metro in Hindi Short Stories by Anil jaiswal books and stories PDF | मेट्रो

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मेट्रो




मेट्रो प्लेटफॉर्म पर आकर रुकी। दरवाजे खुले, तो रामलाल ने अंदर पैर रखा। आज मेट्रो में ज्यादा भीड़ नहीं थी। रामलाल ने चारों ओर नजरें दौड़ाईं। सारी सीटें फुल थीं। इससे उन्हें क्या? वह धीरे-धीरे सीनियर सिटीजन के लिये रिज़र्व सीट की तरफ बढ़ गए। वहां पहुंचते ही वह ठिठक गए। दोनो सीटों पर महिलाएं बैठी थीं। उनकी उम्र ज्यादा नही थी। पर वे अकेली नहीं थीं। उनकी गोद में बच्चे थे।
कुछ सोचकर रामलाल आगे बढ़े और एक महिला से बोले, "यह सीट बुजुर्गों के लिये है। प्लीज उठ जाइये।"
महिला ने सिर उठाकर रामलाल की ओर देखा, जैसे उसकी समझ में ही कुछ न आया हो।
"मैंने कहा, यह सीट रिज़र्व है बुजुर्गों के लिये। आप मुझे यह सीट दीजिये।" रामलाल बोले। उनकी आवाज में कड़कपन कुछ बढ़ गई थी।
महिला ने फिर बड़ी हैरानी से रामलाल की ओर देखा। वह कई बार सीनियर सिटीजन की सीट पर बैठ चुकी थी, पर किसी ने बच्चा साथ देख उठने के लिए नहीं कहा था। पर आज ये बुजुर्ग...
"अंकल बच्चा है साथ में...।" उसने समझने की कोशिश की।
"तो मैं क्या करूँ? मैं यह सीट तुम्हें क्यों दूं? इतने सालों से देने का ही तो काम कर रहा हूँ। कब तक करूं? मुझे सीट चाहिये बस।"
"अंकल आप इधर आ जाइये। मैं अपनी सीट आपको दे देता हूँ।" एक नौजवान ने आवाज लगाई।
रामलाल ने मुड़कर उसकी तरफ देखा। बेटा उनके बेटे की ही उम्र का था। फिर भी उनके मन में प्यार नहीं जगा। कुछ तल्खी से बोले, "मैंने तुमसे सीट मांगी क्या? और क्या मैं भीख मांग रहा हूँ, जो एक ने नहीं दी, तो दूसरे ने दे दी। मैं अपना हक मांग रहा हूँ समझे।" रामलाल ने लगभग झिड़क ही दिया।
उस औरत ने अब रामलाल को ध्यान से देखा। शरीर से वह ठीक थे पर चेहरे के लकीरें उनकी उम्र की ज्यादा चुगली कर रही थीं। उन्हें देख एक बार उसे अपने पापा याद आ गए।
कुछ सोचकर उसने बच्चे को गोद में संभाला और उठ खड़ी हुई। प्यार से बोली, "सॉरी अंकल, गलती मेरी ही है। मुझे आपकी सीट पर बैठना ही नहीं चाहिये था। मेरे पापा भी मुझे डाँटते थे कि मैं बहुत बुद्धू हूं। आपको देखकर मुझे खुद यह सीट छोड़ देनी चाहिये थी। पर कोई बात नहीं। आपकी बेटी-बहू की तरह हूँ। मुझे माफ़ कर दीजिये। प्लीज अपनी सीट पर बैठिये।"
पर रामलाल नहीं बैठे। वह उस औरत की तरफ देखते रहे।
"नाराजगी छोड़ दीजिये। प्लीज अपने सीट लीजिए।"
औरत की प्यार भरी बातों ने रामलाल के गुस्से की आंच पर कुछ जल छिड़का। अब उन्हें भी लगने लगा कि शायद वह कुछ ज्यादा लाउड हो गए थे। उन्होंने एक बार फिर औरत की ओर देखा। सच में वह उनकी बहू की उम्र की थी। हाँ, उनका पोता कुछ बड़ा था। उस औरत के प्यार और इज्जत ने उनकी आंखों को कुछ गीला सा कर दिया। कुछ सोचते हुए वह बड़बड़ाये, "ऐसे ही बहू भी बात करती होती, तो शायद मैं..."
"क्या कहा अंकल?" उनकी बात उस औरत की समझ में नहीं आई ।
"कुछ नहीं बहू। तुम बैठो, तुम बैठो।" बड़बड़ाते हुए रामलाल प्लेटफॉर्म पर मेट्रो के रुकते और दरवाजा खुलते देख तुरंत मेट्रो से उतर गए। जाना तो उन्हें बहुत दूर था, पर वह अपने आंसू उस औरत को नहीं दिखलाना चाहते थे।
उस औरत के स्नेह और आदर ने उनके अंदर के प्यार के बंद दरवाजों को भी खोल दिया था।