Dah-Shat - 41 in Hindi Thriller by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | दह--शत - 41

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दह--शत - 41

एपीसोड्स --41

वह एम.डी. के कार्यालय जाकर अपनी ट्रिक व घटनायें बताकर कहती है, “सर! अब वे लोग डरे हुए हैं आप वर्मा को बुला लीजिये।”

“ये भी हो सकता है वे आपको चिढ़ा रहे हों ।”

“सर! मैं क्या बच्ची हूँ जो मज़ाक व सच्चाई में अंतर नहीं जानती? मेरे पति को कुछ सोचने-समझने लायक नहीं छोड़ा है, प्लीज ! उन्हें बचाइये।”

“सोचते हैं ।”

एक घरेलू औरत बेशर्मी से जिस चीज़ को हथियार बनाकर उसके घर को बर्बाद करने पर तुली है तो क्या वह बेशर्म नहीं हो सकती, “सर ! मैं कब से कह रही हूँ आप ‘जहर’ फ़िल्म देखिये तब पता लगेगा हम लोग किस तरह जाल में फँसाये गये हैं ।”

वह तल्ख़ आवाज़ में कहते हैं , “आई एम नॉट इंटरेस्टैड सच ए डर्टी फ़िल्मस लाइक ‘ज़हर’, ‘जिस्म’, ‘गैंगस्टर’।”

उसकी आवाज़ भी तल्ख़ हो गई है वह भूल गई है इस केम्पस प्रमुख के सामने बैठी है, “नाऊ ए डेज़ दीज़ आर द फ़ैक्ट्स ऑफ वर्ल्ड या शायद हमेशा ही रहा है । अब मीडिया दिखा रहा है। शी इज़ द हीरोइन ऑफ़ ‘जिस्म’।”

“हू ?”

“दैट लेडी।”

वे उसे क्रोध से ऐसे देखते हैं जैसे वह कोई स्टंट मार रही है ।

“सर !उन्हें एक बार अब बुलाइये ।”

“आई विल थिंक ।” वह अपने को सामने रखी फ़ाइल में उलझा लेते हैं।

एक सप्ताह तक कोई प्रतिक्रिया न पाकर वह एम.डी. को फ़ोन करती है, फ़ोन क्या कर रही है गिड़गिड़ा रही है, “सर ! अब तो विभागीय कमिशनर भी नये आ गये हैं। आप उन्हें बुलाकर वर्मा से पूछताछ करिये । मैं पहले से लिखकर दूँगी कि यदि वर्मा पुलिस में रिपोर्ट करता है तो वह मेरी ज़िम्मेदारी होगी ।”

“कुछ सोचने का समय दीजिये।”

समिधा जान बूझकर अभय को बताती है वह एम.डी. से मिलकर आई है, दूसरे दिन अभय शाम को घोषणा सी करते हैं, “आज विकेश अपने ख़ास दोस्तों को पार्टी दे रहा है।”

“ज़ाहिर है सबसे ख़ास दोस्त तो तुम ही हो।”

ये पार्टी उन्हें लड़वाने का बहाना है। वह अभय को रोकती नहीं है, जोश से कहती है, “पार्टी में जाना तो चाहिये।”

वह अपनी मनपसंद सी.डी. लगाकर तेज़ म्यूज़िक ऑन कर देती है। रसोई में माइक्रोवेव में आलू उबालने रखकर कहती है, “मैं कचौरी बनाकर अपनी पार्टी कर रही हूँ । क्या तुम्हारे लिये भी बनाकर रखूँ?”

“मुझे नहीं खानी है।” अभय खिसियाये हुए हैं । वह पार्टी से जल्दी लौट आते हैं, उसी उखड़े मूड से। वह तन्मय होकर टी.वी. देख रही है ।

स्थिति नियंत्रण में है लेकिन समस्या का अंत नहीं है । एम.डी. नियमानुसार इस व्यक्तिगत मामले में वर्मा को बुला नहीं सकते । अक्षत से अभय को खबर लग गई है कि शिकायत प्रेसीडेन्ट साहब को दिल्ली पहुँचाई जा सकती है । अभय उसके सामने ही कहते हैं, “तुम्हारी माँ ने मेरा यहाँ रहना दूभर कर दिया है। सब इन्हें साइकिक समझते हैं । मैं वी.आर.एस. ले लूँगा यानि की वॉलिन्टयरी रिटायरमेंट स्कीम में एप्लाई कर दूँगा ।”

“वॉट?” अक्षत व समिधा के मुँह से एक साथ निकलता है ।

“हाँ, इन्हें अब भी पाग़लपन के दौरे पडते हैं । विकेश व मेरी बरसों की दोस्ती में इन्होंने माचिस की तीली से आग लगा दी है मैं अगले महिने वी.आर.एस. के लिए एप्लाई कर रहा हूँ ।”

“पापा ! ज़रा और सोच लीजिये ।”

“सब सोच लिया है। अपना मकान बेच कर हम लोग तुम्हारे पास रहने आ रहे हैं । इन्हें तो इस शहर से हटाना ही होगा।”

ओ ऽ ऽ.....तो तलाक न करवाने की मज़बूरी के बाद गुंडों का ये नया शगूफ़ा है । वह और बिफ़र उठती है, “एक सड़क छाप औरत के कारण मैं ये शहर छोड़कर चली जाऊँगी?”

