'लोक' और 'संस्कृति' शब्द कोषतः चाहे.. कितना व्यापक अर्थ रखते हों, किंतु आज परस्पर सन्निधि में सामान्यतः आशय विशेष में रूढ़ है । लोक संस्कृति के स्वरूप को संकुचित परिधि से मुक्त करके व्यापक तो प्रदान करने के मोह में प्रायः उसे संपूर्ण मानव संस्कृति का पर्याय मारने का कामनापरक प्रयत्न किया जाता है। इस के मूल में एक तो यह विचार है कि संस्कृति के रूप में जो आधारभूत मूल्य निर्मित होते हैं वे संपूर्ण समाज के होते हैं और संस्कृति को अंशतः विभाजित नहीं किया जा सकता। दूसरे लोक संस्कृति से जुड़ा पिछड़ेपन या ग्रामत्व का सन्दर्भ हीनता बोध उत्पन्न करता है। लोक संस्कृति तथा साहित्य भले ही "फोक कल्चर" और "फोक लिटरेचर" का अनुवाद हो पर आज व्यवहार में लोक संस्कृति के अंतर्गत सर्वमान्य या बहुमान्य रूप से जो अध्ययन किया जाता है उनका अपना निश्चित क्षेत्र है और आशय में संकुचित होने से उसकी महत्ता कम नहीं होती।
लोक संस्कृति के लोक को प्रायः ग्रामीण अंचलों में रहने वाले परंपरामूलक अपेक्षाकृत कम शिक्षित आधुनिकता के प्रभाव से अधिकतर अस्पष्ट जन समुदाय के रूप में माना जाता है । लोक का प्रति पक्षी अभिजात वर्गीय समाज समझा जाता है । व्यापक अर्थ में तो लोक संपूर्ण समाज है किंतु सीमित अर्थ में है केवल ग्रामीण अंचलों में निवास करने वाला जनसमुदाय नहीं है बल्कि उसका प्रसार कस्बों , नगरों तथा महानगरों तक है। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार लोग केवल जनपद या ग्राम नहीं बल्कि नगरों और गांव में निवास करने वाली समूची जनता है जिसकी व्यवहारिक ज्ञान का आधारभूत या नहीं है। नगरों और महानगरों में भी इस तरह का लोक का बहुत बड़ा वर्ग है। इसके विपरीत अभिजात वर्ग भी किसी स्थान विशेष में केंद्रित नहीं है । सामंती समाज में ग्राम अथवा नगरीय परिवेश में जमीदार, जागीरदार तथा राजाओं की जीवन पद्धति अनेक रूपों में अपने ही बृहत व्रत समाज से भिन्न रही है। महानगरों में आर्थिक दृष्टि से अति संपन्न वर्ग के जीवन में लोक का आग्रह अधिक प्रबल नहीं दिखाई देता । उनके वर्ग का अपना अलग आचार शास्त्र बन गया है। उनकी मान्यताएं भिन्न है। इसी प्रकार एक ऐसा वर्ग भी है जो पाश्चात्य मूल्यों से प्रभावित होकर आधुनिक जीवनशैली अपना रहा है। यह वर्ग अपनी सांस्कृतिक पहचान से अनभिज्ञ है । वैज्ञानिक उपकरणों, विश्वव्यापी नए जीवन दर्शनों और जीवन की आधुनिक जटिलताओं से तो मान्यताओं के परिवर्तन में तीव्रता आई है। पूंजीवादी समाजवादी समाज की अन्य कृतियों के साथ ही वैयक्तिकता प्रमुख रूप से उभरी है जो लोक भावना के ठीक विपरीत है । उपभोग परकता के दृष्टिकोण से वस्तुओँ के प्रति संवेदन शून्यता शीलता नहीं पनपी बल्कि मनुष्य के आपसी संबंधों में निर्ममता निस्संगता पैदा हुई है।
