Gumkaua bhat in Hindi Classic Stories by Smita books and stories PDF | गमकौआ भात

The Author
Featured Books
Categories
Share

गमकौआ भात


छोटी उम्र में लगभग रोज सींकू ( बिहार में दुबले-पतले बच्चे को मजाक-मजाक में सींक, सींकू, बांस, सींकिया पहलवान आदि नाम से पुकारने लगते हैं) किसी न किसी से यह कहते हुए जरूर सुनता कि उसके दादाजी बहुत अमीर थे। गमकौआ बासमती भात छोड़कर कभी वे दूसरी तरह के चावल की तरफ देखते तक नहीं थे। उसकी दादी तो घर आने-जाने वाले हर एक को एक मुट्ठी काजू-किशमिश जरूर देतीं। उनके जमाने में हर घर में बिजली की सुविधा नहीं होती थी। इस कारण ज्यादातर घरों में लालटेन या ढिबरी जला करती। किरोसिन तेल की जगह वे ढिबरी में इत्र डालकर जलाया करती। इत्र का सुगंध उन्हें विशेष प्रिय था। सर्दी के दिनों में रोज नहीं नहाने वाले लोग तो उनकी ढिबरी खोल अपनी उंगलियों को इत्र से भिगो लेते और अपने कपड़ों में लगा लेते, ताकि शरीर से आने वाली बदबू इत्र की खुशबू में दब जाए।
सींकू का असली नाम तो दीपक था। दीपक तो उसे सिर्फ कॉलेज के साथी बुलाते, क्योंकि कॉलेज उसके गांव से दस किलोमीटर दूर शहर में था। इस कारण वे लोग उसके इस नाम से अनजान थे। गांव के स्कूल में जब तक उसने पढ़ाई की, तब तक अपने लिए सींकू नाम ही सुनता रहा। इस बात के लिए स्कूल में वह सहपाठियों का विरोध नहीं कर सकता था, क्योंकि एक तो बहुत दुबला-पतला होने के कारण किसी भी तरह की शारीरिक लड़ाई में वह हार जाता। वहीं दूसरी ओर वह किसी के साथ लड़ाई-झगड़ा मोल लेकर अपने लक्ष्य से भटकना नहीं चाहता था। पढ़ाई-लिखाई कर कोई अच्छी-सी सरकारी नौकरी पाना ही उसके जीवन का ध्येय था, ताकि उसके घर की गरीबी तो दूर हो ही, उसका भविष्य भी सुरक्षित हो जाए। वह भी दादाजी की तरह सिर्फ गमकौआ भात खाने वाले की प्रसिद्धि पाना चाहता था।
दादाजी की अमीरी के किस्से सुनकर फिलहाल वह आजिज आ चुका था, क्योंकि वह और उसका पूरा परिवार तो पूरी तरह गरीबी की गिरफ्त में था। वह भी दादाजी के पुण्य प्रताप से। उसे लोगों का यह कथन बेकार-सा लगता कि बड़े-बुजुर्गों की छत्र छाया में परिवार सुरक्षित रहता है। उसके जीवन की कहानी तो पूरी तरह उल्टी थी।गांव वालों से ही यह बात उसे पता चली कि दादाजी ने गमकौआ भात खाने के फेर में धीरे-धीरे अपने सारे खेत बेच दिए। उन्होंने झूठी शान के लिए दादी के सारे जेवर भी गिरवी पर रख दिए। दादी भी उन्हें समझाने-बुझाने की बजाय उनकी तरह ही बढिया व्यंजन खाने और शेखी बघारने के पीछे पैसे बहाती। गांव के इज्जतदार आदमी होने के कारण सींकू के दादाजी स्वयं खेत पर कभी नहीं जाते। मालिक की देखरेख के अभाव में खेत की सारी आमदनी बटाईदार खाने लगे। एक समय ऐसा आया कि उनके खेत के आसामी ही मालिक बन बैठे। सींकू ने एक दिन पटना से आये अपने ताऊ को यह बोलते हुए सुना कि जब उनके पिताजी यानी सींकू के दादाजी की मृत्यु हुई, तो उनके क्रिया-कर्म तक के लिए घर में पैसे नहीं थे। गांव वालों ने उस कार्य के लिए चंदा इकट्ठा किया, तब जाकर मृत्यु बाद होने वाले सभी संस्कार सम्पन्न हुए।
सींकू के पिताजी उस समय बहुत छोटे थे। कैंसर होने और इलाज के अभाव में सींकू की दादी भी जल्दी ही चल बसीं। अब घर चलाने का सारा दारोमदार सींकू के ताऊजी पर आ गया। ताऊजी ने छोटी-मोटी नौकरी कर जैसे-तैसे घर को संभाला।
