Ram Rachi Rakha - 4 - 1 in Hindi Moral Stories by Pratap Narayan Singh books and stories PDF | राम रचि राखा - 4 - 1

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राम रचि राखा - 4 - 1

राम रचि राखा

मरना मत, मेरे प्यार !

(1)

"जो मन में आए करो...मरो तुम!" झल्लाते हुए प्रिया ने फोन को झन्न से क्रेडिल पर रखा और मेरी तरफ मुड़ी। मैं बेडरूम से सटे स्टडी रूम में कुछ लिख रहा था।

कल जब से प्रिया की माँ का फ़ोन आया था तब से ही यह तनाव चल रहा था। मैं समझ गया था कि प्रिया के लाख समझाने के बावजूद भी अविनाश ने अपनी जिद नहीं छोड़ी होगी। अन्यथा अपने छोटे भाई को गुस्से में भी वह इस तरह से बद्दुआ नहीं देती।

मुझे ऐसी स्थितियाँ एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ कर देती हैं। समझ में नहीं आता कि क्या कहूँ। क्या करूँ। इसलिए ऐसी स्थिति से बचना ही चाहता हूँ।

प्रिया मेरे पास आ गई।

"क्या हुआ?” मैंने विस्तार से जानना चाहा।

"क्या हुआ..! जैसे कि तुम्हें कुछ पता ही नहीं है!" प्रिया ने चिढ़कर कहा।

वह पहले से ही झल्लाई हुई थी। ससुराल और मायके दोनों ही जगहों पर अगर कुछ भी गलत हो रहा हो तो वह प्रिया का जाती मामला बन जाता है। यहाँ तक कि अगर अड़ोस-पड़ोस में हो तब भी। फिर यह तो अपने ही माता-पिता और भाई की बात थी। मैं प्रिया से एकदम उलट अपनी एक काल्पनिक दुनिया में रहना पसंद करता हूँ।

"…और तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है। तुम्हें तो अपनी मंडली, अपनी किताबें और अपनी दुनिया..." पास में पड़ी हुई कुर्सी पर बैठती हुई बोली। प्रिया मुझ से इस बात से गुस्सा थी कि उसके कहने के बाद भी मैं अविनाश को समझाने नहीं गया था।

"…किसी की ज़िंदगी में क्या हो रहा है। कोई जी रहा है या मर रहा है इससे तुम्हें फर्क ही क्या पड़ता है।" वह बड़बड़ाई।

मुझे बुरा लगा। कहना चाहता था कि मेरी दुनिया मेरे अकेले की नहीं है। उसमें वर्तिका और तुम भी हो...और मैं इतने में ही खुश रहना चाहता हूँ। मुझे सबके मामले में नहीं पड़ना है। तुम दोनों को ही खुश रख लूँ, यही मेरे लिए पर्याप्त है। फिर भी मैं चुप रहा। बात बढ़ाकर अपना मन नहीं खराब करना चाहता था। प्रिया की तरफ चुपचाप देखता रहा।

"कितनी बार कहा कि उसे समझाओ। एक बार चले जाओ। लेकिन तुम्हारे कान पर जूँ तक नहीं रेंगती।" प्रिया ने उलाहना देते हुए कहा।

"तुम्हें पता है मुझे पंचायत पसंद नहीं है। तुम्हारा छोटा भाई है। जब तुम्हारा कहा नहीं मान रहा है, तो मेरा क्या मानेगा। आज सुबह फ़ोन पर जब उस विषय में मैंने उससे बात करनी चाही तो उसने बात ही बदल दी। तुम्हें अगर जाना है तो चली जाओ।" मैंने एकदम शांत स्वर में कहा।

मैंने वास्तव में अविनाश से बात करनी चाही थी। किन्तु वह उस विषय में बात करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। मुझे पता था कि वहाँ जाकर भी कोई फायदा नहीं होने वाला था। ज्यादा दबाव देने पर हमारे बीच का रिश्ता ही खराब होता।

वह उठ खड़ी हुई और बोली, "वह तो मैं जाऊँगी ही। तुम अपना सारा ज्ञान किताबों के हवाले करते रहो केवल।" कहती हुई वह कमरे से निकल गई।

हमने पाँच साल पहले प्रेम-विवाह किया था। आज तक नहीं जान पाया कि इन पाँच सालों में मेरे अंदर क्या बदल गया जो प्रिया को प्रायः कष्ट देने लगा था।

अविनाश प्रिया के परिवार का अकेला सदस्य था जो हमारे विवाह में सम्मिलित हुआ था। बाकी सब लोग हमारे विरुद्ध थे क्योंकि हमने अंतरजातीय विवाह किया था। तब अविनाश अठारह-उन्नीस साल का ही था। प्रिया से लगभग चार साल छोटा है। लेकिन मानसिक रूप से बहुत ही परिपक्व। हमेशा हँसता हुआ चेहरा और अत्यंत मिलनसार व्यक्तित्व।

