Turning India - 2 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | करवट बदलता भारत - 2

Featured Books
Categories
Share

करवट बदलता भारत - 2

’’करवट बदलता भारत’’ 2

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

समर्पण—

श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज,

जिनके आशीर्वाद से ही

कमजोर करों को ताकत मिली,

उन्‍हीं के श्री चरणों में

शत्-शत्‍ नमन के साथ-सादर

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

काव्‍य यात्रा--

कविता कहानी या उपन्‍यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्‍यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्‍कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्‍दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्‍हीं साधना स्‍वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्‍तुत है काव्‍य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्‍यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्‍मुक्‍त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्‍तुत है।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त‘’

लोक मंगल पत्रिका—

लोक मंगल पत्रिका की, बात क्‍या कहूं।

इतना सभी ने कहा, अब और क्‍या कहूं।।

अजबों-गजब का आईना, माटी की गंध सी-

जल-बिन्‍दु शब्‍द साज का, सागर-सा, क्‍या कहूं।।

चैतन्‍य जी की पहल जो सोते से जगाती-

भुंसारे सा यह गीत है, प्रभाती वत कहूं।।

गंगा की मचलती हुई, साहित्‍य लहर है।

झिलमिल सी चन्‍द्र चंद्रिका उपहार ही कहूं।।

भटकों को भूल राह पर, लाने की पहल सी।

वसुधैव कुटुम्‍बकम भरी, अनमोल ही कहूं।।

अवनी औ आसमां का है, भावौं भरा मिलन-

जीवन की ये किताब है, जीवन जिसे कहूं।।

इसको पढ़ा तो यूं लगा, संसार खो गया-

आतम-प्रभु का चिर मिलन, आनन्‍द को लहं।।

साहित्‍य मौक्तिकों के भाव शूक्ति जो मिले।

मनमस्‍त हो रहा हूं आज आत्‍म सुख लहे।।

गंजापन --

शर्म न करना गंजे पन पर।

इक इक गंजे होंगे घर-घर।।

मांग-पूर्ति का किया समन्‍वय।

महिलाओं की सुनकर अनुनय।।

घने लम्‍बे बालों हौं बाला।

निर्णय प्रभु लीना संसद मय।

नर गंजे किए यही सोच कर।।

सौन्‍दर्य प्रधान, नारी को माना।

मानव हल्‍का, किया ठिकाना।

राधा-कृष्‍ण यही है फंडा-

सिया-राम मय सब जग जाना।

जय-जय बोलो सदां, शिवा हर।।

गलियन रोड़ बजारन देखा।

टी.बी. अखबारिन में लेखा।

गंजों की है भारी पल्‍टन।

भाग्‍यवान हैं खींची रेखा।

सब कहते हैं ये लक्ष्‍मी बर।।

चिंता करो न मेरे भाई।

संसद में अपनी अधिकाई।

पी.एम., सी.एम., मंत्री सारे-

राष्‍ट्रपति भी अपने ताईं।

ओ। मनमस्‍त। तनक धीरज धर।।

साहस के कदम--

जीतता वोही जमाना, जो सुबह ही चल पड़े।

हों अंधेरे या उजाले, कदम साहस ले बढ़े।

हौसले हों पास जिसके, मुश्किलों से पार हो-

रोक सकता है उसे को वो हिमालय भी चढ़े।।

डूबती कश्‍ती उन्‍हीं की, जो भरोसे और के-

मोड़ दे तूफान को वो, पैर जो अपने खड़े।।

भूलकर भी गर किसी ने, हार जो स्‍वीकार की।

आदमी तो है नहीं बह और कुछ, चमढ़े मढ़े।।

राह में सो जाएं जो, बह पथिक कैसा पथिक।

मंजिलें उनको मिलेंगी बैसाखियों पर जो खड़े।।

गैर को भी समझना तो, दूर की कौंड़ी यहां-

आपनों से डंसा जाता सर्प आस्‍तीनी बड़े।।

भटकता मनमस्‍त क्‍यों है आज भी कुछ तो संभल

मारता बाजी वही है, जो विवेकी गढ़-गढ़े।।

ओस कण की औकाद--

ओस ने भी होश तो तोड़ा नहीं है।

पंखुड़ी से, आप को, जोड़ा नहीं है।।

चांदनी भी चांद की होती चहेती-

मोतियों के नाज को छोड़ा नहीं है।।

टपकती है हवा के झोंखों से टिप-टिप।

अवनि से जो नेह, वह तोड़ा नहीं है।।

शब्‍द सी श्रृंगार लेकर उड़ रही वो-

गुलों के संग खार भी छोड़ा नहीं है।।

राग की झंकार सा सुन्‍दर कलेवर-

सुबह तक भी रात को छोड़ा नहीं है।।

भोर की बरसात में, जिसने निहारा-