“मैं तुम्हें यहाँ से हटाऊँगा।”

“जब तक ‘इन्क्वायरी’ पूरी नहीं होगी, तुम क्या समझ रहे हो कि तुम्हारी ‘एप्लीकेशन’ मैं मंजूर होने दूँगी? ”

सोमवार की सुबह अक्षत बैग लेकर चलने को तैयार है वह कहती है, “अक्षत !मुझे दिल्ली प्रेसीडेंट साहब से शिकायत करनी होगी ।”

“आई एम फ़ीलिंग वेरी हेल्पलेस । आप दोनों क्यों नहीं मेरे पास आ जाते ? कम से कम शांति तो हो ।”

“दुश्मनों को पीठ दिखाकर भागना मेरी फ़ितरत नहीं है।”

घर में थोड़े समय तक ही सब यथावत चलता है । अभय बीच-बीच में वी.आर.एस. की बात कर ही देते हैं । धीरे-धीरे अभय रोबोट की तरह बनाये जा रहे हैं । वह सुबह से रात तक उससे एक शब्द भी नहीं बोलते । न घर से जाते समय ‘बाय ऽ ऽ...’ कहते हैं । एक मूर्ति की तरह खाना खाते .यदि यह बात करने की कोशिश करती है तो वह ‘हाँ’ या ‘ना’ में उत्तर देकर तुरंत वहाँ से हट जाते हैं । वह भी कहाँ तक धीरज रखे ? वह भी बात नहीं करती ।

घर में सिर्फ़ दो प्राणी है लेकिन निःशब्द सूनापन सहमाता रहता है । घर-भर में तरल ज़हर फनफना रहा है । दीवारों पर, दरवाज़ों के पर्दों पर, एक-एक कोने में, बिस्तर पर, हर बार से अधिक ज़हरीला । उसके दिमाग़ में ऐंठन रहती है। किसी काम में दिल नहीं लगता। गर्मी की छुट्टियों के कारण बच्चे भी पढ़ने नहीं आ रहे हैं । अभय अपने को सम्भालने की कोशिश भी करते होंगे तो विभाग में उनकी दिमाग़ी हालत को बदतर बनाने वाला कविता का दूसरा दलाल है । मिलट्री ऑफ़िसर्स से रहस्य उगलवाने वाली महिला जासूस क्या ऐसी ही शातिर दिमाग़ वाली होती होंगी ? जो आदमी को छल, बल से मेढ़ा बना डालती हैं ।

अभय बिना कुछ कहे शाम को सात बजे ही घूमने निकल जाते हैं । वह भी नहाकर जल्दी चल देती है । रास्ते में वह उसे लौटते हुए मिलते हैं, वह उन्हें बिना कुछ बोले घर की चाबी दे देती है।

चौबीस-पच्चीस दिन इसी तरह निकल गये हैं । कभी-कभी घर पर कोई मेहमान आ जाये तो अभय को समिधा से कुछ बात करनी ही पड़ती है ।

एक दिन वह घूमती लम्बी सड़क पर आगे निकलती जा रही है, अभय दिखाई नहीं दे रहे। अचानक नीता अपनी काइनेटिक रोक देती है ।

“हाय ।”

“हाय । बहुत दिनों बाद दिखाई दी है ।”

“वही जीवन के चक्कर... तू यहाँ घूम रही है अभय अंदर कॉलोनी से इधर आते दिखाई दिये थे।”

“क्या ? अच्छा... अच्छा। मैं नहाये बिना नहीं घूम सकती । ये कभी जल्दी निकलकर घूम लेते हैं ।”

“ओ...।” नीता इधर-उधर की बातें किये जा रही है..... वह सुन कहाँ रही है । वह कहती है, “अच्छा चलती हूँ .... बाय ऽ ऽ... ।”

“बाय ऽ ऽ...।”

समिधा जल्दी-जल्दी घर आ जाती है । थोड़ी देर बाद अभय भी आ गये हैं। आँखें अजीब सुरूर से चढ़ी हुई हैं।

“आज रास्ते में नहीं मिले थे।”

“तुम्हें इससे क्या ? मैं दूसरी तरफ़ घूमने चला गया था।” वह बहके-बहके से कहते हैं । उनका ये नशीला भौड़ा अंदाज़ ऐसा है कि उनके हाथ में बस गजरा पहनाने की देर है। फिर वह बहके स्वर में पूछते हैं, “क्या अक्षत या रोली का फ़ोन आया था ?”

“नहीं, तुम कहाँ से आ रहे हो ? तुम्हें क्या आज फिर ड्रग दी गई है ?”