इस प्रकार व्यावहारिक अर्थ में लोक और अभिजात का भेद सर्वथा स्थानगत नहीं है, फिर भी जिस आशय में लोक का प्रयोग हो रहा है वह उन्हीं स्थानों में अधिक दृश्यतव्य है जहां मूल्यों को परिवर्तित करने वाले आधुनिक प्रभाव अपेक्षाकृत कम क्रियाशील है। वस्तुतः लोक एक मानसिकता है और मानसिकता के निर्धारण में अधिक साधन तथा जीवन की भौतिक परिस्थितियां प्रमुख रूप से उत्तरदाई होती हैं। हालांकि भारत के परंपरागत समाज में विभिन्न आर्थिक स्थितियों के वर्ग भी अनेक मान्यताओं में समान है फिर भी जन मान्यताओं के निर्वाहन में और उनके पालन में साधनों का अंतर तो रहता ही है।
लोक और वेद की व्याख्या प्रायः विरोधी स्थितियों के रूप में की जाती है वह वेद को ब्रह्म बस केवल चार वेद मान लिया जाता है। लोक और बेद का विरोध प्रायः इस रूप में देखा जाता है कि लोक में जीवन व्यवहारिक आवश्यकताओं से उत्पन्न मान्यताएं तथा क्रियाएं समाविष्ट हैं जिनका उल्लेख शास्ति के रूप वेद में नहीं है , जबकि वेद मे जीवन के आदर्शों तथा उच्चतर वैचारिकता के नियम निर्देश हैं। कबीर कहते हैं:
पीछे लागा जाइ था लोक वेद के साथ। आगे तें सतगुरु मिले दीपक दे ना हाथ ।।
कबीर का आशय भी केवल वेदों से नहीं है ।वेद विहित मार्ग का आशय केवल वेदों में उपस्थित पद्धति नहीं है, अपितु वेद , उपनिषद , स्मृति , पुराण , महाकाव्य तथा विभिन्न दर्शनों में समाहित आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन के विषय में दिए गए मानदण्ड हैं । हमारे संस्कारों पर वेदों का प्रभाव असंदिग्ध है किंतु अन्य वाङ्गमय की भी हमारे जीवन संचालन तथा उससे सम्बंधित नियम निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका है। अतः वेद विहित मार्ग का आशय वस्तुतः शास्त्र बद्धता से है। किसी बात की अकाट्यता और पुष्टि के लिए यह भी कहा जाता है कि अमुक बात शास्त्रों में लिखी है। इसका अर्थ यह नहीं होता कि उसका उल्लेख केवल वेदों में है। प्राचीनकाल में जीवन को संचालित करने वाले नियमोँ के शास्त्रीयता का स्वरूप वेदों के परवर्ती काल मे अधिक प्राप्त हुआ भले ही उनके बीज और स्रोत वेदों में है।अतः लोक से भिन्न वेद मार्ग की जो धारणा प्रचलित है उसका अर्थ शास्त्रीयता है। शास्त्र किसी भी ज्ञान अथवा आचरण के संदर्भ में अकाट्य प्रमाण माने जाते हैं। उनमें विभिन्नता और सुरक्षा चरिता के स्थान पर सर्व मान्यता की स्थिति पैदा होती है । चाहे वे प्राचीन शास्त्रों अथवा भारतीय दंड संहिता का भारत का संविधान, वे अपने-अपने क्षेत्र के प्रमाण साथ रहे प्रमाण दंत हैं। लोगों में शास्त्रों की सभी कार्यों में सार्थकता के प्रति अविचल विश्वास में रहता है। हालांकि यह भी सत्य है कि कोई भी शास्त्र कितने भी दूरदर्शी अनागत का ध्यान रखें फिर वह शास्त्र देश और काल को पूरी तरह विस्मृत नहीं कर सकता। शास्त्रीय करण की प्रक्रिया परिष्करण की प्रक्रिया भी है किसी समय में विद्यमान स्थितियों का विवेचन करके उनके आदर्श स्वरूप के सिद्धांत निर्मित होते हैं । प्रदत्त का परिष्कार होता है किंतु यही भी अवगत सत्य है कि परिवर्तित काल की परिस्थितियों में शास्त्रों के अनेक सिद्धांत या तो सार्थक नहीं रह जाते अथवा उनका निर्विकल्पम अनुज्ञापन कठिनाइयां उत्पन्न करने लगता है। वह मनुष्य के आर्थिक सामाजिक जीवन पर लागू होने वाले शास्त्रों के संबंध में तो अधिक स्वभाविक है ही दर्शन कला साहित्य अध्यात्म जैसी अमूर्त धारणाएं भी संशोधन की आवश्यकता के अंतर्गत आ जाती हैं। पुराण में तेल नसाद सर्वा कहकर कालिदास ने इसी तथ्य को रेखांकित किया है ।
