kora kagaj in Hindi Classic Stories by Sunita Agarwal books and stories PDF | कोरा कागज

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कोरा कागज


बारिश थी कि रुकने का नाम नहीं ले रही थी।आकाश में बिजली चमक रही थी,बादल गरज रहे थे।शाहीन ने घड़ी पर नजर डाली तो देखा रात के बारह बज रहे हैं।पर नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी।आकाश के बादलों की तरह उसके मन में भी विचारों का बबंडर मचा हुआ था।बहुत चाहा कि नींद आ जाए।अतः वह विचारों को परे छिटक नींद का उपक्रम करने लगी। पर मन में यदि तूफान मचा हो तो नींद कैसे आ सकती है। आज उसे अपने पापा की बहुत याद आ रही थी एक पापा ही तो थे जो उसे प्यार करते थे। उसे बचपन की वो सारी बातें याद आ रही थीं जब वो अपने पिता की अंगुली थामे कभी चॉकलेट तो कभी बिस्कुट की फरमाइश करती स्कूल जाती थी फिर स्कूल से लौटकर स्कूल की सारी बातें अपने पिता को बताती थी।उसके पिता रेलवे में कर्मचारी थे अतः उनका ट्रान्सफर होता रहता था। हर जगह परिवार रखने की सुविधा न होने के कारण उसके पिता ने अपने परिवार को आगरा में ही सेटल कर रखा था और महीने पंद्रह दिन में घर आते जाते रहते थे।वह उनके आने का बेसब्री से इंतजार किया करती थी।उनके आने पर अपने पापा से ही चिपकी रहती थी ।पापा भी उसके खूब नखरे उठाते उसे चॉकलेट दिलाते घुमाने ले जाते उसे अपने हाथों से खाना खिलाते घर की इकलौती संतान जो थी।इसी तरह वक्त गुजरता गया और अब वह तीन छोटे भाइयों की बहन बन गई थी ।अब वह बड़ी हो गई थी और अपने भाइयों के लालन पालन में माँ की मदद भी किया करती थी।इस साल उसने बी ए फाइनल ईयर का एग्जाम दिया था।और उसके सभी भाई भी अब स्कूल जाने लगे थे।
फिर एक दिन ऐसी खबर आई कि उसकी जिंदगी को झकझोर कर रख दिया।उधर से किसी का फ़ोन था कि आफताब साहब को हार्ट अटेक का दौरा पड़ा है तुरंत आ जाएँ।फ़ोन स्टाफ के ही किसी सहकर्मी ने किया था।उनके परिवार पर तो मानो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था।आनन फानन में उसकी अम्मी और अन्य रिश्तेदार उधर रवाना हो लिये जहाँ उसके पिता कार्यरत थे।लाख कोशिशों के बाबजूद भी उसके पिता को बचाया न जा सका था। शाहीन बड़ी मुश्किल से इस सदमे से उबर पाई थी।अब उसके पिता के सहकर्मी उसके पिता के स्थान पर शाहीन को नौकरी दिलवाने की पेशकश करने लगे ।शाहीन की अम्मी उस वक्त तो इन्कार न कर सकी और उन्हीं लोगों की कोशिश से शाहीन को उसके पिता के स्थान पर रेलवे में नौकरी लग गई।शाहीन भी पूरी मेहनत से उस जिम्मेदारी को निभाने की कोशिश कर रही थी। उसके सहकर्मी रेहान ने उस नई जगह पर सेटल होने में उसकी बहुत मदद की दफ्तर के कामकाज से लेकर घर के सामान लाने तक। रेहान का साथ उसे भी अब अच्छा लगने लगा था। छ महीने का वक्त ही गुजरा था कि अचानक उसकी अम्मी का पैगाम आया कि तुरंत चली आओ। ड्यूटी के तुरंत बाद शाहीन आगरा जाने वाली बस में सवार हो ली।रास्ते भर वो काफी परेशान रही कि क्या कारण है माँ ने इस तरह क्यों बुलाया है।मन में तरह तरह की आशंकाएँ जन्म ले रही थीं।घर पँहुच कर जब सबको खैरियत से देखा तो उसकी जान में जान आई।उसने अम्मी से इस तरह बुलाये जाने का कारण पूछा।जबाब सुनकर शाहीन हक्की बक्की रह गई अम्मी का जबाब था कि अब तुम नौकरी नहीं करोगी। उसने अम्मी से कारण जानना चाहा पर अम्मी ने कुछ भी बताने से इन्कार कर दिया।सिर्फ इतना कहा कि ये मेरा अन्तिम फैसला है और शाहीन ने अपने सारे अरमान दिल में दफन कर आँख बंद करके अम्मी के इस फैसले को कुबूल कर लिया था। उसे आज भी याद है जब वह नौकरी पर थी उसके लिये कई अच्छे अच्छे रिश्तों के प्रस्ताव आये थे।और खुद उसके सहकर्मी रेहान ने उसकी अम्मी से उसका हाथ माँगा था। वह खुद भी तो रेहान को पसंद करने लगी थी पर कह न सकी थी कहने का वक्त भी कहाँ मिला था। शायद शाहीन की अम्मी इसी बात से डर गई थी यह बात उसे बाद में पता चली थी। रिश्तेदारों ने भी अम्मी को भड़काया था उन्होंने कहा था "शाहीन तो निकाह करके अपना घर बसा लेगी बाद में तुम और तुम्हारे बच्चों का क्या होगा"।तुम्हारे पति की जगह भी चली जाएगी ।बडा होने पर तुम अपने बेटे को उनकी जगह नौकरी दिलवा सकती हो।और उनकी बातों में आकर शाहीन की अम्मी ने शाहीन की नौकरी छुड़वा दी थी।