“मैं कहीं से भी आ रहा हूँ तुमसे मतलब? और कुछ भी खाया हो उससे तुम्हें क्या ?”

वैसे कुछ पूछने की जरूरत नहीं है । बड़े ही सुनियोजित ढंग से अपनी बीवी से उन्हें चौबीस पच्चीस दिन अलग करके उन्हें अपने घर तक घसीट लिया गया है । ड्रग के सुरूर में ढाल दिया गया है । यदि नीता रास्ते में नहीं मिलती तो वह ये बात जान ही नहीं पाती । वह अभय से बात करना नहीं चाहती इसलिए अंदर जाने लगती है । अभय उसकी बाँह पकड़कर उसे अपने पास बिठा लेते हैं, “मुझे किसी ने उसके घर जाते देखा था, जो शक कर रही हो ?”

“मैं कहाँ शक कर रही हूँ ?”

“दुकान पर इतने लोग खड़े रहते हैं । उनसे पूछकर आओ, किसी ने मुझे वहाँ जाते देखा है ?” उनकी लाल-लाल आँखें उबलकर बाहर आ रही हैं ।

शाम को सात साढ़े सात बजे कोई किसी के भी घर जा रहा हो कौन ध्यान देता है ? समिधा बोलती कुछ नहीं है ।

अभय नशे में रटाये हुए संवाद बोल रहे हैं, “तुम्हें पुलिस में जाकर रिपोर्ट करनी है तो करो।” फिर वह एक हाथ से छाती पीटने लगते हैं, “मैं जेल जाऊँगा। तुम जितनी साल चाहोगी जेल में सड़ूँगा। नहीं तो वी.आर.एस. लेकर तुम्हें इस शहर से हटा दूँगा । रिटायरमेंट लेने के बाद इस केम्पस से हटाकर फिर तुम्हें देखूँगा।”

वह क्षोभ व दुख से पागल हुई जा रही है । एक ख़तरनाक क्रिमनल औरत उसके पति से खेल रही है, वह लाचार है ये वो अभय नहीं है जिन्हें बरसों से जानती है। ये तो धमकी देने वाले सुपर-डुपर गुंडे बन जाते हैं। वह सहमी हुई आवाज़ में कहती है, “मैं तुम्हारी रिपोर्ट क्यों करूँगी ? उन तीनों गुंडों को जेल भिजवाऊँगी जिन्होंने तुम्हारी ये हालत कर दी है ।”

“नहीं, नहीं, तुम मेरी रिपोर्ट करो । मैं जेल में जाने के लिए तैयार हूँ ।” वह फिर अपने हाथ से शहीदाना अंदाज़ में छाती पीटते हैं ।

हे भगवान ! वो गुंडे किसी भी तरह इस घर में कुछ भयानक करने पर तुले हुए हैं। पुलिस में एफ.आई.आर. लिखा ही दें? नहीं, वह धीरज नहीं खोयेगी वह भी उस औरत के लिए जिसका पति महीने भर

बीमार रहे, तो न रुके । अभय को जेल भी भिजवाने की कोशिश कर रही है ।

रात में सोते हुए अभय का चेहरा निर्दोष है । उसका दिल भर आता है जो व्यक्ति उसे मानसिक यातनायें दे रहा है उसे ही उसे बचाना है । अपने घर को किसी दुर्घटना, किसी बदनामी से बचाना है। जीवन की ये कैसी विकट समस्या है ?

वर्मा को ये नई घटना पता होगी ? इस भयानक दाँव भरी चोट को क्या ऐसे ही वह निगल सकेगी ? जिसकी योजना चौबीस-पच्चीस दिन पहले बनी थी । नहीं, कभी नहीं, नहीं तो उसकी हिम्मत और बढ़ेगी ? वह वर्मा के ऑफ़िस फ़ोन करती है, “वर्मा ! जब तक मेरी बात पूरी न हो जाये फ़ोन मत रखना। बात हद से आगे बढ़ गई है । पाप जब बढ़ने लगता है तेज़ाब बनकर पापी को ही जला देता है । तुम सबकी बर्बादी निकट है । वो जगह पहचान ली गई है । अब तुम वी.आर.एस. लेकर चुपचाप यहाँ से चले जाओ ।”

“आप क्या कह रहीं हैं ।”

“यदि तुमने मेरी बात नहीं मानी तो तुम्हारी नौकरी चली जायेगी ।” वह एक अपराधी को धमकी दे रही है । थर-थर स्वयं काँप रही है, “इस इतवार तक नहीं गये तो प्रेसीडेन्ट साहब को रिपोर्ट कर दूँगी।”

उधर से फ़ोन कट जाता है ।

वह धड़कते दिल से इतवार का इंतज़ार कर रही है । हर दिन, हर क्षण। स्थान पहचाने जाने के कारण उन्हें जाना ही होगा । लेकिन सोमवार को उस घर की रोशनियाँ चिढ़ा रही हैं, “तुम बिल्कुल अकेली औरत हो, क्या कर लिया तुमने ?”

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffmail.com