परिष्कार प्रक्रिया में शास्त्रीयता का विधान विद्वानों और सर्वज्ञ के द्वारा होता है। शास्त्रीयता सामान्यता से अलग कोटि की वस्तु है। इसके ज्ञान और हादसात की क्षमता सर्वसाधारण में नहीं होती ।उसके लिए कठिन अभ्यास समझ , धारणा और विशिष्ट कुछ आवश्यक है। ऐसी स्थिति में शास्त्रीयता समाज के वर्ग विशेष तक सीमित रह जाती है ।सामान्य जन में उसकी व्याप्ति उसी स्तर पर नहीं हो पाती। इसी अर्थ में लोगों को लोक और शास्त्र में अंतर दिखता है । एक विडंबना और होती है। शास्त्र को ही अंतिम तथा अमित मानने के कारण उनकी श्रेष्ठता के प्रति ऐसी धारणा हो जाती है कि उसके इतर सब अशिष्ट , अस्वीकृत अस्वीकार्य व हेय लगने लगता है ।
इस विवेचना का अर्थ यह नहीं है कि परिष्कार और शास्त्र बद्धता अवांछनीय और बाह्य आरोपित है । मनुष्य आकांक्षा के संस्कारों मुख्य यह निरंतर परिष्कार और प्रवृत्ति को की दिशा में गतिशील रहता है। अभिप्राय है कि लोक और शास्त्र एक दूसरे की अनुपस्थिति में ही नहीं रहते साथ रहते हुए भी सहकर्मी होते हैं ,सार्थक होते हैं सापेक्ष होते हैं ।
लोक का भी अपना शास्त्र होता है प्रायः अलिखित। इसमें विभिन्न जीवन व्यापारों से संबंधित निरीक्षण, जन्म अनुभव अथवा निष्कर्ष समाहित होते हैं ।घाघ और भड्डरी ने रितु और कृषि संबंधी निष्कर्ष किसी प्रयोगशाला से नहीं प्राप्त किए। बल्कि बार-बार के अनुभव से उन्होंने सामान्य करण किया। लोगों का चिकित्सा शास्त्र भी इसी प्रकार अपने परिवेश के निकट पहचान और उसकी धीरे-धीरे प्रकट होती उपयोगिता पर आधारित है। लोकाचार्य लोक कलाओं लोकगीतों की देता को भी वीडियो का मान्य शुरू बना लिया जाता है। अंतर है कि उसमें विद्वानों द्वारा रचित शास्त्र की दुर्बलता उत्साह देता नहीं होती
परंपरा लोक जीवन का परम तत्व है ।लोग जीवन में परंपरा के प्रति आदर भाव रहता है। किंतु परंपरा का अर्थ यह नहीं है कि उसमें कुछ नहीं बदलता। सार्थक तो यार बहुत को अभिव्यक्त करने वाले उपकरण या रूप का कार शब्द के रूप परिवर्तित होते रहते हैं। इसमें बदलती परिस्थितियों का भी बना रहता है ।नगरों और महानगरों में रहने वाले लोगों के जीवन में तो वैज्ञानिक और आधुनिक वस्तुओं का समावेश हुआ ही है उनका प्रसार गांव और कस्बों तक भी हो रहा है। यह प्रसार वस्तुओं का ही नहीं मनुष्य को बरसते हुए धारा और प्रतिक्रियाओं का भी है। यह नवागत वस्तु और विचार तुरंत अपना प्रभाव भले ही ना दिखाएं , केंद्र पर पहले से ही प्रचलित प्रहार बात तो करते हैं । तो उनमें से लोक प्रचलन और व्यवहार में आ जाते हैं। परिवर्तन की प्रक्रिया समाजों में अधिक विलंबित होती है और उनका अधिक प्रदीर्घ प्रतीक होता है । जिनकी परंपराएं बहुत प्रयोग होते हैं भारतीय समाज के संदर्भ में उसे देखा जा सकता है। वह तो
