Radharaman vaidya-adhunik bhartiy shikaha ki chunautiyan - 1 in Hindi Human Science by राजनारायण बोहरे books and stories PDF | राधारमण वैद्य-आधुनिक भारतीय शिक्षा की चुनौतियाँ - 1

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राधारमण वैद्य-आधुनिक भारतीय शिक्षा की चुनौतियाँ - 1

आधुनिक भारतीय शिक्षा की चुनौतियाँ

जहाँ तक शिक्षा में आमूल परिवर्तन की बात है, वह बहुत कठिन कार्य है, क्योंकि इसमें पर्याप्त श्रम, समय, धन और अन्वेषणों की आवश्यकता है। पहले शिक्षक बदले, तब शिक्षा बदले। एकाएक आमूल परिवर्तन सम्भव नहीं। केवल शिक्षा प्रणाली की पुनर्रचना करना ही लाभदायक नहीं। आधुनिक भारतीय शिक्षा के लक्ष्यों, उद्देश्यों और आदर्शो में परिवर्तन लाना भी आवश्यक है।

शिक्षा में पुनर्ररचना करना तभी ठीक होगा, जब समाज अभिभावक विद्यालय प्रबंधकों, अध्यापकों, छात्र-छात्राओं और सरकार के दृष्टिकोणों में अनुरूप परिवर्तन कर लिया जाय। आज जनतांत्रिक लोक-कल्याण के सिद्धान्तों को दृष्टि में रखना आवश्यक है, जिनके आधार पर भारतीय संस्कृति, भारतीय आदर्श के साथ-साथ सामयिक आवश्यकताओं, वैज्ञानिक तथा भौतिक प्रगति में सामंजस्य उत्पन्न करना भी पुनर्रचना की आवश्यकता है।

अंग्रेजी काल में शिक्षा के उद्देश्य संकीर्ण थे। यदि कोई शिक्षित भी होता था, तो वह भारतीय न होकर ब्रिटिश शासन का भक्त होता था। आज की आवश्यकता हमें भारतीयता और राष्ट्रीयता की ओर मोड़ती है। भारतीय संस्कृति व्यक्ति को निर्पेक्ष भाव से कर्तवय परायणता की ओर मोड़ती है। उसमें स्वार्थ से परमार्थ की ओर प्रेरित करती है। समाज की उन्नति में व्यक्ति की उन्नति का भाव जगाती है। आज हम केवल उपाधियाँ ग्रहण करते, स्मरण शक्ति को विकसित कर जानकारी बढ़ाते हैं। तर्क शक्ति और कल्पना शक्ति का विकास नहीं करते। आज हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जो हमें खुले और उदार मस्तिष्क से हमारा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास करते हुए समय की मांग के अनुरूप अपने को ढाल सकंे।

शिक्षा की पुनर्रचना के आवश्यक तत्व इस प्रकार हो सकते हैंः-

1. पुनर्रचना की दृश्टि से शिक्षा के उद्देश्य-

(क) शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं वनैतक विकास करना।

(ख) समाजसेवी और जनतांत्रिक सिद्धान्तों में आस्था रखने वाले नागरिकों को तत्पर करना।

(ग) व्यक्ति में पर्यावरण के साथ समायोजन करने की क्षमता उत्पन्न करना।

(घ) व्यक्ति में जीविकोपार्जन के लिए स्वावलंबन उत्पन्न करना।

(ङ) अवकाश का सार्थक सदुपयोग करने की क्षमता उत्पन्न करना।

(च) जाति, धर्म, वर्ग-भेद, भाषा-भेद आदि को राष्ट्रीय कार्यक्रमों में स्थान न देना और राज्यों में पारस्परिक सौहार्द और सहानुभूति उत्पन्न करना।

2. इस पुनर्रचना की दृष्टि से नवीन शिक्षा पाठ्यक्रम।

3. नवीन शिक्षा व्यवस्था।

4. शिक्षा पद्धति।

5. अनुशासन।

6. अध्यापकों की योग्यता वृद्धि की तैयारी जिससे अब हमारा शिक्षक समुदाय

बिल्कुल विमख है।

7. परीक्षा प्रणाली में सुधार।

8. अभिभावको का सहयोग।

9. शैक्षिक वातावरण और शासन तंत्र के दृष्टिकोणों में सुधार।

क्या यह सब अचानक-अनायास संभव है ? आज देश के दिशा-विहीन युवक युवतियों की अनुशासन हीनता महानगरों की कृकृत्यों भरी रातों की मान्यताएँ, काॅफी हाउसेज की निराधार और बेअंदाज बदगुमानियाॅ, नक्सलवादी और आतंकवादी मारधाड़ी, व्यापारी, नेता और अपराधियों की सांठगांठ, राजनीति का अपराधीकरण क्या शिक्षा के लिये चुनौतियां प्रस्तुत नहीं कर रही हैं ? शिक्षा का पाठ्यक्रम शासन अपने दलगत स्वार्थो की पूर्ति के लिए परिवर्तित कर रहा है। नित नये भ्रम समाज में पैदा किये जा रहें हैं भाईचारे को तोड़कर घृणा की फसल बोई जा रही है। क्या यह सब सत्यानासी और विश्रृंखल करने वाला वातावरण शिक्षा की पुनर्रचना को सही दिशा में जाने दे सकता है या इसकी सम्भावना भी बन सकती है ?