सींकू को तब और गुस्सा आता जब गांव वाले उसकी बुआ की पुरानी प्रेम-कहानियां सुनाते। सींकू जब भी कॉलेज में अपने दोस्तों से अलग-अलग विषय पढ़ाने वाले प्रोफेसर साहब के प्रेम- प्रसंगों के बारे में सुनता, तो न चाहते हुए भी उसे गांव के दोस्तों द्वारा बताए गए बुआ के प्रेम के किस्से याद आने लगते। कॉलेज के दोस्त उसे यह कहते हुए छेड़ते, 'तुम सीधे-साधे गांव वाले क्या जानो? चक्कर-वक्कर क्या होता है। यहां शहर में तो इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर साहब की पत्नी की लव-केमिस्ट्री अंग्रेजी पढ़ाने वाले प्रोफेसर के साथ बन रही है।' तब बुआ के प्रेम प्रसंगों की कहानियां उसके मानस पटल पर चलचित्र की तरह चलने लगती। उसे अच्छी तरह याद है कि गांव में एक दिन लालन ने जानबूझकर फुसफुसा कर दूसरे दोस्त से कहा था कि सींकू की बुआ के तो कई युवकों के साथ रिश्ते थे, यहां तक कि शोभन चाचा से भी...। इतना सुनते ही उसके कान गर्म होकर लहकने लगे थे। उसने स्वयं से सवाल पूछा-क्या गांव में चाचा- भतीजी या चचेरे भाई-बहन में भी प्रेम हो सकता है? उसने खुद ही जवाब दिया-ये प्रेम नहीं वासना का भाव हो सकता है। वासना, जिस अनुभूति में व्यक्ति गंदी नाली से भी अधिक सड़े पानी में डूबने जैसे अनुभव को सुखद माने। ठीक उसी समय मन ही मन सींकू ने निर्णय लिया-मैं जब अपने बूते पर जीवन जीने लगूंगा, तो शहर के लोगों के सामने गांव का यह राज जरूर खोल दूंगा-सभी गांव वाले अच्छी सोच वाले नहीं होते। यहां भी शहरों की तरह संबंधों की आड़ में वासना की गंदी नदी बहती है...
बुआ की शादी तो ताऊ जी ने सींकू के पिता की शादी से बहुत पहले कर दी। इसलिए सींकू के उनसे रोज मुलाकात होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। हां जब भी घर के काज-प्रयोजन में बुआ घर आती, तो सींकू को दोस्तों द्वारा बताई कहानी जरूर याद आ जाती।
इधर सींकू के ताऊजी बहन की शादी करने के बाद पत्नी सहित पटना चले गए। वहीं उनके बाल-बच्चे हुए, परिवार बढ़ा और वे उसी शहर में रच-बस गए। फिर गांव की तरफ उन्होंने मुड़ कर नहीं देखा। उधर सींकू के पिता जब बड़े हुए, तो उन्होंने भी घर की व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए बहुत अधिक प्रयास नहीं किया। न उन्होंने मन से पढ़ाई की और न ही घर के लिए कुछ सार्थक करने का प्रयास किया। नतीजतन बचे-खुचे खेत भी बिक गए। वे नौकरीशुदा नहीं हुए, तो फिर कौन पिता अपनी बेटी का हाथ उनके हाथ में देता! लेकिन शादी तो करनी ही थी, इसलिए उन्हें कोई न कोई जुगत तो भिड़ानी ही पड़ती। इसके लिए सींकू के पिताजी ने स्वजातीय एक ऐसे बदमाश टाइप नौजवान से दोस्ती गांठ ली, जिसकी बहन से डर के मारे कोई शादी नहीं कर रहा था। कारण किसी गांव में डकैती की वारदात के आरोप में उस नौजवान का नाम पुलिस की फाइल में दर्ज हो गया था...। सींकू के पिता ने उस नौजवान से पता नहीं क्या कुछ कहा कि गांव में सींकू के पिता के अपहृत होने की खबर फैल गई। लगभग एक सप्ताह बाद सींकू के पिता एक सजी-धजी दुल्हन के साथ अपने गांव आए। वह दुल्हन उसी आरोपी नौजवान की बहन थी। यहां पर फिर गांव की स्त्रियों ने अपना फर्ज निभाया और नई दुल्हन के आने पर निभाई जाने वाली सारी रस्में पूरी की। अपने-अपने घरों से वे स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर उस नए-नवेले जोड़े के पास लाईं। दूसरे दिन गांव की बुजुर्ग औरतों के सामने चूल्हा-छुलाई की रस्म निभाने के बाद घर-आंगन की जिम्मेदारी