परंपराएं और नवीन प्रभाव लंबे समय के संक्रमण की स्थिति में है ।बदलाव आ रहा है पर विद्युत गति से नहीं ।यहां पुनः डिस्टर्ब है कि अनेक नए आगमन होना इसलिए भी सम्भव नहीं हो पाता कि आर्थिक बाजार उनके स्वागत में सक्षम नहीं है ।
गांव का स्वरूप बदल रहा है ।एक तो आधुनिक वस्तुओं और विचारों के द्वारा, दूसरे आरथिक। अच्छी आर्थिक संभावनाओं के कारण गांव के मजदूरों और शिल्पकारों के नगरों और महानगरों को पलायन के द्वारा। इस बदलाव को ना तो कह कर ना बलपूर्वक सूचित किया जा सकता है।आदिम समाजों में मूल विश्वास भले ही पारंपरिक हों, किंतु उनकी जीवन स्थितियों में आज परिवर्तन हो रहा है। तब लोक संस्कृति के पारंपरिक स्वरूप की सदाशयता अथवा शास्त्र गीता से क्या से धरना बनती है।
ग्रामीण अँचलों के बदलते हुए स्वरूप के आधार पर आंचलिक उपादान ओं के भविष्य के संबंध में यह शंका प्रकट की जाती है कि जब परिवर्तन के दौर में अंचल का पारंपरिक जीवन ही अपनी भौतिकता या विशिष्टता हो रहा हो तो आंचलिक रचना की संभावनाएं क्षीण होती जाएंगी ।यह बात लोक संस्कृति का संदर्भ भी बनती हैं। तब क्या यह विगत की वस्तु की तरह संगठन है और अनु रचनी यहीं रह जाएगी। भावेश में कहा जा सकता है कि हमारी लोक संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वह हमेशा हरी-भरी रहेंगे ।तब यह प्रश्न किया जा सकता है कि आज कितनी लोक कलाएं कितने लोग विश्वास कितना लोक साहित्य समर्थ रूप में व्यवहार उपयोग रचना क्रम में है। कितने संस्कारों कर्मकांड की संपूर्णता का विस्तार के साथ क्रियान्वित होते हैं ।
तब हमें स्वीकार का औदार्य दिखाना होगा कि लोकजीवन उतरन रूप लोक संस्कृति में परिवर्तन का क्रम अनिवार्य है । दूसरे हमें लोग को अभिजात वर्ग से अलग व्यापक समाज के रूप में मानना होगा जो केवल ग्रामीण नहीं बल्कि जिस की व्याप्ति दूर-दूर तक है ।
यह प्रकृट तत्व है कि आज लोग तत्व का ह्रास हो रहा है लोक समूहवाची संज्ञा है। समूह का अर्थ केवल लोगों की बड़ी संख्या वर्तमानता य्या भीड़ नहीं है। लोक में सामूहिक ता पारस्परिक ता की भावना महत्वपूर्ण है। लोक में मोटे रूप से वेशभूषा खानपान मौलिक साधन भाषा आचार्य आदि की विभिन्नता होते हुए भी समान सामाजिक बोध रहता है परस्पर निर्भरता के कारण सामूहिक और एक दूसरे का सहयोग मुख्य बन जाता है । अतः लोगों में व्यक्ति जितना से अधिक समष्टि चेतना का बोध बना रहता है । यहां लोक-निर्णय मान्य होते हैं।
आज लोक में सामूहिकता के भाव का अभाव है। उसके स्थान पर व्यक्तिगत चेतना प्रमुख है । आत्मनिर्भरता अभी भी है पर सामान्य कस्बों के शिष्टाचार तक। उत्पादन और वितरण के रूप में भी यह आज निर्भरता है । किंतु यह सब क्रय विक्रय के द्वारा प्राप्त होता है जब सब कुछ खरीद सकता है या खरीद कर ही क् पाया जा सकता है तो कृतज्ञता की आवश्यकता नहीं होती है। संबंध निर्वाह औपचारिक होता जाता है सोहर दूध तो जाएगा ही । क्या आज भी प्रतिवेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।व्यक्ति पर रुकता से लोग के प्रति अलगाव की स्थिति निर्मित हुई है ।