शिक्षा का सम्बन्ध मेधा, कला, मानस और आभ्यंतर से है। हक यह निस्संदेह कह सकते हैं आज हम भारतीय सबसे अधिक स्पंदन और हलचल भरे युग से गुजर रहे हैं। आज हम वास्तविक प्रयोजनों के लिए ज्ञान का उपयोग करने में दुखद स्तर तक असफल रहे हैं। यद्यपि सारी समस्याओं का हल शिक्षाा के दामन में है, पर ज्ञान का सही उपयोग तो देशवासियों के मस्तिष्क और क्रियाओं की हद में है। जयशंकर प्रसाद की कामायनी की इन पंक्तियों में आधुनिक भारतीय शिक्षा का दर्द उजागर होता है, बहुत स्पष्ट रूप में-

’’ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है,

इच्छा क्यों पूरी हो मन की।

एक दूसरे से न मिल सके,

यह विडम्बना है जीवन की।

आधुनिक युग में भारतीय शिक्षा प्रणाली की आलोचना करते हुए मैंने अनेक विद्वानों को सुना है, पर कभी-कभी यह आलोचना नाच न आवे आंगन टेढ़ा’’ की कहावत चरितार्थ करती है। जहाँ आदमी योग्य मेहनती और ईमानदार होते हैं, वहाँ उन्हें हर काम में सफलता मिलती है, फिर, चाहे वह प्रणाली कैसी भी हो, जिसके अंतर्गत उन्हें काम करना पड़े। हमें एशिया, यूरोप और अमेरिका के देशों के आर्थिक और सामाजिक विकास के इतिहास में ईमानदारी, समझदारी और लगन से किये गये काम की सर्वोच्च लाभकारिता का ज्वलंत उदाहरण मिलते हैं, जहाँ कि उनकी जीवन-प्रणालियाँ बिल्कुल अलग-अलग है।

सच्चाई यह है कि शिक्षा ही नहीं, बल्कि कोई भी प्रणाली, जो अपने आपको बदलते हुए युग के साथ नहीं बदलती, उसका विनाश अवश्य संभावी है। दुख की बात यह है कि आज हम शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों ही कृत्रिम सीमाओं से आबद्ध हैं। हमारा मन और मस्तिष्क- दोनों धुंधले और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से आज डाॅक्टरों, इंजीनियरों सुशिक्षित और सुलझे अध्यापकों के लिए पुकार मच रही है, फिर भी शहरों में ही सारे योग्य लोग बसने की होड़ लगाए बैठे हैं। ऐसा जान पड़ता है कि शहरों में रहकर बेरोजगारी और अर्द्धबेरोजगारी को गाँवों में रहकर, पूरे और सृजनात्मक रोजगार से अधिक पसन्द करते हैं। स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व का संघर्षशील मन और तीव्र लगन, कष्टपूण्र जीवन जीने की सामथ्र्य हमारी कहीं विलुप्त हो गयी है। हम सब बेहद सुविधा-भोग को आतुर और स्वार्थ भावना से लिप्त हो गये हैं। हमारा सच्चा रहबर, हमारा सही मार्गदर्शक कहीं बिछुड़ गया है।

हमारे पिछले जुझारू और दूरदृष्टि वाले रहनुमा कोई बहुत आदर्श शिक्षा प्रणाली की देन नहीं थे। वे सब उसी शिक्षा पद्धति से शिक्षित और संबंधित थे, जिसे हम पूरी दम से बुरा-भला कहकर उसकी आलोचना करते हैं।