किसी से भी मुंह तो मोड़ा नहीं है।।

यूं लगे, खुशबूह का हो रूप अनुपम-

मनमस्‍त को क्‍यों आज तक जोड़ नहीं है।।

बेटी पढ़ाओ--

पढ़ा दईं बेटियां तो इक नया संसार आएगा।

हजारों साल तक तेरा, कोई इतिहास गाएगा।।

बेटी को भार मत समझो, उसको प्‍यार से पालो-

विधा दान देकर के, खुद को धन्‍य पाएगा।।

भावी पीढि़यों को बनाने की पाठशाला है-

इन्‍हीं के पांव चलकर विश्‍व सादर हो ही जाएगा।।

दोनों कुलों की ऐही, होगी मान मरियादा-

इनसे जन्‍नतें आतीं, जीवन सार पाएगा।।

सीता-गार्गी ये ही, ये ही, मात अनुसुइया-

इन्‍हीं की गोद में खेलत सारे ब्रम्‍ह पाएगा।।

इनको जन्‍म देकर, पाल कर पर्वस्‍त तो कर दो-

अबनी शस्‍य श्‍यामल हो, यही पर स्‍वर्ग आएगा।।

विधा दान से उत्‍तम नहीं है दान और कोई

जीवनदान दे मन मस्‍त सुयश संसार छाएगा।।

दिवस वृक्षारोपण-

प्रदूषण क्‍यों बढ़ा भू-पर कभी क्‍या सोचते प्‍यारे।

लगाओ नए कुछ पौधे, वृक्षारोपण दिवस है प्‍यारे।।

वर्षा क्‍यों नहीं होती, कहां पर खो गए जंगल।

पहाड़ों की नशे दिखती, सूनर हो गए सारे।।

हवाएं गीत नहिं गाती, नदियां रो रहीं सूखीं-

कहीं पर है नहीं मंलग, बिरछा सूख गए सारे।।

खतावर कौन है इसका, सबरे झाड़ रहे पल्‍ले।

जंगल कट गए कैसे, कोई है खबर बारे।।

कल रब होयेगा कैसे, पक्षी कहां बैठेंगे-

वर्षा आएगी कैसे, को हैं बुलाने बारे।।

अगर पावस नहीं आया, धरती रूठ जाएगी।

फसलें उगेगीं कैसे-कहां होंगे वे हरहारे।।

दे रहे पीढि़यों को किस खता की सजा ओ हमदम।

पीढि़यां बरबाद तो, होयंगे को तो रखवारे।।

खुदखुशी हो गई पेड़ की इंसान की क्‍या कहैं प्‍यारे।

लगाओ मनमस्‍त अब भी- वृक्ष बहु सारे।।

नारी सशक्तिकरण--

बो बख्‍त लद चुका है, जरा होस में आओ।

नारी सशक्तिकरण के परिचम को लहराओ।।

यमराज को भी मात दी, क्‍या बो नहीं नारी।

साहस भरे उस गीतों को तुम आज फिर गाओ।।

सदभाव बढ़ाती हैं नफरत को मिटा कर।

जीवन तिमिर में उसी से, नब रोशनी पाओ।।

नारी नरों की खान है, और आनि की धुरी-

साहस की अमर बेल है, जीवन को जगाओ।।

हर बोल, उसका बोल है, उल्‍लास से पूरा खरा।

आचार अरू सदभाव की, नव बेल बचाओ।।

बाबुल का द्वार झाड़ती, ससुराल लीपती।

दोनों कुलों की शाख जो, उसको तो सजाओ।।

सम्‍पत्ति वही है आज की, सम्‍पन्‍नता वही।

मनमस्‍त प्‍यार धार का, नहिं स्‍त्रोत सुखाओ।।

प्रेम का विस्‍तार--

प्रेम के विस्‍तार को पहिचानिए।

प्रेम नैसर्गिक सदां से, मानिए।।

ढहाता है, द्वेष की दीवार को,

जोड़ता है, आपसी व्‍यवहार को,

जिंदगी की सफर का हमराही है-

मोड़ देता प्रेम उफनी धार को।

प्रेम समरसता की सरिता जानिए।।

प्रेम में लेना और देना है नहिं।

प्रेम संसारी-सा गहना है नहीं।

प्रेम अर्पण और समर्पण से भरा-

प्रेम सी भाषा कहीं भी है नहीं।

प्रेम को मन चाहे जितना तानिए।।

प्रेम गीता की धरा का सार है।

प्रेम अर्जुन सा सखा, अवतार है।।

संकटों से दूर करता प्रेम का आधार ही-

प्रेम सारे ही सुखों का सार है।।

प्रेम की धरती संजीली मानिए।।

प्रेम ही अधिकार है वरदान है।

प्रेम ही सारे सुखों की खान है।

पाटता है प्रेम, हृदय खाइयां-

प्रेम ही अनुपम अनूठा ज्ञान है।

मनमस्‍त ऐसे प्रेम को पहिचानिए।।

मकड़जाल मत उलझ--

मकड़जाल मत उलझ समय को परख चलो ना।

बर्फीली चादर नहिं ओढ़ो साथ व्‍यर्थ गलो ना।।

इतना भी कमजोर न खुद को समझो, प्‍यारे।

लुट जाओ निज राह, स्‍वयं से स्‍वयं छलो ना।।

यह जीवन की राह, परीक्षा स्‍थल समझो-

कर्तव्‍य–कर्मी बनो, कभी भी हाथ मलो ना।।

तुम ठाड़े बाजार जहां है धुआं अंधेरा-

बाजारू मीत उनसे कभी मिलो ना।।

इस पतझड़ में, आस कहां, शीतल छाया की-

खुदगर्जी के आसमान पर, कभी चढ़ो ना।।

जाति-पांत की यहां अनेकों बजैं बांसुरी-

इन रागों पर, जान बूझकर, कभी छलो ना।।

जो लगते हैं दोस्‍त, नहीं होते वे अपने-

उनके संग मनमस्‍त, कभी पल एक रहो ना।।