संस्कृति व्यापक पर अर्थ में अनुष्का परिष्कार है ।निभाए और आंतरिक जीवन शैली औपचारिकता प्रस्तुति स्वस्थ जीवन से जुड़े हुए भौतिक साधनों में र और कलात्मकता तथा जीवन के उच्चतर आदर्शों के बारे में दार्शनिक चिंतन संस्कृति के ही रूप है। परिष्कार की प्रक्रिया से उत्पन्न सामान्य तत्व समाज का स्वभाव बन जाते हैं तब संस्कृति की संज्ञा प्राप्त करते हैं ।यह संस्कृति की शुभ तथा सामान्य धारणा ही है । कभी-कभी कोई अन्य भुला अर्थ अथवा सामान्य से कुछ भिन्न अथवा विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है। यह संक्षिप्त भी हो सकता है । संस्कृति को समझने के लिए उनके मूर्त अथवा अव्यक्त का आधार देना पड़ता है। कोई समाज परिष्कार के लंबे काल के तान के स्तर पर भी उत्कृष्ट करता है और जीवन से जुड़े विभिन्न पक्षों में कलात्मक उन्नयन भी करता है। संस्कृति के व्यापक अर्थ में भी तो जान अंतर्गत आने वाली विषय वस्तु का निर्धारण करना ही होता है इसलिए जीवन के बारे में उदात्त मूल चिंतन मान लेता था। आचार विचार जीवन सनी आचार विचार साहित्यकारों आदि को मनुष्य प्रकृति के प्रयास मानकर उसको संस्कृति का विषय मान लिया जाता है। इस परिस्थिति के में स्थानीय अथवा जाती है विशेषता है। अतः संस्कृति के साथ स्थानीय समाज विशेष का स्थान रहता है फिर संस्कृति शब्द की किसी पर लिया संभल कितनी देर तक कहा जाने लगता है। इसलिए संस्कृत शब्द का प्रयोग मिलते जुलते अर्थ में होने लगता है इससे भी अधिक विचार यह है कि निंदा करते हुए भी संस्कृति शब्द का ही प्रयोग होता है ।
उदाहरण के लिए भारतीय संस्कृति की विशेषता की तुलना में भाषा संस्कृति को भौतिक और हिना कहकर चिंतित चिन्हित किया जाता है ।पर शब्द भाभी संस्कृति हो जाता है ।अगर संस्कृति का व्यक्ति अथवा संस्कार है तो अनावश्यक कैसे हुई वास्तविकता यह है कि मनुष्य को व्यवहार दृष्टि से अगर अगोदर करता रहता है। इसके लिए शब्द में अर्थ का परिवर्तन होता है। आखिर उनकी चीज को कोई नाम तो देना ही होता है। प्राचीन की इसी व्यवस्था में संगीत तथा नाटक आदि को ही सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जाने लगाहै ।
इसी संदर्भ में लोक संस्कृति की सार्थकता पर भी विचार किया जाना उपयुक्त होगा कलात्मक रूप से तो संस्कृति किसी समाज विशेष की समग्रता की देख होती है । समाज के सभी वर्गों की प्रकृति समाज और समकालीन नहीं होती । विशेष रूप से सत्ता से जुड़े और अभिजात वर्ग का जीवन दर्शन नहीं वही नहीं होता जो सामान्य लोक का होता है। विस्ता की ओर परिष्कार अग्रसर परिष्कार आत्मीयता समय पिता से बात हो जाता है तो सामान्य लोग से उन्हें अंतर दिखाई देने लगता है। जब सामान्य लोग उससे अपने व्यापक अर्थ में इसे केवल जीवन आचार विचार तथा कला का विकास करता है उसे लोक संस्कृत के साथ में अवैध किया जाने लगा लोक संस्कृति के अंतर्गत किसी समाज के जीवन के प्रायः सभी पक्षों का अध्ययन करने की परंपरा है ।