हमारी शादी के दूसरे दिन नाश्ता करते समय अविनाश ने कहा- "जीजा जी, लड़का होने का यह बहुत बड़ा फायदा है कि अगर बापू सामने के दरवाजे से घर के अंदर न दाखिल होने दें तो पीछे से दीवार लाँघ कर भी घर में घुसा जा सकता है।" हम तीनों ही ठहाका लगाकर हँस पड़े।

बात बात पर हँसी मजाक करना उसकी आदत थी। जब हम उसे ट्रेन पर विदा कर रहे थे तब हाथ हिलाते हुए बोला -"आप लोग एकदम मस्त रहिए आज नहीं तो कल सभी मान जाएँगे। न भी मानेंगे तो कौन सा आपके यहाँ राशन की कमी हो जाएगी।" किसी भी दुःख तकलीफ को हमेशा हँसी में उड़ा देता था।

प्रिया का मायका एक सम्पन्न परिवार था। अच्छी खासी खेती-बाड़ी थी और उसके पिता जी स्कूल में अध्यापक भी थे। अविनाश का मन पढ़ाई में कभी नहीं लगा। किसी तरह से बी ए की परीक्षा पास की और उसके बाद हाइवे पर बाज़ार से लगभग सटी हुई अपनी जमीन पर कुछ दुकानें बनाकर उसमें भवन निर्माण की सामग्री का व्यवसाय करने लगा। उसके मिलनसार स्वभाव और दुनियादारी की समझ के कारण शीघ्र ही उसका व्यवसाय अच्छा चल पड़ा।

"मैं तुम्हें चारबाग बस स्टैंड पर छोड़ता हुआ ऑफिस जाऊँगा। दोपहर तक तो तुम पहुँच ही जाओगी। अधिक से अधिक दो घंटे लगेंगे।" ब्लेज़र पहनते हुए मैंने प्रिया से कहा।

कल शाम को मेरे और प्रिया के बीच हुई खटपट से बोझिल माहौल अब थोड़ा सामान्य हो चला था। प्रिया आज अपने मायके जाने के लिए तैयार हो रही थी और मैं ऑफिस। वर्तिका नाना के घर जाने को लेकर उत्साहित थी।

"डैडी आप नाना के घर नहीं चलेंगे" मेरी बात सुनकर वर्तिका बोली।

"नहीं बेटा, डैडी आपको लेने आएँगे दो-तीन दिन बाद"। मैंने वर्तिका को गोद में उठाते हुए कहा।

"मैं आपको फोन करूँगी।" आजकल किसी का भी फोन आता है तो वर्तिका उठाने का जिद करती है। नया-नया शौक और उत्साह है।

"हाँ मेरा बच्चा, हम फ़ोन पर खूब बातें करेंगे" मैंने वर्तिका को चूमते हुए कहा, "चलो अब निकलते हैं जल्दी से, नहीं तो देर हो जाएगी।“

हम घर बंद करके गाड़ी में आ गए। रास्ते में कुछ देर बाद खामोशी को तोड़ते हुए प्रिया ने कहा "कैसे-कैसे रंग बदल जाते हैं लोगों के। पता नहीं क्या जादू कर दिया है इस लड़की ने उस पर...।" फिर कुछ देर रुक कर बोली, "अभी तक तो सब ठीक था। हम लोग उसका गुणगान करते रहते थे। पता नहीं अचानक बेटी के पैदा होते ही उसे क्या हो गया...और इस लड़के की भी बुद्धि एकदम भ्रष्ट हो गई है कि उसकी बातों में आकर अपने ही माँ-बाप को छोड़ने को तैयार हो गया है।" प्रिया की आवाज़ में दुःख और परेशानी थी।

"पता नहीं क्या चक्कर है। नमिता ऐसी लड़की तो नहीं लगती है।" मैंने कहा।

"लोग जैसे दिखते हैं वैसे होते कहाँ हैं। आदमी को रंग बदलने में समय लगता है क्या!" प्रिया की बातों में मुझे लेकर कटाक्ष था। मैं चुप हो गया।

रायबरेली की बस में प्रिया को बिठाकर मैं ऑफिस चला गया।

शाम को लौटकर जब कपड़े बदल रहा था तब अलमारी में टंगे क्रीम कलर के स्वेटर पर ध्यान चला गया जो कि मुझे बहुत पसंद था। उस पर आसमानी रंग की चौड़ी पट्टियाँ खूब फबती थीं। नमिता ने बुनी थी मेरे लिए। स्वेटर को देखते हुए नमिता के परिहास के स्वर भी कानों में गूँज उठे- "इस स्वेटर में देखकर दीदी आपके प्रेम में दोबारा पड़ जाएँगी" जब स्वेटर पहना, तब उसने हँसते हुए कहा था।

डेढ़ साल पहले अविनाश का विवाह हुआ था।

‌नमिता ने विवाह के बाद जब पहली बार आँगन में कदम रखा तो पूरा घर उसके रूप से जगमगा उठा था। मुँह-दिखाई की रस्म के लिए आई आस-पड़ोस की औरतों की आँखें चौंधिया गयी थीं। अविनाश की माँ इतनी सुंदर पुत्र-बधू पाकर खुश तो थीं किन्तु मन में कहीं यह आशंका भी पल रही थी कि इतनी अधिक सुंदरता क्या आत्म-मुग्धता से बाहर निकल सकेगी और इतने कोमल हाथ क्या सास-ससुर की सेवा के लिए आगे बढ़ पाएँगे!