नई दुल्हन ने अच्छी तरह संभाल ली। एक वर्ष बीतते ही सींकू की बड़ी बहन पैदा हुई, फिर साल भर बाद दूसरी और फिर अगले वर्ष तीसरी बहन का भी जन्म हो गया। यह तो अच्छा हुआ कि चौथी बार में सींकू पैदा हो गया, नहीं तो लड़के के फेर में उसके माता-पिता लड़कियां पैदा कर ढेर लगा देते। बचपन में सींकू को खूब खिलाया-पिलाया जाता, फिर भी वह दुबला-पतला ही दिखता। तभी तो गांव वालों ने उसका नामकरण सींक से पतला सींकू कर दिया। बहनों से लाख गुना बढ़िया कपड़े मां-बाप की तरफ से उसे दिए जाते। बेटा होने की सहूलियत घर में उसे हर तरफ मिलती।
नौकरी छूटने और कम समय में ज्यादा कमाने की चाहत ने सींकू के पिता को चोरी यहां तक कि डकैती में भी शामिल करा दिया। इस गलत कार्य में सींकू के मामा उनके पथ प्रदर्शक बने। एक बार कुछ ऐसा हुआ कि किसी रसूखदार की हत्या में सींकू के पिता का नाम पुलिस के पास दर्ज हो गया। पुलिस उनके पीछे पड़ गई। फिर तो उन्हें परिवार सहित गांव छोड़ कर दिल्ली भागना पड़ा। उस समय सींकू 8वीं कक्षा में पढ़ रहा था। कहते हैं कि पुलिस के रजिस्टर में दर्ज अपना नाम हटवाने के लिए सींकू के पिता ने बहुत पैसे खर्च किये। ये पैसे उन्होंने और सींकू की माँ और बड़ी बहन ने दिल्ली की एक फैक्टरी में काम करके जमा किये। अपने परिवार के साथ सींकू भी दिल्ली गया था। वहां किराए पर एक छोटे से कमरे में छह लोग रहते थे। उस कमरे में दोनों समय का खाना भी पकता था। नित्य क्रिया कर्म के लिए सुबह पूरे परिवार को बिल्डिंग के एक कोने में बने टॉयलेट के पास पंक्ति में खड़ा होना पड़ता था। उसे याद है कि उसके पिता को देर से जगने की आदत थी, इसलिए उन्हें नित्य क्रिया कर्म निपटाने में कभी कभार अपनी बारी का इंतजार करते हुए एक घण्टे से ज्यादा समय लग जाते थे। फिर तो कपड़े तैयार होने की अपनी फैक्टरी पहुंचने में भी उन्हें देर हो जाती। यदि वे 1 घण्टे देर से पहुंचते, तो वहां उनकी आधे दिन की दिहाड़ी काट ली जाती थी। पैसे की बड़ी तंगी रहती। मां और बड़ी बहन भी फैक्टरी में काम करती थीं। दोनों छोटी बहनें स्कूल जाती और घर के सारे काम भी निपटाती। यहां भी सींकू को हर तरह से ज्यादा सुख देने की कोशिश की जाती। बहनों के साथ भेदभाव देखकर ही सींकू ने अपनी नौकरी के साथ एक और प्रण जोड़ लिया-लड़कियों के साथ भेदभाव खत्म करने का प्रण। सींकू की पाचन क्रिया बचपन से थोड़ी नाजुक थी। यदि किसी दिन शाम में वह बहनों के साथ ठेले पर बिक रहे चाट-पकौड़े या समोसे खा लेता, तो दूसरे दिन सुबह उसकी शामत आ जाती। घन्टों पंक्ति में खड़े होने के बाद जब उसकी बारी आती, तब तक तो पेट में आकाश-पाताल एक होने जैसा उसे एहसास होने लगता। कभी-कभी तो लगता कि पैंट में टट्टी लीक हो गई है। दिन में कई बार टॉयलेट का चक्कर लगाने के कारण बिल्डिंग में रहने वाले बच्चे उसे हगलू भैया कहकर चिढ़ाने भी लगे थे। किसी तरह सब कुछ बर्दाश्त करते हुए सींकू ने दिल्ली के एक स्कूल से दसवीं की परीक्षा पास कर ली। अब वह यहां और नहीं रुक सकता था। मां-बाप से हजार मिन्नतें कर वह अकेला गांव चला आया। हालांकि एकलौता बेटा होने के कारण मां-बाप उसे गांव नहीं भेजना चाहते थे। जब वह गांव आया, तो कुछ लोग उसे ताने देने लगे-वहां दिल्ली में तो सींकू खाने-कमाने लायक तैयार हो भी जाता, पर यहां गांव में तो वह आवारा हो जाएगा। असल में उसके दुर्भाग्य ने उसे यहां खींच लाया है। सींकू को बात बर्दाश्त