आचार विचार रीति रिवाज प्रबोध सब लोग तथा लोकोत्तर धारणाएं आस्थान जीवन शैली नृत्य गीत शशि कला शिल्प भाषा आदि सभी लोग संस्कृति के विषय के रूप में मान्य है। संस्कृति के व्यक्ति इन्हीं रूपों में देखी जा सकती है ।आज की ज्ञान विधाओं के अनुसार इसी प्रकार का अध्ययन निर विज्ञान तथा समाजशास्त्र का विषय है ।इस प्रकार संस्कृति का संबंध इन विज्ञानों की तरह मनुष्य तथा उसके सामाजिक विकास और सद्भाव प्रमाणित है।
जीवन के इन विभिन्न प्रकट पक्ष किया व्यक्ति उस समाज की धारणा हो तथा उसके जीवन दर्शन से परिचालित होती है। भारत के विभिन्न अंचलों काजू के दर्शन पाया समान है किंतु आर्थिक परिस्थितियों की भिन्नता से उन्हें व्यावहारिक जीवन की भिन्नता की अभिव्यक्ति हुई है ।इस आधार पर अंचलों के आधार पर लोग संस्कृत का नामकरण किया गया है विभिन्न अंचलों की संस्कृति में कुछ विशेषता भी दिखाई देती हैं। मंजिलों के पर आधार लोक संस्कृति का विधायक अथवा नामकरण सभी सार्थक है ।जब उसकी विशेषताओं को प्रमुख रूप से जागृत किया जावे लोक संस्कृति आज जिस समाज में प्रश्न चल नहीं रही है। भारत की होली पहचान के रूप में उसका देश विदेश में प्रचार हो रहा है पारस्परिक हस्तकला ओके को प्रोत्साहित किया जा रहा है । यदि संगीत के अनेक आयोजन हो रहे हैं आधुनिक शैली के निर्मित भवनों के द्वारा अप्रैल का आषाढ़ देता निर्भय होने लगा है ।सभी प्रकार के आधुनिक उपकरणों से युक्त बैठकों में लोक कला की दो टूक वस्तुएं सजी रहती हैं ।इसके दोनों पक्ष ने एक और लोक कलाओं को पुनर्जीवित करना है। कलात्मकता को व्यवसायिक अवसर प्रदान करने का विचार है। दूसरी और आधुनिक जीवन शैली के सेव करने की ललक में केवल विशेषता विश करने के लिए उचित व्यक्ति का भाव है लोक कला की है ।उसमें उपयोग में नहीं नहीं लाई जाती बल्कि केवल सताया प्रदर्शन के लिए रखी जाती है मनोरंजन की दृष्टि से लोक संस्कृति के इस महान और प्रदर्शन में उसके प्रति आत्मीयता की भावना अनुपस्थित रहती है ।
यह सही है कि अनु रजनी अविगत को भी संभाला में जाना चाहिए किंतु की उन्नीस की दृष्टि से कुछ टुकड़ों को नहीं मक्योंकि संस्कृति किसी समाज का इतिहास है ।उसका समाजशास्त्र है और उसमें उसको महत्वपूर्ण उपलब्धियों के साथी उसके सपने घोषणा आदि की भी जुड़ी रहती है। इस संदर्भ में अगर उसे संस्कृति शब्द से अवैध करना उपयुक्त ना लगे तो व्यापक परिपेक्ष में उसे लोकजीवन कहा जा सकता है । संस्कृति निराकार शुभ समय अद्भुत या हेलो के नहीं होती कोई समाज अपने भौतिक परिवेश के आसन में अपने भौतिक की मानसिकता परिष्कार का उपयोगिता सुख और समाज की दृष्टि से लंबे समय तक प्रयत्न करता रहता है ।तब सांस्कृतिक उपलब्धियां सामने आती हैं। इसमें भौतिक तत्वों की भूमिका होती है और सामाजिक परिस्थितियों में भी समाज की आविष्कार बुद्धि का भी प्रमुख महत्व इसलिए रुचि तृप्ति अथवा अपनेपन के उमरा की दृष्टि से लोग संस्कृत के कुछ पक्षों के विरोध में आज साधन के रूप में भी आवश्यक है कि उसके साथ अद्भुत सामाजिक परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाए। इससे सामाजिक संरचना तथा सुमित की
