम लिया।

''कहाँ जहा रहे हैं सर ? लड़के पगलाए हुए हैं- कुछ भी कर सकते हैं । वे आपसे पहले ही रूष्ट हैं।''

रामरज दयनीय हो उठे-''कुछ तो करना पड़ेगा बाबूजी ! किसी को तो यह बाढ़ रोकने की जोखिम उठानी होगी....नहीं तो अपनी डूब में वह सब-कुछ ले लेगी।''

''आप अकेले क्या कर लेंगे ?'' कहता हआ बाबू उन्हें बलपूर्वक भीतर घसीट ले गया और उसके संकेत पर चौकीदार ने साँकल चढ़ा दी।

द्वार के किवाड़ों पर पत्थरों के साथ नारे बजने लगे- ''प्रिंसीपल मुर्दाबाद !....खूसट शर्मा, हाय-हाय ! ....हरिश्चंद्र की औलाद, बाहर निकल ! जो हमसे टकराएगा, मिट्टी में मिल जाएगा ! हम अपना अधिकार माँगते, नहीं किसी से भीख माँगते।''

उत्तेजना व अवशता से रामरज शर्मा की छाती में हूक-सी उठी। वह पीड़ा से बिलबिला उठे। बाहर नारों तथा हुड़दंग का दौर जारी था। संस्था के दरवाजे-खिड़कियाँ तरह-तरह के आघातों से हिलकर अपनी जगह छोड़ने लगे थे। वे कहीं से भी टूट-उखड़ सकते थे।

चेहरे की ऐंठन को काबू में करते शर्मा बोले, ''वे इमारत की तोड़-फोड़ कर रहे हैं, बाबूजी ! और रो पड़े।

बाबू बेहद घबरा गया। बाहर की मारामारी में उपचार की व्यवस्ािा कैसे करे ? शर्मा अब छटपटाने लगे थे। बाहर एक बार फिर जोर का शोर हआ। उसी में दस्ता आ जाने की सूचना मिली, तो रामरज शमा्र को फर्श पर लिटा बाबू ने द्वार खोला। मैदान में हथियारबंद पुलिस के कुछ सिपाही लड़कों को खदेड़ रहे थे। निरोधी दस्ता पर्याप्त रक्षकों के साथ आया था। इसलिए चंद क्षणों में केन्द्र को अपने कब्जे में ले लिया।

कार्यालय में घुसते एक चुस्त-दुरूस्त वर्दीधारी ने पूछा-''केन्द्राध्यक्ष कहाँ हैं ?''

बाबू ने फर्श पर पसरे पसीने से तरबतर आदमी की ओर संकेत कर दिया। जूट के फर्श पर चित्ता पड़े शर्मा की धौंकनी चल रही थी-ऑंखें छत की ओर तनी थीं। रूक-रूकर ऐसी कराह निकलती, जैसे कहीं शूल चुभ रहा हो।

''जब इनमें कुव्वत नहीं थी, तो केन्द्राध्यक्ष क्यों बने ?'' अधिकारी ने भुनभुनाते हुए प्रश्न दागा।

''खुद नहीं बनते। इन्हें बना दिया गया है।'' बाबू ने स्थिति स्पष्ट की।

''ठीक है-इन्हें आहिस्ताा से उठवाकर मेरी गाड़ी में रखवाओं । लगकता है, दिल का दौरा पड़ा है। '' फिर बाबू झुककर रामरज शर्मा के कान में कहने लगा-''केन्द्र को फोर्स ने अपनी सुरक्षा में ले लिया है- थोड़ी हिम्मत बाँधिए....देखिए, सब ठीक हो जाएगा। हम आपको अस्पताल पहुँचा रहें हैं....खतरे की कोई बात नहीं है।''

रामरज शर्मा के होंठ थरथराए। अधिकारी का संकेत पा उन्हें हाथों पर उठा लिया गया।

-0-

महेश कटारे

जन्म:1 अक्टूबर 1948 को ग्वालियर जनपद के बिल्हेटी गांव में

शिक्षा-एम ए हिंदी

प्रकाशन

इतिकथा-अथकथा,समर शेष है, छछिया भर छाछ,मेरी प्रिय कथाएँ

कहानी संग्रह

नाटक-अंधेरे युगांत के

उपन्यास-कामिनी काय काँटारे

पुरस्कार- मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार,

साहित्य अकादेमी मप्र का सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार,

कथा क्रम सम्मान, श्रीलाल शुक्ल सम्मान

सम्प्रति-स्वतन्त्र लेखन

पता-

सिंहनगर रोड,मुरार,ग्वालियर मप्र