संस्कृति का अर्थ तभी समझ में आता है, जब विद्यार्थी ज्ञान की तरफ उन्मुख हों। आज भी अच्छे सुयोग्य विद्यार्थी उसी कीचड़ में से कमल की तरह ऊपर उठ खिल रहे हैं और जिन्हें तत्काल तोड़ भागने के लिए न जाने कितने प्रलोभन लिए विेदेशी आवाहन के हाथ झपट रहे हैं। पर हमें सचेत होने की आवश्यकता है, समय रहते हमें सभी चुनौतियों को पहचानना है। इसमें शिक्षक, शिक्षार्थी, अभिभावक और प्रशासन सभी को सावधान होकर उन चुनौतियों का सामना करने को कटिबद्ध होना पड़ेगा। एक बात ध्ुा्रव सत्य है कि मानव जाति जीवन-मूल्यों या आदर्शो के बिना जीवित नहीं रह सकती। समाजवेताओं का कहना है कि ऐसी अनेक आदम जातियाँ थी जो अपनी पद्धति में विश्वास खो देने के कारण नष्ट हो गयीं। यदि आधुनिक भारत को जीवित रहना है तो मूल्यों में अपने विश्वास को पुनरूज्जीवित करना चाहिए। किन्तु हमें कालिदास की उस चेतावनी को भी ध्यान में रखना होगा कि सम्पूर्ण पुराना अच्छा और कल्याणकारी नहीं होता और न सम्पूर्ण नया ग्रहण करने योग्य।

टैगोर के अनुसार, व्यक्ति और समाज के बीच सांस्कृतिक मूल्यों को अविच्छिन्न रखते हुए, समस्वरता पैदा करना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। विवेकानन्द कहते हैं कि व्यक्ति समस्त ज्ञेय, अनुभाव्य और उपादेय वस्तुओं का अपने ही अंतर से उद्भव करता है। इकबाल के अनुसार ’’स्व’’ ने बाह्य संसार के साथ सम्पर्क से जो कुछ प्राप्त किया है, उसे और अधिक समृद्ध बनाने के लिए उसे निरन्तर उद्योग करना चाहिए।

ऐसी तमाम स्थितियों और चुनौतियों का ध्यान रखकर हमें भविष्य का रास्ता खोजना है। आज शिक्षा-प्रणाली में बहुत बड़ा उलट-फेर नई तकनीक ने किया है। जीवन में कम्प्यूटर ने अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। मैकाले का ब्रह्मास्त्र जिसने भारतीयों के मन मस्तिष्क पर जबर्दस्त मार की थी, और उसे (भारतीय को) अंग्रेजी में ही ज्ञान प्राप्ति का एक मात्र रास्ता दिखने लगा था, आज और भी तीव्रता से अपना कार्य कर रहा है। अब विकास के अंग्रेजी माध्यम का बोझ भी बस्ते के बोझ के साथ प्रत्येक बालक ढोने के लिए विवश है। इन तमाम चुनौतियों को भली प्रकार समझ हमें कोई ऐसा रास्ता निकालना है, जिससे उन सम्पूर्ण गुणों और विशेषताओं की रक्षा हो सकें, जिन्हें देख या अनुभव कर इकबाल को लगा था-

’’कोई बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,

सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमाॅ हमारा।’’

आज हमारी सहिष्णुता की भावना को कायरता कहा जा रहा है और समन्वय की प्रवृत्ति को नकारा जा रहा है। हमारी इन्द्रधनुषी और मउरपंखी छटा को इकरंगा बनाने की कुचेष्टा की जा रही है। जाति धर्म के भेद को गहराया जा रहा है। हमारी सहिष्णुता ’’स्वस्ति पन्थामनुचरेम’’ में व्यक्त सुमार्ग की बाधाओं और कष्टों की सहिष्णुता है, जिसे पोंछकर झुठलाया जा रहा है। हमारे विचार आगम और निगम से बने हैं। डाॅ0 भगवत शरण उपाध्याय की पुस्तक ’’भारतीय संस्कृति के स्त्रोत’’ में भारतीय संस्कृति अन्तहीन विभिन्न जातीय इकाईयों के सुदीर्घ संलयन की प्रतिफल है’’- जैसा अत्यंत वैज्ञानिक और मानवतावादी दृष्टिकोण सारी पुस्तक में उभरता रहता है। भारतीय संस्कृति के इस संर्वागी तथा लगातार आत्मसात करने वाले रूप को दृष्टि में रखते हुए वर्तमान में उभरी सभी चुनौतियों का हल हमें खोजना है तभी महाभारत की भावना से पूर्ण शिक्षा का विकास होगा-

’’धिग्बल क्षत्रिय बल ब्रह्मातेजो ब्रह्मा बलम।

बलाबले विनिश्चत्य तप एवं पर बलम।।

(क्षत्रिय के पशुबल को धिक्कार है। ब्रह्माण के तेज का जो बल है, वास्तविक बल वही है। इस प्रकार के बलों पर विचार करने से तप ही परमबल सिद्ध होता है।

यही भावना मानवतावादी (मनुवादी नहीं) विचार को पनपाती है, उसे सम्पुष्ट करती है, जिससे वर्तमान की अनेक चुनौतियों का तोड़ मिलता है, शेष तो विज्ञान और तकनीक के ज्ञान से स्वतः हल हो जायेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।

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