Suljhe Ansuljhe - 7 in Hindi Moral Stories by Pragati Gupta books and stories PDF | सुलझे...अनसुलझे - 7

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सुलझे...अनसुलझे - 7

सुलझे...अनसुलझे

ज़िंदा सूत्र

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आज सवेरे से ही मेरे मोबाइल पर एक ही फ़ोन नंबर से बराबर फोन आ रहा था| कई बार रिंग आने से मुझे आने वाले फ़ोन के लिए चिंता भी होने लगी थी| सिग्नल पूरे नही होने की वज़ह से आवाज़ नही आ रही थी| फ़ोन करने वाला बराबर मुझ से संपर्क साधने की कोशिश में, लगातार फ़ोन लगा रहा था।

वापस उसी नंबर से घंटी बजते ही मैंने तुरंत ही अपना मोबाइल उठाया तो पीछे से आवाज़ आई -

‘आप मिसेस गुप्ता बोल रही हैं’...

मेरे हाँ कहते ही वह बोली -

‘भोर बोल रही हूँ मैम..आपसे आज सवेरे से बात करने की कोशिश कर रही थी| पर शायद सर्वर प्रॉब्लम होने से आपकी आवाज भी नही आ रही थी| काफी देर से फ़ोन भी कनेक्ट हो रहा है या नहीं ,पता ही नही चल रहा था। मैम! मैं आपके पास मिलने आना चाहती हूं। आपके साथ अपनी समस्याओं को साझा करना चाहती हूँ| ताकि शायद उनके ,कुछ समाधान ढूंढने में आप मेरी मदद कर पाए। आप समय बता दीजिये मैं नियत समय पर पहुँच जाऊँगी।‘

उसको एक बजे आने का बोलकर, मैं भी आने वाले फ़ोन के लिए निश्चिंत होकर अपने काम में जुट गई। मरीज़ो के अलावा क्लीनिक का सभी हिसाब-किताब भी देखने की ज़िम्मेवारी मेरी थी| समय की पाबंदी मेरे लिए बहुत मायने रखती थी। बीच-बीच में उठकर रिसेप्शन पर भी नज़र डाल लेती थी कि कहीं कोई मरीज़ किसी भी तरह की लापरवाही का शिकार न हो। अगर सभी कुछ व्यवस्थित हो तो काम करने में भी मन ज्यादा अच्छे से रमा रहता है| यह मेरा अनुभव रहा है।

ठीक एक बजे मैंने एक लड़की को क्लीनिक की सीढ़ियां चढ़ते देखा। मेरा चैम्बर रिसेप्शन के पास ही होने से काफी कुछ बाहर का दिखता ही था| फिर सभी कैमरों का मॉनिटर भी मेरे ही चैम्बर में था| मैं काफी ध्यान अपने चैम्बर से भी रख पाती थी। जब सेंटर खोला ही था तब कैमरे की सुविधा नहीं थी| तब सभी कुछ संभालने के लिए कई बार बाहर आना पड़ता था|

‘नमस्ते मैम ! अंदर आ जाऊं?’.....

‘आओ तुम्हीं भोर हो ना?’….पूछकर मैंने उसे बैठने को कहा| फिर मैं उसकी बातों और उसके हावभाव से उसको पढ़ने की कोशिश करने लगी।

‘जी! मैं ही भोर हूँ| मैंने ही आपको फ़ोन किया था दिल्ली में मेरा सुसराल है| आजकल अपने मायके आई हुई हूं। किसी परिचित से आपका पता चला कि आपसे एक बार मिलूं तो शायद मेरी चिंताओं का हल निकल जाए। मैं लगभग दो साल से बहुत ज्यादा चिंता में हूँ।'

मेरे हाँ कहते ही वह आगे बोली –

'भव्य और मेरा विवाह हुए पांच साल हो गए हैं मैम। बहुत कोशिशों व इलाज़ के बाद भी हमारी बच्चा होने की ख्वाहिश पूरी नही हो रही। जाने कितनी ही बार सोनोग्राफी दिल्ली में करवाई और डॉक्टर्स को भी दिखाया। चूंकि जोधपुर में मायका है तो यहां भी जोधपुर में कई डॉक्टर्स को दिखाया। काफी समय इलाज़ भी चला।

हम दोनों में शारीरिक रूप से कोई परेशानी नही है, ऐसा सभी डॉक्टर्स ने कहा है| पर इस खुशी से आज भी हम वंचित है। इसलिए आपसे समय नियत किया क्योंकि लगातार इसी चिंता में रहने से मैं घुटने लगी हूँ। कभी-कभी तो सारी-सारी रात मुझे नींद भी नही आती। अब तो ससुराल का भी दवाब बढ़ रहा है। जो भी मिलता है, यही पूछता है-

'अरे, बच्चे का भी सोचो अब।' अब सबको क्या कहूँ? सोच तो रहे ही है। मेरी चिंताएं बढ़ना स्वाभाविक ही है, मैम। अब आप ही बताइये क्या करूँ मैं?’ बोलकर भोर मेरी तरफ देखने लगी।