किन्तु, शीघ्र ही उनकी शंका निर्मूल साबित हुई जब एक सप्ताह के अंदर ही नमिता ने पूरे घर के सुख-दुःख को अपना लिया और घर के हर जड़-चेतन के साथ पानी की तरह हिल-मिल गयी। सुंदर, सुशील, मृदुभाषी, मिलनसार, पढ़ी-लिखी; शास्त्रों में वर्णित नारी के समस्त गुणों से युक्त लड़की थी।

सास-ससुर को लगने लगा कि उनके घर में एक बहू नहीं अपितु एक बेटी रह रही है। दोनों लोग अपनी पुत्र-बधू के गुणों का बखान करते नहीं थकते थे। अविनाश को लगा कि उसके पूर्व जन्मों के समस्त पुण्य इकट्ठा होकर नमिता के रूप में उसके पास चले आये हैं।

प्रेम-सिक्त दिन रात पंख लगाकर उड़ने लगे। कब डेढ़ साल गुजर गया पता ही नहीं चला। इस बीच घर में वह खुशखबरी आयी जो सबको आनंदित कर देती है। नमिता माँ बनने वाली थी। अस्पताल से जब से दादी बनने की खबर आई थी सास फूली नहीं समा रही थीं। लक्ष्मी घर आ रही है। व्यवस्था में जोर शोर से जुट गई थीं। लेकिन एक तो ऑपरेशन और ऊपर से बच्ची के कमजोर पैदा होने के कारण जन्म से एक सप्ताह बाद बहू और बच्ची घर लौटे।

अभी पोती के घर आने का जश्न पूरा भी नहीं हुआ था कि अविनाश ने किराए पर एक घर लेकर यह घोषणा कर दी कि वह अब अपनी पत्नी और बच्ची को लेकर अलग रहेगा। पूरे घर में मातम पसर गया। माँ के ऊपर तो जैसे आसमान ही टूट पड़ा।

"क्या बेटा! हमसे क्या गलती हो गई जो ऐसा फैसला कर लिए...।" माँ का स्वर पीड़ा में डूबा हुआ था, "आखिर क्या बात हो गई। हमें भी तो कुछ पता चले। अभी तक तो सब कुछ ठीक था। बहू भी कितनी खुश थी। अचानक क्या बात हो गई?"

"कोई बात नहीं है..बस अकेले रहने का मन है हमारा।" कहता हुआ अविनाश बाहर चला गया। बहू ने भी अपनी जबान पर ताला लगा लिया था।

रात में खाना खाते समय माँ फिर से अविनाश को समझाने लगीं, "कैसे अकेले रहोगे बेटा, हमारा नहीं तो कम से कम उस नन्हीं सी जान की तो फिक्र करो। अभी वो एक हप्ता शीशा के बक्से में रही। कितनी कमजोर है! ऊपर से माँ की छाती में दूध भी नहीं उतर रहा है..." साड़ी के पल्लू से आँखें पोछती हुई आगे कहने लगीं, "अपनी फूल सी औरत का तो ख़याल करो। कैसी कुम्हला गयी है बेचारी। ऊपर से इतनी दवाइयाँ! कोई साथ नहीं रहेगा, खाने पीने का ख़याल नहीं रखेगा तो कैसे रह पाएगी। उसे इस समय सेवा की जरूरत है।"

"अम्मा चिंता न करो मैंने सब इंतजाम कर लिया है। कहारिन रहेगी देखभाल के लिए।...और हम कोई बहुत दूर नहीं जा रहे हैं। दस कदम की ही दूरी है। जब मन करे चली आना मिलने। हम लोग भी आते रहेंगे।" अविनाश ने एकदम सपाट स्वर में कहा।

"फिर इतना बड़ा घर छोड़कर जा ही क्यों रहे हो। आखिर क्या कमी है यहाँ। क्या परेशानी है हमसे।

"कोई कमी नहीं है। मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता। हमें जाना है बस।" अविनाश ने बेरुखाई से कहा और अपने कमरे में चला गया।

प्रिया जब रायबरेली पहुँची तब तक अविनाश दूसरे घर में जा चुका था। माँ की आँखों के आँसू और पिता के चेहरे की विवशता भी उसे नहीं रोक पाए थे। फिर बहन की बातों की लाज कहाँ रखनी थी। उसे समझाने तो गयी थी लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ। दो दिन अपने माता-पिता के साथ रहकर वापस लखनऊ लौट आई।

क्रमश..