भावनाओं का परिचय मिलता है। क्योंकि संस्कृति की रचना कौतूहल वर्धक अथवा जीवन के बाहर की वस्तु नहीं है। संस्कृति किसी समाज का दिया हुआ जीवन है। जादूगर के रूप की सफाई नहीं हाथ की सफाई नहीं। विवेक लोक संस्कृतियों में प्रकृति का वर्णन है क्योंकि लोक कलाओं का प्रवेश प्रकृति का परिवेश रहा है। इसलिए वस्तु संबंधी अनेक स्वीकारो तथा लोकगीतों का जन्म हुआ। बुंदेलखंड के समाज के जवाब में सदस्य का एक बड़ा वर्ग पशु आदि आदि को भी के रूप में व्यक्त करता रहा है ।जब जब महुआ मेवा देर कलेवा गुलशन हुए का बड़ा फल मिठाई कहलाती है ।बुंदेलखंड और राजस्थान में भाषा युद्ध होते रहे हैं। उनमें अलग क्षेत्रों में के मैं एक कौशल दिखता है अभी हां आख्यान के रूप में दादरी और तुम्हारे प्रचलित हुए बदलते समय के परिवेश में बाद के लोकगीतों का और कार में चलने लगा है जल्दी साइकिल तो बहुत पहले से बने लगा था। लोक में अनेक देवता पूजा बुंदेलखंड में हरदौल कारस देव मनिया देव आदि देवताओं की अलौकिक संदर्भ में अति मानवीय गुणों के आधार पर रोक मन में देवत्व प्राप्त किया। देवकी इस संस्था में केवल आयत विकास थाना होकर उपयोगिता का दृष्टिकोण भी निहित है ।इसलिए विभिन्न देवता विभिन्न कार्य संपन्न करने वाले माने गए हैं ।लोकगीतों में सामाजिक जीवन की परिस्थितियां प्रकट होती है ।राम और सीता लोक में आदर्श बर बधू हैं। इसलिए लोकगीतों के माध्यम से प्रत्येक बर राम, वध सीता बन जाती है वर्क अयोध्या अवध का घर जनकपुर बन जाता है। भारत परिवार में 12000 के पश्चात 9 युवकों को रद्द हो गई ।जाम है भड़काता रोकता है यह रिवाज पर की सांस्कृतिक की मात्रा प्रतीक है।
भाषा प्रदीप जी समाज की स्थितियों से प्रभावित होते हैं ।दिल खंड में कलाई कोलाहल होने के लिए रणतभंवर कहा जाता ना कहा जाता है यह रणथंबोर ही के एक बड़े युद्ध के रूप में कोलाहल की जीवन आंसर करने की अतिथियों का मान लिया गया एक अन्य शब्द है ।चित्र पूर्तिया वस्तु के होने आकार या छोटे तनु को आकार को भी जिन घटिया कहा जाता है ।यह सब छीनी गुड़िया का बुंदेलखंडी कारगर है ।चीनी गुड़िया आकार में वहां के लोगों की तरह छुट्टी होती है यह प्रमोद विभिन्न सामाजिक संदर्भ प्रकट करते हैं इस प्रकार लोक संस्कृति किसी समाज की ऐतिहासिक सामाजिक स्त्रियों की व्यापक पहचान है। इसमें जीवन के भाव भाव परिष्कार कलात्मक उपलब्धियां जीवन दर्शन साहित्य भौतिक परिपेक्ष आदि समग्र रूप से स्मार्ट है जीवन की तरह अपने उससे जुड़ी संस्कृति की भी गतिशील है मनुष्य संस्कृति का केंद्र है न मनुष्य श्रेष्ठ धर्म में किंचित।