घर में पैसों की तंगी देख शाहीन ने उसी शहर में एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली। वह दोनों शिफ्टों में काम करने लगी थी।वह सुबह जल्दी उठती घर के सारे काम निबटाती फिर स्कूल से आकर वही सारे काम निबटाकर देर रात गए सोती। भाइयों के प्यार में वह भूल गई थी कि उसकी भी अपनी जिंदगी है। शायद इसी सहूलियत की वजह से उसकी अम्मी ने कभी उसके रिश्ते की कोशिश ही नहीं की । इसी तरह वक्त गुजरता गया शाहीन के भाई भी अब बड़े हो गए और अच्छा खासा कमाने लगे थे। घर में पैसे की और सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं रही।लेकिन उसकी अम्मी और उसके भाइयों ने उसके निकाह के बारे में अब भी नहीं सोचा और न कभी ये कहा कि अब काम करना छोड़ो बहुत काम कर चुकी ।वह उसी तरह दोहरी जिम्मेदारी निभाती रही।अब एक एक करके उसके तीनों भाइयों की शादियाँ भी हो गईं थीं।बड़ा भाई दूसरे शहर में नौकरी करता था तो अपनी बीबी को लेकर वहीं चला गया। दूसरे वाले की पत्नी अधिकांशत अपने मायके में ही पड़ी रहती ससुराल का माहौल उसे रास नहीं आता था।सास ननद उसे पसंद नहीं थीं इसलिये वह दो चार महीने बाद दो चार दिन के लिये आती थी फिर चली जाती थी,अपने पति को वहीं बुला लेती थी। तीसरी भाभी भी घर में ही अलग रहने लगी थी।शाहीन पर अब भी सारी जिम्मेदारियां ज्यों कि त्यों लदी थीं।थोड़ा और समय गुजरा भाइयों के बच्चे भी हो गए और अम्मी भी अब इस दुनिया में नहीं रही।उसने अपने भतीजे भतीजी को पालने में अपनी भाभी की बहुत मदद की थी।और बच्चे भी अब स्कूल जाने लगे थे।
भाभी के तेवर अब बदल गए थे वह अपने काम से काम रखती शाहीन से बात तक नहीं करती थी। वह अपना खाना खुद बनाती और अपने छोटे मोटे खर्चों के लिये अब भी उसी तरह स्कूल में नौकरी कर रही थी ।शरीर भी अब थकने लगा था उम्र जो हो चली थी। जब कभी उसकी तबियत खराब हो जाती वह भूखी प्यासी पड़ी रहती उसे एक गिलास पानी के लिये भी कोई नहीं पूछता था।पिछले हफ्ते ईद थी हर बार तो ईद के दिन वह दिन भर काम में जुटी रहती थी इस बार उसकी तबियत खराब थी तो वो काम कैसे करती तो उसकी भाभी ने उसे खाने को भी नहीं पूछा था। घर में तरह तरह के पकवान बने थे पर वो दिन भर भूखी प्यासी आँसू बहाती रही थी। उसकी हालत अब घर में पड़े फालतू सामान की तरह हो गई थी जिसकी अब किसी को जरूरत नहीं थी।अतः अब वो तनाव में रहने लगी थी। उसे रह रह कर अपनी रेलवे की नौकरी और रेहान याद आते थे। अपनी अम्मी का कहना मान कर उसने कितनी बड़ी कुर्बानी दी थी इस बात का तो इन लोगों को इल्म तक नहीं था।इस घर में वो बिन तनख्वाह की नौकरानी बनकर रह गई थी। जिस माँ ने उसे जन्म दिया उसने भी तो कभी उसके दर्द नहीं समझा था और जिन भाइयों को उसने इतने प्यार और अरमानों से पाला पोसा था वह तो अब अपनी पत्नियों के इशारे से नाचने वाली कठपुतली मात्र थे।मजाल है कि बिना उनकी इजाजत उससे बात भी कर लें। उसे अब अपनी ये जिंदगी सज़ा के समान लगती और अपने फैसले पर पछतावा होता कि काश उसमें रेहान के प्यार को कुबूल करने की हिम्मत होती और वह अपनी अम्मी की बात मानकर नौकरी न छोड़ती तो उसकी बेरंग जिंदगी में भी कुछ रंग होते और उसकी जिंदगी इस तरह कोरा कागज बनकर न रह जाती।