‘कहीं नौकरी भी करती हो तुम? मैंने भोर से पूछा।

‘जी, पढ़ाती हूँ एक स्कूल में,….आठवीं क्लास तक के बच्चों को|..बच्चों के संपर्क में रहती हूं तो अपने ही घर में बच्चे की कमी को बहुत महसूस करती हूं।‘….भोर ने जवाब दिया।

‘क्या दिनचर्या रहती है तुम्हारी?' मैंने भोर से पूछा।

‘सवेरे जल्दी ही उठना होता है। घर के सभी कामों की व्यवस्था कर स्कूल जाती हूँ|....टैक्सी, बस या मेट्रो सभी में काफी समय आने-जाने में लग जाता है तो घर आते-आते छः बज जाते है| फिर घर के काम और सोत-सोते ग्यारह-बारह बजना लगभग हर रोज का ही रूटीन है।‘

‘कभी कुछ खेल खेलती हो या कभी म्यूजिक सुनती हो अपनी पसंद का या फिर मूवी जाती हो? ‘ मैंने भोर से पूछा।

‘कभी-कभी जाते है मैम.. बहुत समय तो नही होता इन सबके लिए।‘ भोर ने जवाब दिया।

उसकी सारी बातों को तसल्ली से सुनने के बाद ज्यूँ-ज्यूँ मैंने उसकी बातों का तसल्ली से विश्लेषण किया तो मुझे उसकी सभी बातों में एक ही बात की पुनरावृत्ति कुछ ज्यादा ही लगी, वो शब्द था 'चिंता’|…..बहुत स्वाभाविक थी उसकी चिंताएं पर इन चिंताओं के हल खोजने की कोशिशें अधूरी थी। शाररिक रूप से तो जांचे करवा कर स्वस्थता का प्रमाणपत्र था ही भोर के पास| पर भोर ने कभी स्वयं के रिलैक्स होने के लिए कोई हल नही सोचा।

‘भोर!कितने दिन हो तुम मायके में ?' मैंने पूछा।

‘जी पंद्रह दिन की छुट्टियां है मेरे पास और यहां दस दिन तो हूँ ही| आप बताइए क्या करना है मुझे|’.... भोर ने बताया।

‘अगर रोज ही आ सको तो हम आधा घंटा समय साथ गुजारेंगे| जिसमें तुम्हारे साथ सिर्फ उन बातों पर बात करेगे जो कि तुम्हारे गायनेकोलॉजिस्ट के ट्रीटमेंट के अलावा बहुत जरूरी है। तुम्हारी डॉक्टर का ट्रीटमेंट तो चलता रहेगा पर तुमको मानसिक तौर पर भी बहुत खुश और चिंतामुक्त रहना होगा ताकि तुम्हारे कंसिवमेंट के ट्रीटमेंट में वो सहायक बने।...

शारीरिक स्वस्थता के साथ- साथ मन का प्रफुल्लित होना भी बहुत जरूरी है। मेरे किसी भी बात का अर्थ गलत मत समझना| तुम हर तरह से स्वस्थ हो| बस अपनी खुशियों को अपनी ज़िम्मेवारियों में भी कैसे जिंदा रखना है यही मुझे तुम्हारे साथ बैठ कर तुमको याद दिलाना है। मेडिकल ट्रीटमेंट के अलावा बच्चे के जन्म लेने में,यह भी बहुत बड़ा सहयोगी है। समझ रही हो न तुम भोर?’

‘जी मैम! मैं कल से आती हूँ।‘ बोलकर भोर उठकर चली गई। समय के साथ उसने अपनी दिनचर्या में काफी सुधार किया| यहाँ से जाने के बाद लगभग चौदह-पंद्रह महीने बाद उसका फोन आया उसको बेटा हुआ है| बहुत खुश थी वो| साथ ही मैं भी बहुत खुश थी|

पर उसकी बातों को सुनकर एक प्रश्न बार बार मेरे मन मस्तिष्क पर उभरता रहा|.. आज महानगर ही नही छोटे शहरों की भागदौड़ में व्यक्ति कितना उलझा हुआ है कि सब होने पर भी कई बातों के बहुत सरल से हल उसको सूझ ही नही पाते| असल खुशी ज़िन्दगी की भागदौड़ में पिछड़ जाती है।

चूंकि आजकल मां-बाप बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए बहुत सजग हैं| तो ट्यूशनों और स्कूलों में जाकर डिग्रियाँ तो हासिल हो जाती है| पर बहुत मूलभूत बातें, जो बच्चे में बचपन से ही बोई जाती थीं या कहिये स्वतः ही बुन जाती थीं वो कही अदृश्य होने लगी हैं। कैसे खुश रहा जाये सभी अच्छी-बुरी परिस्थितियों में या यूं कहें कि कैसे स्थिर रहा जाए,कहीं-कहीं नई पीढ़ी में काफी हद तक दिख नही रहा।

आजीविका के लिए भागदौड़ तो करनी ही पड़ेगी क्योंकि आज के समय की यह जरूरत है। पर अपनी असल खुशियों के खोज को साथ-साथ जारी कैसे रखना है ,हम सभी को कभी नही भूलना है| यही जीवन से जुड़ा बहुत बड़ा व ज़िंदा-सा सूत्र है...

सोचकर देखिए जरूर.

प्रगति गुप्ता