करने की आदत बचपन से थी। सो किसी की बात का उसने कभी जवाब नहीं दिया। वह यह अच्छी तरह जानता था कि गांव में सामाजिक सहयोग तो बहुत है, लेकिन यहां इस तरह के व्यंग्य बाण भी खूब चलते हैं। पर उसे कांटों पर नहीं, फूल पर ध्यान देना है। मुश्किल वक्त में गांव वालों ने न सिर्फ उसकी, बल्कि उसके पूरे परिवार की खूब मदद की है। वह चुपचाप गांव के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर चला गया और उनसे दिल्ली में रहने की अपनी सारी व्यथा कथा कह दी। उस भले मानुष ने दौड़-धूप कर सींकू का एडमिशन शहर के एक कॉलेज में करा दिया और पुअर ब्यॉज फण्ड के तहत उसके क्लास-रजिस्ट्रेशन, एग्जाम फॉर्म आदि की व्यवस्था भी मुफ्त करा दी। गांव में ही किसी ने उसे अपनी पुरानी साईकल दे दी। इस तरह सींकू की इंटर की पढ़ाई शुरू हो गई। सींकू गांव में कुछ बच्चों को ट्यूशन देने लगा था। जिन बच्चों को वह पढ़ाता, उनकी माताएं बारी-बारी से चाय, नाश्ता, दिन और रात का भोजन भी उसे दे जाती। कपड़ों की जरूर उसे कमी रहती। एक जोड़ी शर्ट-पैंट को ही वह रोज धो-सुखाकर पहनता। जब प्रेस की जरूरत होती, तो वह लोटा को गर्म कर कपड़ों पर घुमा लेता। यहां गांव में उसके लिए सबसे ज्यादा आरामदेह बात थी-जब मर्जी हो, तब बिना रोक टोक के टट्टी जाओ। उस समय तो मोबाइल का प्रचार-प्रसार बहुत कम हुआ था। इसलिए 15 दिन में एक बार सींकू का हालचाल जानने के लिए उसकी माँ गांव पर पड़ोसी के यहां लैंडलाइन पर फोन कर लेती थी। दिल्ली में अपनी बिल्डिंग से निकलकर उन्हें किसी बूथ पर जाकर फोन करना पड़ता था। तिस पर उस समय गांवों में फोन टावर न होने के कारण नेटवर्क की बहुत समस्या रहती। माँ के ज्यादा पैसे न खर्च हों और वह अधिक परेशान न हो जाये, फोन उठाते ही सींकू मशीन की तरह बोल उठता- माँ प्रणाम। मैं यहां बहुत मजे में हूं। खूब खा-पी रहा हूं और मेरी पढ़ाई-लिखाई भी अच्छी तरह चल रही है। आशा है तुम सभी भी ठीक तरह से होगी। अच्छा अब मैं फोन रखता हूं और वह फोन रख देता। सींकू ट्यूशन के पैसे जमाकर शहर में बैंक परीक्षा की तैयारी कराने वाले कोचिंग भी जॉइन कर ली। वह यह बात बिल्कुल नहीं भूल पाया था कि विद्यार्थी जीवन में जब रास्ते में उसे आधे लिखे कागज या रद्दी में फेंके गए कागज के ठोंगे मिलते, तो वह उन्हें उठाकर अपने घर ले आता। उसे हाथ से दबाव देकर सीधा कर लेता और फिर उसमें रफ़ वर्क करता। सींकू पढ़ने में काफी होशियार था। जिस साल वह इकोनॉमिक्स ऑनर्स से फर्स्ट डिवीजन में पास हुआ था, उसके अगले साल ही वह सरकारी बैंक के क्लेरिकल जॉब एग्जाम में भी पास हो गया। जब उसने परीक्षा परिणाम में अपना नाम सफल होने वाले की सूची में देखा, तो उसे अपनी क्षमता पर विश्वास नहीं हुआ। जब दोस्तों ने भी उसके सफल होने की सूचना दी, तब उसे इस सच्चाई का एहसास हुआ। उसने घर बैठे अपने-आप से कहा- मेरे सफल होने का मतलब है कि गरीबी ने अब मेरे घर से अपने पंख समेटने की शुरुआत कर दी है। तब तो कुछ वर्षों के बाद मैं भी दादाजी की तरह अमीर कहलाने लगूंगा। उनकी तरह मैं भी सिर्फ गमकौआ भात ही खाऊंगा। तभी लगा कि कोई उसे सतर्क कर रहा है-गमकौआ भात खाना, खूब खाना, लेकिन भविष्य के लिए जरूर सोचना, आगे के दिनों के लिए कुछ बचत करना सीखना...। तभी तुम तरक्की कर पाओगे। ये किसकी आवाज थी? घर में तो मेरे सिवा कोई नहीं है। ये उसकी अंतरात्मा की आवाज थी, जो उसे सचेत कर रही थी।
स्मिता